झारखंड के विधानसभा चुनाव में आदिवासी मतदाताओं और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों की खास अहमियत है। यानी आदिवासी वोटर के पास सत्ता की चाभी है।आदिवासी बहुल राज्य में मुद्दों की कमी नहीं, लेकिन कई ऐसे बड़े कारक हैं, जो चुनाव के नतीजों को निस्संदेह प्रभावित करेंगे ।
झारखंड में विधानसभा चुनाव की तैयारी पूरी हो चुकी है। झारखंड विधानसभा चुनाव के लिए 13 और 20 नवंबर को दो चरणों में वोट डाले जाएंगे। चुनाव के नतीजे 23 नवंबर को आएंगे।
चुनावी नतीजे काफी हद तक इस बात पर निर्भर करेंगें कि जनता किसके वादे पर कितना भरोसा करती है। भाजपा की अगुआई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व में ‘इंडिया’ गठबंधन की ओर से एक से बढ़कर एक लुभावने वादे किए जा रहे हैं। इनमें से प्रमुख है महिलाओं के लिए मासिक आर्थिक मदद। झामुमो सरकार ने इसी साल मुख्यमंत्री मईया सम्मान योजना की शुरुआत की है । इसके अंतर्गत महिलाओं को 1000 रुपए मासिक सहायता दी जा रही थी। भाजपा ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार बनने पर 2100 रुपए मासिक देने का वादा किया तो अब झामुमो ने आगे निकलने की होड़ में 2500 रुपए देने का ऐलान कर दिया है। हेमंत सोरेन सरकार ने इस प्रस्ताव को कैबिनेट से पास कर दिया है। महिला मतदाताओं को भी इस चुनाव में निर्णायक माना जा रहा है।
भारतीय जनता पार्टी ने झारखंड खासकर संथाल परगना में कथित तौर पर बांग्लादेशी घुसपैठ को बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश की है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस मुद्दे को जोरशोर से उठा रहे हैं । उनका कहना है कि झारखंड में इस बार रोटी, बेटी और माटी बचाने की लड़ाई है। झारखंड में बांग्लादेशी घुसपैठ की वजह से आदिवासियों की संख्या कम हो रही है। भाजपा के प्रभारी और असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा भी बांग्लादेशी घुसपैठ के मुद्दे को आक्रामकता के साथ लगातार उठा रहे हैं। झारखंड भाजपा के कार्यकर्ता इस मुद्दे को आदिवासियों तक पहुंचाने के लिए गांव-गांव, गली-गली का दौरा कर रहे हैं। इस चुनाव में हेमंत सोरेन और चंपाई सोरेन के विक्टिम कार्ड की चर्चा जोरों पर है। सरायकेला के लोग बताते हैं कि इस क्षेत्र के लोगों को सुख दुख में चंपाई सोरेन का हमेशा साथ मिलता है, इसलिए वहां के लोग कह रहे हैं कि चुनाव तक वह मुख्य मंत्री बने रहते तो क्या हो जाता। इसी बात को दूसरे गांव के लोग अलग तरीके से देख रहे हैं। कुछ का कहना है कि चंपाई को मुख्यमंत्री तो आखिर हेमंत ने ही बनाया था। वहीं बहुत से लोग अभी तक मन मिजाज नहीं बना पाए हैं कि जाना किधर है। झुकाव की असली तस्वीर चुनाव के वक्त ही देखने को मिल सकती है। लेकिन इतना तो तय है कि भाजपा में आकर चंपाई सोरेन ने अपनी सरायकेला सीट को बहुत हद तक सुरक्षित कर लिया है।अब वह कोल्हान की दूसरी सीटों पर कितना असर डालेंगे, अभी कहना मुश्किल है। रही बात हेमंत सोरेन की तो उनको पांच माह तक जेल में रखे जाने वाली घटना की जमीनी स्तर पर कोई खास चर्चा नहीं है। उनके लिए मईया सम्मान योजना प्लस प्वाइंट जरूर बना है। खासकर आदिवासी महिलाओं के बीच। क्योंकि यहां का आदिवासी समाज महिला प्रधान है। महिलाओं के हाथों में परिवार की बागडोर होती है। लिहाजा, यह कहना गलत नहीं होगा कि एक हजार रु. की सम्मान राशि ने हेमंत सोरेन को मजबूती दी है।
