ईश्वर ने प्रत्येक मनुष्य को वाणी के रूप में एक अद्भुत शक्ति प्रदान की है या कहें कि दैवीय उपहार एवं वरदान दिया है। जिसे भारतीय संस्कृति में सरस्वती का निवास स्थान माना गया है। वाणी से ही हम आसपास के वातावरण को सुगंधित बना सकते हैं। बल्कि जहाँ भी चाहें वहाँ वाणी की शक्ति से सकारात्मक ऊर्जा बिखेर सकते हैं। लोगों को अपना बना सकते हैं। वाणी भी दो प्रकार की होती है – एक तो वह जिसमें अमृत घुला हुआ हो, अर्थात जो वाणी सत्य, मधुर, निष्कपट , उत्साह और उल्लास बढ़ाने वाली होगी वही अमृत तुल्य कहलाएगी। इसके विपरीत जिस वाणी में कठोरता, कटुता, द्वेषभाव, उपहास, अहंमन्यता या छिछोरापन आदि की गंध होगी वह दूसरों के लिए तो हानिकारक होगी ही होगी , साथ ही वह अपने लिए भी विष बीज बोने का काम करेगी। शब्दों के इस अतुलनीय सामर्थ्य को देखते हुए हमारे मनीषियों और धार्मिक शास्त्रों ने हमें प्रत्येक शब्द के प्रति सावधान रहने का संकेत दिया है। साथ ही वाणी को सदैव मधुर,पवित्रा एवं हितकारी बनाने का निर्देश दिया है। गोस्वामी तुलसीदास जी के शब्दों में – तुलसी मीठे वचन ते, सुख उपजत चहुँ ओर। वशीकरण एक मंत्रा है, तज दे वचन कठोर।। इसी तरह कागा काको धन हरे, कोयल काको देय । मीठी वाणी बोलकर जग बस में कर लेय।। अर्थात मीठे वचन बोलकर सारे जग को अपने वश में किया जा सकता है। दूसरों को अपना बनाया जा सकता है। हमारे शास्त्रों में वाणी के सत्य एवं कल्याणकारी स्वरूप पर भी बल दिया गया है। महर्षि व्यास योगदर्शन के भाष्य में कहते हैं कि सत्य का प्रयोग जीवों के हित के लिए ही करना चाहिए , अहित के लिए कदापि नहीं। जिसके बोलने से प्राणियों की हानि होती हो वह सत्य होते हुए भी पाप माना जाएगा। इसीलिए परिस्थिति को भली प्रकार विचार कर विवेक का सहारा लेकर जो सबके लिए कल्याणकारी हो, ऐसी ही वाणी सदैव बोलनी चाहिए। लोक व्यवहार में वाणी का अपना महत्व है जो सामाजिक जीवन में सफलता से लेकर आंतरिक शांति एवं संतोष का आधार बनती है। इसलिए वाणी का कभी दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से हमारी शक्ति का एक बड़ा अंश नष्ट हो जाता है।वाणी को सशक्त बनाने के लिए मौन का अभ्यास किया जा सकता है। मनुष्य जीवन पुण्यों का मीठा फल है, अतः हम सभी मीठी वाणी बोलकर इसे सार्थक बनाएँ , सदा मुस्कुराएं , यही जीवन मंत्रा है।