कान्यकुब्ज देश में अजामिल नामक एक ब्राह्मण रहता था। पहले वह बहुत सदाचारी था तथा सदैव धर्म कर्म के कार्यों में लिप्त रहता था किन्तु एक दासी के संग रहने के कारण उसमें चोरी, ठगी, बेईमानी और दुराचार के दुर्गुण विद्यमान हो गए थे। दासी से उसके दस पुत्रा थे तथा वह आजीवन उस परिवार के भरण पोषण में लगा रहा तथा परिवार के भरण पोषण के लिए ही उसने सभी प्रकार से दुराचरण किया। अजामिल के सबसे छोटे पुत्रा का नाम नारायण था। अजामिल की आयु अस्सी बरस की हो गयी थी किन्तु वह उस बालक के मोह में इतना ग्रस्त था कि उसे अपनी मृत्यु की सुध भी नहीं रही। मृत्यु का समय आने पर जब यमदूतों ने आकर उसका धर दबोचा तो अभ्यासवश उसके मुख से अपने छोटे पुत्रा का नाम निकल गया क्योंकि उसने सहायता के लिए अपने छोटे बेटे को पुकारा था तथा कहा था – ‘नारायण’। नाम सुनते ही भगवान विष्णु के दूत वहां उपस्थित हो गए जिस कारण धर्मराज और भगवान विष्णु के दूतों में विवाद छिड़ गया। यम के दूतों का कहना था कि वह व्यक्ति आजीवन पापकर्मों में रत रहा, चोरी, ठगी और दुराचरण करता रहा, अतः इसके कर्मों का दण्ड दिलाने के लिए इसे धर्मराज के पास ले जाना आवश्यक है। भगवान विष्णु के दूतों का कहना था कि जीवन भर पाप करते रहने पर भी अंतिम समय पर इसने भगवान के नाम का स्मरण किया है तथा ‘नारायण’ को स्मरण करके सहायता की गुहार की है, यही इसका सबसे बड़ा प्रायश्चित है। चोरी, मद्यपायी, ब्रह्महत्या करने वाला, गुरू स्त्रागामी तथा पितृहन्ता का प्रायश्चित भगवान विष्णु का नाम जप लेना ही बताया गया है, क्योंकि अजामिल ने भगवान के नाम का स्मरण करके अपना प्रायश्चित कर लिया है, इसलिए अब यह दण्ड का भागी नहीं रहा। यमदूतों ने भगवान विष्णु के दूतों का तर्क सुना तो वे पूर्ण रूप से भगवान विष्णु के दूतों से सन्तुष्ट हो गए तथा उन्होंने अजामिल को मृत्युपाश से मुक्त कर दिया। अजामिल को जब होश आया तो उसे भगवान की शक्ति के प्रसाद का ज्ञान हुआ तथा वह भक्ति की महिमा से इतना प्रभावित हुआ कि उसने तभी से भगवान की भक्ति प्रारम्भ कर दी।