राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे और अपने गुजरात शासन के दौरान हिन्दू हृदय सम्राट की जन-उपाधि हासिल करने वाले नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश की राजनीति को बड़ी दृढ़ता से धर्म केन्द्रित बहुसंख्यकवाद की ओर मोड़ देने वाली भारतीय जनता पार्टी अब इसे सत्ता शक्ति में समानता की नई दिशा देने को प्रयासरत है। हाल के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद देवेन्द्र फडणवीस की मुख्यमंत्री पद पर अनाश्चर्यजनक ताजपोशी और एकनाथ शिंदे को डिप्टी सीएम पद की शपथ के लिए मना कर पार्टी ने यह साफ और मजबूत संदेश देने का प्रयास किया है।
चुनाव नतीजों के बाद 12 दिन चली मशक्कत के परिणाम यानी गुरुवार, 5 दिसंबर को हुए शपथ-ग्रहण पर सबकी नजर थी क्योंकि चौबीस घंटे पहले तक हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में शिंदे ने स्पष्ट स्वीकार नहीं किया था कि वे डिप्टी सीएम पद की शपथ लेने जा रहे हैं. वे अपने चिरपरिचित अंदाज में मुक्तकंठ खिलखिला जरूर रहे थे। शिंदे की फितरत और मराठा स्वाभिमान जैसे मनोविज्ञान के मद्देनजर राजनीतिक विश्लेषकों की उम्मीदें इस लिहाज से क्षीण थी। हां, वे अपने बेटे को राज्य की राजनीति में डिप्टी सीएम बनवाकर खुद केन्द्रीय केबिनेट का हिस्सा बन जाएं ऐसे मजबूत आकलन लगाए जा रहे थे लेकिन भाजपा की मनौव्वल रंग लाई और शिंदे ने डिप्टी सीएम पद की शपथ ले ली। इसे राजनीति में स्थापित धारणा के अनुरूप भी मान सकते हैं कि संभव है यह स्क्रिप्ट भाजपा ने उसी दिन लिख ली हो जब ढाई साल पहले जून 2022 में एकनाथ शिंदे को सीएम पद देते हुए देवेन्द्र फणनवीस को डिप्टी सीएम पद के लिए राजी कर लिया था।
भाजपा के लिए ऐसा प्रयोग नया नहीं था, और ना ही कांग्रेस के लिए। भारत के राजनीतिक इतिहास में इससे पहले भी ऐसे क्षण आए हैं। कुछ वर्ष पूर्व का ही उदाहरण बैबीरानी मौर्य हैं। वे अगस्त 2018 से सितंबर 2021 तक उत्तराखंड की राज्यपाल रही। राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर रहने के बाद उनसे कार्यकाल पूर्ण होने से पहले इस्तीफा लिया गया और उत्तरप्रदेश विधान सभा में विधायक का चुनाव लड़ाया गया। अब वे योगी आदित्यनाथ सरकार में मंत्री हैं।
अटल-आडवाणी युगीन भाजपा में भी ऐसे प्रयोग हुए। साल 2004 में मध्यप्रदेश की सीएम उमा भारती के नाम 1994 के हुबली दंगों के लिए अरेस्ट वारंट जारी होने पर उन्होंने इस्तीफा दे दिया था, तब वरिष्ठ नेता बाबूलाल गौर को सीएम बनाया गया। वे 23 अगस्त 2004 से 29 नवंबर 2005 तक मप्र के सीएम रहे लेकिन फिर शिवराज सिंह चौहान के सीएम बनने पर बाबूलाल गौर उनके मंत्रिमंडल में मंत्री बने। कांग्रेस ने भी ऐसा प्रयोग पंजाब में किया था। तत्कालीन सीएम हरचरण सिंह बराड़ को हटाकर 21 नवंबर 1996 को तत्समय डिप्टी सीएम रही राजिन्दर कौर भट्टल को सीएम बनाया था। वे अल्प कार्यकाल 11 फरवरी 1997 तक सीएम रही। बाद में पुन: अमरिन्दर सिंह मंत्रिमंडल में मंत्री और डिप्टी सीएम रही। राज्यपाल रहने के बाद विधायकी का चुनाव लडऩे का उदाहरण राजस्थान से भी जुड़ा है। राजस्थान की राजनीति के कद्दावर कांग्रेसी नेता जगन्नाथ पहाडिय़ा दो बार सीएम रहने के बाद 3 मार्च 1989 से 2 फरवरी 1990 तक बिहार के राज्यपाल रहे लेकिन बाद में पुन: विधायक का चुनाव जीकर आए, हालांकि उन्हें कोई मंत्री पद नहीं मिला।
दरअसल, उच्च पदों के रसूख और प्रोटोकॉल्स के भौंडे प्रदर्शन से, चाहे वह राजनीतिक हो या फिर कार्यपालक प्रशासनिक मशीनरी, हमारे मनोविज्ञान में अधिकारिता व अधीनस्थता (बॉसशिप और सबोर्डिनेटशिप) का भाव कूट-कूट कर भर गया है। संभवतया राजशाही युग में ऐसा नहीं था क्योंकि राजा के प्रति कृतज्ञता थी और दांडिक भय था। शासन के ब्रिटिश कार्यकाल में ऑफिस कल्चर विकसित हुई और अंग्रेज अधिकरियों को अधिक रुतबे से नवाजा गया। वहीं से यह कुरीति हमें विरासत में मिली। कार्यपालक प्रशासनिक ढांचे में इसके महत्व पर लेखक प्रश्न चिह्न नहीं लगाना चाहता क्योंकि इसके अभाव में व्यवस्थागत कई मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं. इसे प्रबंधकीय भाषा में ऑर्गेनाजेशनल डिफेक्ट भी कह सकते हैं लेकिन लोकतांत्रिक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में बॉसशिप, सबोर्डिनेटशिप को निस्संदेह कोई स्थान नहीं होना चाहिए। सभी जनप्रतिनिधि हैं, कोई स्थाई कैडर अधिकारी नहीं है, और निश्चित कार्यकाल के लिए जनता ने शासनिक व्यवस्था संचालन के लिए चुनकर भेजा है।
हमारे संविधान के प्रावधान भी समानता की ही रेखा अंकित करते हैं। अनुच्छेद 74 (केन्द्र के बारे में) और अनु. 164 (राज्य) क्रमश: राष्ट्रपति और राज्य की सलाह के लिए मंत्रिपरिषद होने की बात कहते हैं। सांविधानिक प्रावधानों में मंत्रिपरिषद के लोकसभा और राज्य विधानसभा के प्रति सामूहिक उत्तरदायित्व की बात कहते हैं। जाहिर है, संविधान ने संपूर्ण मंत्रिपरिषद को एक जाजम पर रखा है। सिर्फ बहुमत दल के नेता को सीएम, पीएम नियुक्त करने और उसकी सलाह से मंत्रिपरिषद के गठन की व्यवस्थागत बात कही गई है।
आजादी के बाद के वर्षों में बढ़ती सत्ता लोलुपता और रुतबे की महत्वाकांक्षी चेष्टाओं में बॉसशिप लेने और उसके न रहने पर बगावत जैसी परंपराएं स्थापित हो गई। इससे राजनीतिक दल सांगठनिक रूप से कमजोर होते चले गए और जिताऊ राजनीति के आगे घुटने टेकने लगे थे। बहरहाल, मोदी मैजिक के बूते मजबूत चुनावी जनसमर्थन के चलते आत्मविश्वास से लबरेज अपने जीवनकाल की अब तक की सबसे दृढ़संकल्पित भाजपा भारतीय राजनीति को बॉसशिप अवधारणा से निकाल नई दिशा देने का जीवट प्रयास कर रही है तो बधाई तो बनती ही है!