राजनीतिक जानकार बताते हैं कि दोनों नेताओं के पास विक्टिम कार्ड है। अंतर इतना है कि हेमंत सोरेन का विक्टिम कार्ड भाजपा के खिलाफ है। उनका कहना है कि बेवजह पांच माह तक जेल में रख दिया। सरकार गिराने की साजिश की जाती रही जबकि चंपाई सोरेन के पास अपमान वाला विक्टिम कार्ड है। वह नाम लिए बिना एक तरह से हेमंत सोरेन को ही घेर रहे हैं।आदिवासी समाज में इसकी चर्चा भी हो रही है।चंपाई सोरेन आंदोलन की उपज हैं। समाज में उनका प्रभाव है। कोल्हान में जिस तरह से उनकी सभाओं में भीड़ जुट रही है, उससे बहुत कुछ आंका जा सकता है।फिलहाल तो ऐसा लग रहा है कि चंपाई सोरेन कोल्हान में तीन से चार सीट पर असर डाल सकते हैं। वे संथाल में भी सत्ताधारी दलों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। यही वजह है कि चंपाई सोरेन पर झामुमो सीधा हमला नहीं कर पा रहा है।गुरुजी की पार्टी के प्रति आदिवासी समाज की भावनाओं को चंपाई सोरेन भी बखूबी समझते हैं इसलिए वह आदिवासियों की बदहाली के लिए कांग्रेस पर हमला बोल रहे हैं। जाहिर है कि कांग्रेस को नुकसान होने का मतलब है भाजपा को फायदा। एक नैरेटिव सेट करने की कोशिश हो रही है।हालांकि इस मामले में हेमंत सोरेन आगे हैं लेकिन जमीनी तौर पर चंपाई सोरेन मजबूत दिख रहे हैं। आदिवासी समाज के बीच अलग-थलग पड़ चुकी भाजपा उन्हें तुरुप के पत्ते में रूप में देख रही है लिहाजा, इस बार का झारखंड विधानसभा का चुनाव बेहद रोचक होगा। दोनों नेता खुलकर विक्टिम कार्ड खेल रहे हैं लेकिन एक दूसरे के खिलाफ सीधे तौर पर बयानबाजी से बच रहे हैं। दोनों में एक बात समान दिख रही है चंपाई कह रहे हैं कि आदिवासियों की बदहाली के लिए कांग्रेस जिम्मेवार है तो हेमंत सोरेन भाजपा को महाजनी पार्टी बताकर आदिवासियों का दुश्मन बता रहे हैं।
कई लोग करते हैं कि खोखला और फरेब भरा नारा है – ‘रोटी, बेटी और माटी।’ उनका कहना है कि झारखंड में भाजपा के चुनाव की बागडोर दूसरे राज्यों के प्रवासी नेताओं ने संभाल रखी है,इसलिए वे नारा भी ऐसा गढ़ रहे हैं जिसकी किसी तरह की भावनात्मक अपील झारखंडी जनता पर नहीं हो सकती। ‘रोटी, बेटी और माटी’ ऐसा ही नारा है जो उनके संकल्प पत्र का मूल तत्व है और जिसे मोदी अपने भाषणों में लगा रहे हैं।
लीजिये ‘रोटी’ को, तो झारखंड में यह भोजन का पर्याय है ही नहीं। यहां मुख्य रूप से धान की एक साला खेती होती है और यहां की मुख्य आबादी भात खाती है। रोटी अपवाद स्वरूप ही खायी जाती है। लोग कुछ भी खा लें यहां वहां, लेकिन घर में गरम भात और साग से ही सबसे ज्यादा संतोष होता है। रोटी मुख्यतः पश्चिमोत्तर प्रदेशों का भोजन है और चूंकि भाजपा उन्हीं प्रदेशों की पार्टी है, इसलिए उसे नारों में भी वहीं के बिंब और प्रतीक सूझते हैं।
अब आएं ‘बेटी’ शब्द पर तो बेटी आदिवासी बहुल झारखंड में चिंता का विषय कभी नहीं रही। न उसकी सुरक्षा पर कभी संकट का एहसास आदिवासी समाज करता है। बेटी घर संवारती है, समृद्धि लाती है, वह बोझ नहीं, दो कामकाजी मेहनतकश हाथ होते हैं। इसलिए वह चिंता का विषय नहीं। ‘बेटी बचाने’ का नारा इसलिए यहां फजूल है।
