महाराष्ट्र की राजनीति के केंद्र बिंदु बने उद्धव ठाकरे

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आज महाराष्ट्र की राजनीति का सबसे चर्चित नाम है उद्धव ठाकरे। खासकर पिछले पांच साल से जैसी राजनीति महाराष्ट्र में चल रही है उसके कारण  उद्धव ठाकरे आज महाराष्ट्र में वही हैसियत रखने लगे हैं जो एक वक्त देश की राजनीति में चंद्रशेखर रखते थे। भारत के इस पूर्व प्रधानमंत्री के बारे में कहा जाता था कि “देश में यदि प्रधानमंत्री पद का सीधा चुनाव हो तो चंद्रशेखर ही जीतेंगे”  यह उनके चार महीने के प्रधानमंत्रित्व काल की वजह से जनता में बनी उनकी छवि का नतीजा था। आज ऐसी ही छवि महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की बन चुकी है। यही कारण है कि जितने भी सर्वे अभी तक आए हैं उनमें  सीएम के रूप में लोगों की पहली पसंद उद्धव ही हैं। उद्धव की लोकप्रियता का  सबसे बड़ा कारण तो यही है कि वे बाला साहेब ठाकरे के बेटे हैं । उनके प्रति लोगों की सिम्पैथी भी है और उनके ढ़ाई साल के शासन काल  से भी लोग संतुष्ट थे। हालांकि पालघर की घटना ने उनके शासन पर एक बड़ा दाग लगाया लेकिन इसमें उद्धव सीधे तौर से शामिल हैं ऐसा आरोप लगाने से विपक्ष भी पूरी तरह से बचता रहा। आमतौर पर  उद्धव की जो छवि  बनाई गई है उसके अनुसार उनको एक अच्छा राजनीतिज्ञ नहीं माना गया है लेकिन यह ज्यादातर दिल्ली और उत्तर भारत की धारणा है जो उद्धव को न तो नजदीक से जानते हैं और न ही निष्पक्ष बात करते हैं । वे उद्धव को उत्तर भारत का विरोधी  बताते हुए उन्हें हिंदू विरोधी भी बताने की कोशिश करते हैं । यही कारण है कि महाराष्ट्र की राजनीति और मराठी जानमानस की सही तस्वीर पूरी तरह देश के सामने आ ही नहीं पाती और फिर बीजेपी के लोग भी उद्धव की जो छवि पेश करते हैं, उसमें पूरी तरह खुद को पाक साफ और उद्धव को गलत बताते हैं साथ ही उद्धव को एक अयोग्य नेता करार देते हैं। इसी गलतफहमी में बीजेपी ने लोकसभा में महाराष्ट्र गंवा दिया वरना आज बीजेपी को स्पष्ट बहुमत मिल चुका होता। बीजेपी उद्धव को एक अयोग्य नेता बताती रही लेकिन इसी अयोग्य नेता के कारण महाराष्ट्र में बीजेपी को बाइस सीटों का नुकसान उठाना पड़ा और उद्धव के कारण ही महाराष्ट्र में कांग्रेस भी पुनर्जीवित हो गई । 
उद्धव ठाकरे असल में वो नहीं है जो उत्तरभारत का मीडिया दिखाता है या अलगाव के बाद बीजेपी जैसा उनको बताने लगी है बल्कि उद्धव एक सुलझे हुए नेता हैं। उद्धव भी अपने पिता की तरह स्ट्रेटफॉरवर्ड हैं । उनकी कथनी और करनी में ज्यादा फर्क नहीं होता जबकि आजकल की राजनीति में कहा कुछ जाता है और किया कुछ जाता है । अब नेतागण चुनाव के वक्त कुछ और बात करते हैं और शपथ लेने के बाद कुछ और बोलते हैं । ऐसे माहौल में सीधी बात करने वाले लोग मिसफिट होते हैं यही उद्धव के साथ हो रहा है जबकि उनके सामने एकनाथ शिंदे और देवेंद्र फडणवीस की कथनी और करनी में फर्क स्पष्ट दिखाई देता है। शिंदे हिंदुत्व के नाम पर सरकार भी बनाते हैं और मजार पर चादर भी