इस धरती पर पेड़-पौधे, जलचर (पानी में रहने वाले), नभचर (आकाश में उड़ने वाले) और भूचर (पृथ्वी पर रहने वाले जीव-जन्तु) आदि कुछ भी स्थाई नहीं है। मनुष्य इसका अपवाद नहीं है। जो भी जीव इस असार संसार में जन्म लेता है, उसका अन्त यानी मृत्यु पहले से ही निश्चित होती है। इसीलिए मनीषी इस संसार को मरणधर्मा कहते हैं।
इसी कड़ी में हर जीव का जन्म बार-बार होता है और इसी प्रकार उसकी मृत्यु भी बार-बार होती है। इसी प्रक्रिया में जीव को माता के गर्भ में रहने का कष्ट भी बार-बार भोगना पड़ता है। इससे जीव को छुटकारा नहीं मिल सकता। जन्म और मृत्यु के इन दुस्सह कष्टों से मुक्ति पाने के लिए मनुष्य को केवल परमपिता परमात्मा की शरण में जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त उसके पास और कोई अन्य उपाय नहीं है।
‘गीतगोविन्दम‘ पुस्तक में भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त जयदेव जी ने इसी सत्य का उद्घाटन करते हुए बड़े ही सुन्दर शब्दों में कहा है-
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,
पुनरपि जननी जठरे शयनम।
इह संसारे बहुदुस्तारे,
कृपयाऽपारे पाहि मुरारे
भजगोविन्दं भजगोविन्दं,
गोविन्दं भजमूढमते।
नामस्मरणादन्यमुपायं,
नहि पश्यामो भवतरणे।।
अर्थात् बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु, बार-बार माँ के गर्भ में शयन, इस संसार से पार जा पाना बहुत कठिन है। हे कृष्ण, कृपा करके रक्षा करो। गोविन्द को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि भगवान के नाम जप के अतिरिक्त इस भव-सागर से पार जाने का अन्य कोई मार्ग नहीं है।
‘गीतगोविन्दम’ का यह कथन हमें समझा रहा है कि जन्म-मरण के दुख और माता के गर्भ में रहने का कष्ट जीव को बार-बार भोगना पड़ता है। इससे बचने का मात्रा एक ही उपाय है, वह है ईश्वर की आराधना करना। इस संसार सागर से पार पाने के लिए उसकी शरण में जाना ही श्रेयस्कर होता है। वही जन्म-मरण के इन बन्धनों से जीव को मुक्ति दिला सकता है। यदि प्रभु से नाता न जोड़ा जाए तो इस चक्र में जीव फँसा रहता है। मनीषियों द्वारा बताई गई चौरासी लाख योनियों में वह भटकता रहता है। उसे किसी भी तरह इससे छुटकारा नहीं मिल सकता।
जितना मनुष्य ईश्वर से दूर होता जाता है, उतना ही वह मोह-माया आदि के चक्रव्यूह में उलझता जाता है। संसार के आकर्षण इतने मोहक होते हैं कि वे मनुष्य को सदा ही अपनी और आकर्षित करते रहते हैं। वह उनमें गहरे और गहरे डूबता ही चला जाता है। उससे बाहर निकल पाना उसके लिए असम्भव-सा हो जाता है। यदि मोह-माया के बन्धनों में मनुष्य न फँसें तो वह साधु-सन्यासी बनकर ईश्वर को पाने के लिए धूनी रमा लेता। तब फिर उस परमपिता परमात्मा को पाकर ही चैन लेता है।
शास्त्रा और मनीषी मनुष्य को यही समझाते रहते हैं कि वह अपनी इन्द्रियों को वश में रखे, आत्मसयंम रखे। संसार के आकर्षणों या प्रलोभनों से बचकर दुनिया में ऐसे अपना जीवन व्यतीत करे जैसे जल में कमल रहता है।
जल अथवा कीचड़ में खिलते हुए कमल पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसी प्रकार दुनिया में रहते हुए मनुष्य को अपने सभी कार्यों का निष्पादन निस्पृह होकर करना चाहिए। यही कार्य उसके लिए असम्भव है।
वह हर जीव को वश में कर सकता है, सागर का सीना चीर सकता है, विशालकाय पर्वतों पर अपना परचम फहरा सकता है, ग्रह-नक्षत्रों और आकाश पर अपनी उड़ान भर सकता है परन्तु स्वयं पर नियंत्राण नहीं रख सकता, इसीलिए दुखों और परेशानियों को न्यौता देता रहता है। ईश्वर से दूरी बनाकर रहता है, तभी पुनः पुनः जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्त नहीं हो पाता।