क्या आपको नहीं लगता कि तेजी से आधुनिक होती युवा पीढ़ी अपने ही संस्कारों को पीछे छोड़ती जा रही है। वह पहले जैसी मर्यादा, संबंधों की मधुरता आज उसके खुलेपन में कहीं खो सी गई है।
यह ठीक है कि बच्चों के साथ दोस्ताना व्यवहार जरूरी है लेकिन वे आपको ही दोस्तों की तरह ट्रीट करने लगें, लापरवाही से जवाब देने लगें और आपकी कही बातों को नजरअंदाज करने लगें तो फिर इसे आप क्या कहेंगी?
एक जमाना था जब बच्चे माता-पिता की तकलीफ उनके हाव-भाव से समझ लेते थे। रात को हाथ-पैर दबा कर सोने जाया करते थे लेकिन आज उन्हें मां-बाप की तकलीफ बोल कर भी नजर नहीं आती, हाथ-पैर को दबाना तो दूर वे पांव छूना भी भूलते जा रहे हैं। इन्हें आधुनिकता का आवरण यकीनन हमने ही पहनाया होगा।
बच्चों की इस सोच के पीछे कहीं न कहीं हम भी जिम्मेदार हैं। पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंग भरते हम खुद ही अपने बच्चों को अपनों से दूर करते जा रहे हैं। घर में अगर कोई मेहमान आ जाए तो यह कहने के बजाय कि बेटे इनके पैर छुओ, हम कहते हैं कि बेटे, अंकल से हाय करो, चाचा-चाची, ताऊ-ताई की जगह बच्चों से अंकल-आंटी कहलवाने में शान समझने लगे हैं।
संयुक्त परिवारों में रह कर जो मूल्य, जो संस्कार बच्चों को मिला करते थे, एकल होते परिवारों में वे वैसे भी टूटते जा रहे हैं। रिश्तों
का यह खुलापन कई बार हमें अपनों ही के बीच में शर्मिंदा कर देता है।
जरूरी यह नहीं कि हम कितने आधुनिक हैं, कितना अपने बच्चों के करीब हैं बल्कि जरूरी यह है कि हम अपने बच्चों को आधुनिकता के इस दौर में कितना अपने करीब, अपने मूल्यों के आधार पर रख सकते हैं। संस्कार और अच्छी आदतें कोई घुट्टी में मिला कर पिला देने वाली चीजें नहीं हैं जो हम नई पीढ़ी को दे दें। इन्हें तो खुद ही जीना पड़ता है। आप अगर अपने बच्चों के सामने अपने बड़ों के आगे झुकेंगी तो यकीनन बच्चे भी उसी का अनुसरण करेंगे।
आधुनिकता का परचम फहराते-फहराते हम ही ने कहीं न कहीं अपने बच्चों को इतना आधुनिक बना दिया कि वे अपनी जमीन से जुड़ना और रिश्तों के सच को पहचानना भूल गए हैं। उन्हें सिर्फ यह देखना होता है कि उनके मां-बाप उनके लिए क्या कर सकते हैं, कैसे करेंगे, यह सोचना तक नहीं चाहते।
श्रेयांश के घर के सामने रहने वालों ने अपने बेटे को बाइक खरीद कर दी। श्रेयांश ने भी अपने पापा से जिद की कि उसे भी बाइक खरीद कर दो। इस पर उसके पापा ने कहा कि अभी तुम 9वीं कक्षा में हो जब 12वीं पास कर लोगे तो ले देंगे। और वैसे भी अभी मेरी बाइक की किस्तें चल रही हैं। श्रेयांश कहने लगा कि कभी आप साइकिल पर ऑफिस जाओ तो पता चलेगा कि कितनी शर्म आती है सब साथियों के बीच। मुझे तो बस बाइक चाहिए। मेरे सब दोस्तों के पापा दिलवा सकते हैं, एक सिर्फ आप ही नहीं।
देखा जाए तो यह बहुत ही बड़ी बात थी जो श्रेयांश ने अपने पिता से कही। आज का बच्चा सिर्फ अपनी सुख-सुविधाओं के सामने किसी के बारे में भी सोचना नहीं चाहता। उसे सिर्फ अपनी परवाह है और इतना बोलने की हिम्मत, कहीं न कहीं हमने ही उसे दी भी है।
बहरहाल, हम ही बच्चों को एक मर्यादा में रह कर बड़े और छोटे का अंतर सिखाते हैं कि मां-बाप से दोस्ताना व्यवहार जरूरी है लेकिन रिश्तों के मायने क्या हैं, रिश्तां का तुम्हारे सामने कद क्या है आदि सिखाते तो बच्चे अपनी हदों को इस तरह नहीं लांघते। बहुत जरूरी है बच्चों को अपने मूल्य, अपने संस्कार दे कर अपने ही करीब रखा जाए ताकि वे दिल की बात भी कह सकें और आपके दिल को भी पढ़ सकें।