और तो और यहां वह अपने समाज में जरा भी असुरक्षित नहीं। हां, उन लोगों से उन्हें जरूर खतरा है जिनके लिए औरत सिर्फ भोग या वंशवृद्धि का सामान है और ऐसे लोगों की आबादी आदिवासी इलाकों में बढ़ती जा रही है। हम उनसे ही उन्हें सुरक्षित रखने की कल्पना नहीं कर सकते, जो उनके लिए खतरा हैं।
रही ‘माटी’ , तो माटी तभी तक है जब तक जल, जंगल और जमीन है। जब जमीन और जंगल ही नहीं रहेगें और पानी ही खत्म हो जायेगा तो माटी कहां से बचेगी। सब कुछ रेत में बदल जायेगा। अब इतनी मोटी सी बात भाजपा के नेता नहीं समझते हैं, यह तो नहीं माना जा सकता, लेकिन जमीन और जंगल की सुरक्षा की गारंटी तो वे कर नहीं सकते।
जल, जंगल, जमीन और जमीन के नीचे दबे खनिज भंडार के लिए तो उनकी गिद्ध दृष्टि झारखंड पर गड़ी है इन्हीं सब को तो कार्पोरेट के हवाले करने के लिए एक दर्जन प्रवासी मुख्यमंत्री, संतरी झारखंड में दिन रात एक किये हुए है।
82 सदस्यों वाली झारखंड विधानसभा में 28 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं, जिन पर जीत हासिल करने वाली पार्टी सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। झारखंड के 24 साल के इतिहास में यह पांचवां विधानसभा चुनाव है। इस दौरान सात नेता मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल चुके हैं, लेकिन कोई भी पार्टी लगातार दूसरी बार सत्ता में नहीं आई है। भाजपा नेता रघुबर दास ही एकमात्र ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया है।
झारखंड के गठन के बाद सात चेहरे राज्य की कमान संभाल चुके हैं। यहां होने वाले विधानसभा चुनाव में राज्य के इतिहास के सातों मुख्यमंत्रियों के रिश्तेदार या वो खुद चुनाव लड़ रहे हैं। मौजूदा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन खुद और उनकी पत्नी, भाई और भाभी भी चुनाव मैदान में हैं।
झारखंड के तीन बार मुख्यमंत्री रहे शिबू सोरेन के परिवार के कई सदस्य इस चुनाव में उतरे हैं। शिबू सोरेन 02 मार्च 2005 से 11 मार्च 2005, अगस्त 2008 से जनवरी 2009 और दिसंबर 2009 से मई 2010 तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं। उनके बेटे और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन बरहेट विधानसभा सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। हेमंत भी तीन बार झारखंड की शीर्ष सत्ता तक पहुंच चुके हैं। पहले वह जुलाई 2013 से दिसंबर 2014 और दिसंबर 2019 से जनवरी 2024 तक मुख्यमंत्री रहे। 4 जुलाई 2024 से तीसरी बार झारखंड के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली। मुख्यमंत्री हेमंत की पत्नी कल्पना सोरेन को झारखंड मुक्ति मोर्चा ने गांडेय सीट से टिकट दिया है।
शिबू सोरेन परिवार के दो और सदस्य भी चुनाव लड़ रहे हैं। शिबू सोरेन के बेटे और मुख्यमंत्री हेमंत के भाई बसंत सोरेन दुमका से झामुमो के टिकट पर मैदान में हैं। वहीं शिबू सोरेन की बहू और स्व. दुर्गा सोरेन की पत्नी सीता सोरेन जामताड़ा विधानसभा क्षेत्र से भाजपा की उम्मीदवार हैं। झारखंड में भाजपा की तरफ से 2024 के लोकसभा चुनाव में हार का सामना करने वाले कुछ चेहरों को भी विधानसभा में मौका दिया गया है। इनमें एक नाम सीता सोरेन का है, जिन्हें लोकसभा में दुमका सीट से हार का सामना करना पड़ा था।
झारखंड के तीन बार मुख्यमंत्री रहे अर्जुन मुंडा की पत्नी मीरा मुंडा भी 2024 के विधानसभा चुनाव में किस्मत आजमा रही हैं। पूर्व केंद्रीय मंंत्री अर्जुन मुंडा की पत्नी पोटका सीट से भाजपा की प्रत्याशी बनाई गई हैं। हाल में हुए लोकसभा चुनाव में अर्जुन मुंडा भी उतरे थे, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली थी। अर्जुन मुंडा मार्च 2003 से मार्च 2005, मार्च 2005 से सितंबर 2006 और सितंबर 2010 से जनवरी 2013 तक झारखंड के मुख्यमंत्री थे।
राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी धनवार सीट से भाजपा के प्रत्याशी हैं। वह नवंबर 2000 से मार्च 2003 तक झारखंड के मुख्यमंत्री थे। मरांडी फिलहाल झारखंड भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष पद पर हैं। झारखंड के 24 साल के इतिहास में एकमात्र मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने पूरे पांच साल सरकार चलाई है और वो हैं रघुबर दास। उनकी बहू पूर्णिमा दास साहू को भाजपा ने जमशेदपुर पूर्व से प्रत्याशी बनाया है। 2014 से 2019 तक झारखंड की सत्ता संभालने वाले रघुबर दास अभी ओडिशा के राज्यपाल हैं। पिछले कुछ महीनों में लगातार झारखंड की राजनीति की सुर्खियों में रहे चंपई सोरेन भाजपा के टिकट पर भाग्य आजमा रहे हैं। पूर्व जेएमएम नेता रहे चंपई को भाजपा ने सरायकेला सीट से उम्मीदवार बनाया है। चंपई सोरेन के बेटे बाबूलाल सोरेन भी चुनाव लड़ रहे हैं। उन्हें भाजपा ने घाटशिला सुरक्षित सीट से मौका दिया है। तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के बाद चंपई सोरेन ने करीब छह महीने झारखंड की सत्ता संभाली। वह 2 फरवरी 2024 से 3 जुलाई 2024 तक मुख्यमंत्री रहे और हेमंत सोरेन के जेल से बाहर आने के बाद उनकी कुर्सी चली गई। पूर्व मुख्यमंत्री चंपई सोरेन 30 अगस्त को भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए। निर्दलीय विधायक होकर झारखंड के मुख्यमंत्री बनने वाले मधु कोड़ा का परिवार भी इस चुनाव में जोर आजमाइश कर रहा है। मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा जगन्नाथपुर सीट से भाजपा की उम्मीदवार हैं। गीता को 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने सिंहभूम सीट से प्रत्याशी बनाया था लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।
मधु कोड़ा सितंबर 2006 से अगस्त 2008 तक झारखंड के मुख्यमंत्री रहे हैं। यह झारखंड के इतिहास में पहली बार था जब सरकार का नेतृत्व एक निर्दलीय विधायक ने किया था।
चुनावी मुहिम के तहत कांग्रेस सांसद और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने झारखंड के सिमडेगा और लोहरदगा में चुनावी सभाओं को संबोधित करते हुए कहा कि देश में जल, जंगल, जमीन पर पहला हक़ आदिवासियों का है। राहुल गांधी ने सिमडेगा में अपने भाषण की शुरुआत ‘लव यू’ कहकर की। दोनों ही सीटें आदिवासी बहुल हैं। इससे यह कयास लगाए जा रहे हैं कि महागठबंधन को 28 आरक्षित आदिवासी सीटों पर फायदा हो सकता है। सवाल यह है कि क्या हेमंत सोरेन के नेतृत्व में महागठबंधन फिर इतिहास रच पाएगा या राहुल गांधी का ‘लव यू’ भी काम नहीं आएगा और भाजपा को फायदा होगा।
झारखंड विधानसभा में अनुसूचित जनजाति के लिए बोरियो, बरहेट, लिट्टीपाड़ा, महेशपुर, शिकारीपाड़ा, दुमका, जामा, घाटशिला, पोटका, सरायकेला, चाईबासा, मझगांव, जगन्नाथपुर, मनोहरपुर, चक्रधरपुर, खरसावां, तमाड़, तोरपा, खूंटी, खिजरी, मांडर, सिसई, गुमला, विशुनपुर, सिमडेगा, लोहरदगा, मनिका और कोलेविरा सीटें आरक्षित हैं।
2019 के विधानसभा चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) को अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 28 में से 26 सीटों पर जीत मिली थी, जिससे उसे कुल 30 सीटों पर जीत हासिल हुई। झामुमो को आदिवासी, ईसाई, मुस्लिम और महतो वोटरों का जबरदस्त समर्थन मिला था। वहीं, भाजपा को अनुसूचित जनजाति सीटों पर ही सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा था।
भाजपा को हाल ही में छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में हुए विधानसभा चुनावों में आदिवासी सीटों पर बढ़त मिली है, जिससे उसे झारखंड में भी आदिवासी वोटरों से उम्मीद है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि झारखंड में
राजनीतिक दल गठबंधन में रहकर ही बेहतर प्रदर्शन करते हैं। 2014 में झामुमो और कांग्रेस ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था और उन्हें केवल 25 सीटें मिली थीं। लेकिन, 2019 में गठबंधन करके चुनाव लड़ने पर उनकी सीटें बढ़कर 47 हो गईं। इसी तरह, भाजपा को 2014 में आजसू के साथ गठबंधन में 42 सीटें मिली थीं, जबकि 2019 में अकेले चुनाव लड़ने पर उसे सिर्फ 25 सीटें ही मिल पाईं।
झारखंड लंबे समय तक भाजपा का गढ़ रहा है। पार्टी राज्य के गठन के बाद से 13 साल तक सत्ता में रही है। इस साल की शुरुआत में हुए लोकसभा चुनाव में भी भाजपा का दबदबा देखने को मिला था, जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने राज्य की 14 में से 9 सीटों पर जीत हासिल की थी।
पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने कहा, ‘हमने 51 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त बनाए रखी है। अब हमारा काम विधानसभा में और भी बड़ा बहुमत हासिल करना है।’
हालांकि, भाजपा को अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 28 सीटों पर मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। 2019 के बाद से भाजपा को आदिवासी क्षेत्रों में वोट शेयर में लगातार गिरावट देखने को मिल रही है। 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 28 में से सिर्फ दो सीटें ही जीत पाई थी। यह ट्रेंड 2024 के लोकसभा चुनाव में भी जारी रहा, जब हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के बाद हुए उपचुनाव में भाजपा को अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सभी पांच लोकसभा सीटों पर हार का सामना करना पड़ा था।
दूसरी ओर, झामुमो की राज्य के आदिवासी मतदाताओं पर मजबूत पकड़ है। हेमंत सोरेन के पिता शिबू सोरेन झारखंड के सबसे बड़े आदिवासी नेता रहे हैं। हेमंत ने 1932 के भूमि रिकॉर्ड के आधार पर स्थानीय निवास नीति और सरना धर्म को मान्यता देने की वकालत करके इस विरासत को आगे बढ़ाया है। इन कदमों से आदिवासी समुदाय को व्यापक हिंदू पहचान में शामिल करने की भाजपा की योजना को झटका लगा है।
23 नवंबर को आने वाले चुनावी नतीजे बताएंगे कि आदिवासी मतदाताओं का रुझान किस पार्टी की ओर है। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या हेमंत सोरेन लगातार दूसरी बार सत्ता में आने का मिथक तोड़ पाएंगे या फिर राज्य में सत्ता परिवर्तन का सिलसिला जारी रहेगा।