चढ़ाते हैं। ईमानदारी की बात भी करते हुए खुद को एक ऑटो वाला भी बताते हैं लेकिन चुनावी हलफनामे में करोड़ों की संपत्ति भी दिखाते हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ तीखे शब्द बोलने वाले शिंदे जी की संपत्ति पिछले पांच साल में तीन गुना कैसे बढ़ गई ? लेकिन आज की राजनीति है ही ऐसी कि कहा कुछ जाए और किया कुछ और जाए  इसीलिए ज्यादातर नेता मीडिया के सामने बहुत सज्जन और मीठे नज़र आते हैं जबकि उनकी कार्यशैली एकदम विपरीत होती है । उद्धव ठाकरे मीडिया में भी खुलकर बोलते हैं और काम भी खुलकर करते हैं ,यही ट्रेनिंग उनको बाला साहेब से मिली है। एक बार  पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने कहा भी था कि शिंदे की चाल को उद्धव इसलिए नहीं समझ पाए क्योंकि उद्धव की ट्रेनिंग बाला साहेब ठाकरे के अंडर में हुई है,यदि उद्धव ने शरद पंवार जी से राजनीति सीखी होती तो शिंदे को पहली बार में ही समझ जाते, शिंदे को दूसरी बार बगावत का मौका ही नहीं देते।”बाला साहेब के स्कूल में डबल स्टेंडर्ड का काम नहीं था न  धोखे का और न ही बात छुपाने का । जो भी बात मन में है वो सामने बोलो यही नियम था बाला साहेब की पार्टी में। जब उद्धव को शिवसेना का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया था तब बाला साहेब ने राज ठाकरे से पूछा था कि उद्धव के अध्यक्ष बनने से तुम्हें कोई दिक्कत है क्या या तुम खुद अध्यक्ष बनना चाहते हो ?जो भी बात हो साफ साफ बोलो तब राज ठाकरे ने भी उद्धव का विरोध नहीं किया था लेकिन बाद में  बग़ावत कर बैठे । बाला साहेब का भरोसा उद्धव पर ज्यादा था, इसलिए नहीं कि उनको पुत्रमोह था बल्कि इसलिए कि वे राज और उद्धव दोनों की क्षमताओं को जानते थे। शिवसेना में आपसी विवाद होने पर बाला साहेब ने कहा भी था कि “मैं धृतराष्ट्र नहीं हूं बल्कि वही कर रहा हूं जो सही है,वर्तमान समय में  उद्धव ही बेहतर है” और बाला साहेब का निर्णय गलत नहीं था। राज एक बेहतरीन वक्ता हैं बिल्कुल बाला साहेब की दूसरी कॉपी लेकिन मैनेजमेंट के मामले में उद्धव बहुत आगे हैं । उद्धव ज्यादा बोलते नहीं हैं लेकिन चुप रहकर अपना काम करते रहते हैं,मेहनती भी ज्यादा हैं,राजनीति में ऐसा ही नेता बेहतर साबित होता है जिसका मैनेजमेंट बेहतर हो सिर्फ भाषण नहीं। उद्धव ठाकरे अब तो भाषण भी अच्छा देते हैं,इस बार के विधान सभा चुनाव में उनके भाषण  बहुत पसंद किए गए थे जो सोशल मीडिया में भी बहुत पॉपुलर हुए और मैनेजमेंट भी उनका ऐसा है कि अपने छोटे बड़े सभी कार्यकर्ताओं से  पर्सनली बात करते हैं । यदि कहीं कोई कार्यकर्ता किसी कारण नाराज़ है तो उससे फोन पर चर्चा करके मसला जरूर सुलझाते हैं। यही कारण है कि बाला साहब के जाने के बारह साल बाद भी उद्धव ठाकरे प्रासंगिक बने हुए हैं जबकि बड़े बड़े नेता उद्धव का साथ छोड़कर चले गए। उनकी पार्टी भी तोड़ी गई, चुनाव चिन्ह भी छीन लिया लेकिन इसके बाद भी नए चुनाव चिन्ह के साथ उद्धव ने लोकसभा में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया । उद्धव ने न केवल खुद ने नौ सीट जीती बल्कि अपने सहयोगी कांग्रेस और NCP को भी मजबूती से वापस खड़ा कर दिया। अभी भी महाराष्ट्र में उद्धव को रैलियों में जो जन समर्थन मिल रहा है वह आश्चर्यचकित करने वाला है । अभी तक उद्धव को जनता का नेता नहीं माना जाता था उन्हें पैराशूट नेता बताते हुए उनके ऊपर आरोप लगाया जाता था कि वे  घर से बाहर नहीं निकलते लेकिन पिछले ढाई साल में उद्धव ने घर से बाहर निकलकर ही नई पार्टी खड़ी की और ऐसी जगह भी सभाएं की जहां से उन्हें पहले जान से मारने की धमकियां मिलती थीं।
उद्धव की चाहे कोई कितनी भी आलोचना करे लेकिन उनके जैसे नेता आजकल मिलते नहीं हैं । उद्धव न केवल पढ़े लिखे  हैं बल्कि एक ऐसे परिवार से आते हैं जिनके रक्त में भारतीयता कूट कूटकर भरी है,उद्धव को देश के धर्म और कला संस्कृति की भी गहरी समझ है। वे खुद भी बहुत अच्छे फोटोग्राफर रह चुके हैं,आज राजनीति में ऐसे लोगों का ही स्वागत होना चाहिए फिर वो चाहे किसी भी पार्टी के हों किसी भी विचारधारा के हों । हमारे देश में जब दसवीं फेल नेता मुख्यमंत्री या उप मुख्यमंत्री हो सकते हैं फिर पढ़े लिखे और संवेदनशील नेता का विरोध क्यों ? भारत की संस्कृति ही तो इसकी आत्मा है । दुनिया में हम अपनी संस्कृति के लिए ही जाने जाते हैं फिर हमारे नेता भी कम से कम ऐसे हों जिनको हमारी संस्कृति की जानकारी हो, इसमें रुचि हो, ठाकरे परिवार के सारे नेता ऐसे ही हैं,राज ठाकरे कार्टूनिस्ट हैं, आदित्य पेंटर हैं तो उद्धव फोटोग्राफर। उद्धव जब मुख्यमंत्री थे तब  थियेटर को भी  बढ़ावा देते थे और खुद दर्शकों में बैठकर कलाकारों की हौसला अफजाई करते थे।
यह सही है कि उद्धव की पार्टी एक छोटी पार्टी है लेकिन फिर भी वे वर्तमान में महाराष्ट्र की राजनीति के केंद्रबिंदु हैं,किसी भी प्रेस कॉन्फ्रेंस में देख लीजिए,यदि सारी पार्टियों के नेता एक मंच पर बैठे हों तो सबसे ज्यादा सवाल उद्धव से ही पूछे जाते हैं और कैमरा भी उन पर ही होता है जबकि वे न तो मुख्यमंत्री हैं न प्रधानमंत्री लेकिन उनका जनता से सीधा जुड़ाव है इसलिए उनको मीडिया कवरेज मिलता है।उनकी बात रोमांच पैदा करती है इसलिए उनको कवरेज मिलता है और उनको कवरेज हमेशा मिलता रहेगा उनके पिताजी की तरह क्योंकि वे उन्हीं के नक्शे कदम पर चल रहे हैं । बाला साहेब  सत्ता की राजनीति में यकीन नहीं करते थे,इसलिए अब यह बात महत्वपूर्ण नहीं होगी कि उद्धव सेना सत्ता हासिल करेगी या मेकर बनेगी और न ही उद्धव का अब यह टारगेट होगा क्योंकि उनको विपक्ष में बैठने की आदत है । सत्ता के खिलाफ लड़ना उनको विरासत में मिला है इसलिए उद्धव सेना यदि तीस पैंतीस सीट भी हासिल करती है तो भी उनकी राजनीति चलेगी,क्योंकि कम सीट जीतकर भी ज्यादा प्रभाव रखना वे अच्छे से जानते हैं,यह उन्होंने अपने पिता से सीखा है। बाला साहेब भी कभी सत्ता में नहीं रहे कभी सबसे बड़ी पार्टी नहीं रहे लेकिन फिर भी महाराष्ट्र के केंद्र बिंदु थे,आज उद्धव भी वही हैं  महाराष्ट्र की राजनीति के केंद्रबिंदु।