स्वयं पर नियंत्रण रखना कठिन

0
ertrefdsa

स्वयं को वश में रखना अर्थात् अपनी इन्द्रियों को नियन्त्रित करना संसार का सबसे कठिन कार्य होता है। इस कार्य में बड़े-बड़े ऋषि-मुनि असफल होकर अपनी वर्षों की साधना को नष्ट कर बैठते हैं। जब उन्हें वस्तुस्थिति का बोध होता है, तब तक चिड़िया हाथ से निकलकर खेत चुग गई होती है। तब पश्चाताप करने का भी कोई औचित्य नहीं रह जाता। उस समय उनकी स्थिति माया मिली न राम वाली हो जाती है।

            मनुष्य अपने शत्रुओं पर साम, दाम, दण्ड, भेद वाली नीति के बल पर विजय प्राप्त कर सकता है। परन्तु अपनी इन्द्रियों को वश में करने के लिए यह नीति कार्य नहीं करती। उन्हें तो बस अपनी इच्छाशक्ति के द्वारा अभ्यास करके जीत जा सकता है। इसके लिए अपने मन को संसार के आकर्षणों से उसी प्रकार विमुख करना होता है जैसे एक बच्चे से उसका मनपसन्द खिलौना लेकर उसे शान्त बैठ जाने के लिए कह दिया जाए। वहाँ तो बच्चा रोएगा, चिल्लाएगा, अपना विरोध किसी-न-किसी बहाने प्रकट करेगा। यहाँ भी इन्द्रियाँ बार-बार अपने आकर्षणों की ओर भागेंगी तथा परेशान करेंगी।

             परम विद्वान आचार्य चाणक्य की ‘चाणक्यनीति’ इस विषय में मनुष्य को समझाते हुए कहती है-

    इन्द्रियाणि च संयम्य बकवत् पण्डितो नरः।

    देशकालबलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि साधयेत्।।

अर्थात् बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह अपनी इन्द्रियों को बगुले की तरह वश में करे। उसे देश अथवा स्थान, काल और अपनी शक्ति को ध्यान में रखते हुए सभी कार्यों को पूर्ण करना चाहिए।

            यहाँ आचार्य कहते हैं कि स्वयं को बगुले की तरह साध लो, फिर अपनी सम्पूर्ण शक्ति से अपने उद्देश्य में जुट जाओ। बगुला तालाब में रहकर पेट भरने के लिए मछलियों का शिकार करता है। मछलियाँ उसके पास अपनी जान जाने के भय से नहीं जातीं। बगुला भी कम शातिर नहीं होता है। उसे ईश्वर ने स्वयं को नियन्त्रित करने की शक्ति दी है। वह अपने शरीर को साधकर तालाब में एक स्थान पर बिना हिले-डुले खड़ा हो जाता है। मछलियाँ निर्भय होकर जब उसके पास आने लगती हैं तब वह अपनी पूरी शक्ति लगाकर उनका शिकार करता है अर्थात अपना पेट भरने का कार्य करता है।

             धर्म, राजनीति, खेल, शिक्षा आदि किसी भी क्षेत्र में मनुष्य यदि सफलतापूर्वक आगे बढ़ने की कामना करता है तो सबसे पहले उसे अपने लक्ष्य का निर्धारण करना चाहिए। फिर उसके अनुरूप साधन जुटाने चाहिए। तत्पश्चात अपनी समग्र चेतना को समाहित करके, एकाग्र मन से बिना इधर-उधर देखे, समय का उचित प्रकार से नियोजन करके ही उसे आगे कदम बढ़ाना चाहिए। जीवन में सफल होने के लिए ऐसे संयमी और विवेकी पुरुष के मार्ग में कोई बाधा रोड़ा नहीं अटका सकती। उसे स्वयं ही हटकर रास्ता देना होता है।

          यानी भौतिक कार्यों के कार्यान्वयन के लिए मनुष्य स्वयं को साधता है, लाभ-हानि के थपेड़ों को सहन करता हुआ ही लक्ष्यभेदन करने में सफल हो पाता है। आध्यात्मिक सफलता के लिए भी तो साधना करना, अग्नि में तपना और भी आवश्यक होता है। बहिर्मुखी इन्द्रियाँ मनुष्य को बार-बार भटककर इस असार संसार की और उन्मुख करती हैं। खाने-पीने में, भोगविलास में, सुन्दर दृश्य देखने में, परनिन्दा में और बतरस में इन्द्रियों को बहुत आनन्द आता है। वे इन सबसे विमुख नहीं होना चाहतीं।

          अब यह साधक पर निर्भर करता है कि वह सांसारिक विषयों में भटकना चाहता है अथवा ईश्वरोन्मुख होकर अपना लोक-परलोक सुधारना चाहता है। यदि मनुष्य आध्यात्मिक उन्नति करना चाहता है तब उसे निश्चित ही अपनी इन्द्रियों का निग्रह करना ही होगा। संसार के आकर्षणों में आकर्षित होने वाली इन्द्रियों को बलपूर्वक साधना की और प्रवृत्त करना होगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *