शारदा सिन्हा: छठ पर खामोश हुई ‘बिहार कोकिला’ की आवाज

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नयी दिल्ली, छह नवंबर (भाषा) ‘बिहार कोकिला’, ‘मिथिला की बेगम अख्तर’ और भी न जाने इसी तरह के कितने नामों से प्रख्यात लोक गायिका शारदा सिन्हा के बेहद पक्के और मिट्टी की खुशबू समेटे सुरों से सजे लोकगीतों के बिना बिहार और मिथिलांचल के किसी भी पर्व की कल्पना संभव नहीं है।

लोक आस्था के पर्व छठ के गीतों को पूरी दुनिया तक पहुंचाने का श्रेय भी यदि शारदा सिन्हा को दिया जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसे विडंबना ही कहेंगे कि छठ के गीतों को घर-घर पहुंचाने वाली इस लोकगायिका के सुर छठ पर्व पर ही खामोश हो गए।

शारदा सिन्हा का मंगलवार रात दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में निधन हो गया। वह 72 वर्ष की थीं।

शारदा सिन्हा हमेशा छठ पर्व के दौरान एक गीत जारी करती थीं और इस वर्ष भी उन्होंने खराब स्वास्थ्य के बावजूद ऐसा किया।

शारदा सिन्हा के आधिकारिक यूट्यूब चैनल पर उनके द्वारा गाया गया गीत ‘‘दुखवा मिटाईं छठी मईयां’’ एक दिन पहले ही साझा किया गया था। यह गीत शायद उनकी मनःस्थिति को दर्शाता है, जब वह खराब स्वास्थ्य से जूझ रही थीं।

बिहार की समृद्ध लोक परंपराओं को राज्य की सीमाओं से बाहर भी लोकप्रिय बनाने वालीं शारदा सिन्हा के कुछ प्रमुख गीतों में ‘‘छठी मैया आई ना दुआरिया’’, ‘‘कार्तिक मास इजोरिया’’, ‘‘द्वार छेकाई’’, ‘‘पटना से’’, और ‘‘कोयल बिन’’ शामिल हैं। इसके अलावा उन्होंने बॉलीवुड फिल्मों के लिए भी गीत गाए थे जिनमें ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर- टू’ के ‘तार बिजली’, ‘हम आपके हैं कौन’ के ‘बाबुल’ और ‘मैंने प्यार किया’ के ‘कहे तो से सजना’ जैसे गाने शामिल हैं।

शारदा सिन्हा ने भोजपुरी, मैथिली और मगही भाषाओं में लोकगीत गाए थे और उन्हें पद्म भूषण से भी सम्मानित किया गया था। शारदा सिन्हा साल 2017 से मल्टीपल मायलोमा से जूझ रही थीं और कुछ महीने पहले ही उनके पति का निधन हुआ था।

उनके परिवार में एक बेटा और एक बेटी हैं। यह उनके परिवार और उनके बच्चों वंदना और अंशुमान के लिए अविश्वसनीय रूप से कठिन समय रहा है। शारदा सिन्हा के बेटा बेटी सोशल मीडिया के माध्यम से प्रशंसकों को उनके स्वास्थ्य के बारे में लगातार जानकारी देते रहे थे।

एक नवंबर 1952 को बिहार के सुपौल जिले में जन्मी सिन्हा ने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा पंचगछिया घराने के प्रख्यात ख्याल गायक पंडित रघु झा से ली थी। इसके बाद उन्होंने ख्याल गायक पंडित सीताराम हरि दांडेकर से प्रशिक्षण लिया, जो एक बेहतरीन गायक थे और इसके बाद शारदा सिन्हा ने पन्ना देवी से संगीत की शिक्षा दीक्षा ली। पन्ना देवी मलिका-ए-गजल बेगम अख्तर की समकालीन थीं और ठुमरी और दादरा की प्रतिपादक थीं।

सिन्हा नृत्य विशारद (मणिपुरी) थीं और उन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत-गायन में मास्टर डिग्री और पीएचडी भी की थी। उन्हें 2000 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1991 में पद्म श्री और 2018 में पद्म भूषण से भी सम्मानित किया जा चुका है।

शारदा सिन्हा का पहला मैथिली गीत ‘‘दुलारुआ भैया’’ 1971 में आया था जिसे काफी पसंद किया गया।

वह अक्सर अपने गानों के वीडियो साझा करती थीं। लता मंगेशकर जैसी महान संगीत गायिका को श्रद्धांजलि और त्योहारों की शुभकामनाओं के वीडियो भी उन्होंने आधिकारिक यूट्यूब चैनल पर साझा किए थे। यूट्यूब पर उनके करीब 75,000 सब्सक्राइबर हैं।

इंस्टाग्राम में उनके 269,000 फॉलोअर्स हैं। सिन्हा के जीवन परिचय में लिखा है: ‘‘मैं लोक परंपरा को लोक धुनों में गाती हूं। अपने मन के भावों को गीतों में गुनगुनाती हूं, पूरी तरह से लोक स्वरों को समर्पित, मुझे शारदा कहते हैं।’’

भारत सरकार की सांस्कृतिक राजदूत के तौर पर उन्होंने मॉरीशस, जर्मनी, बेल्जियम और हॉलैंड सहित कई देशों में प्रस्तुतियां दीं। शारदा सिन्हा 1980 के दशक में ऑल इंडिया रेडियो से जुड़ीं और सरकारी स्वामित्व वाले सार्वजनिक रेडियो प्रसारक की ‘‘शीर्ष श्रेणी’’ की कलाकार थीं।

उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो के संगीत समारोहों और सांस्कृतिक समारोहों के जरिए देशभर में प्रस्तुतियां दीं। सिन्हा ने चार दशकों से अधिक समय तक महिला महाविद्यालय, समस्तीपुर (एल.एन.एम.यू. दरभंगा) बिहार के संगीत विभाग में भी काम किया।

इन वर्षों में, उन्हें पद्म पुरस्कारों के अलावा विभिन्न पुरस्कार प्रदान किए गए। इनमें राष्ट्रीय देवी अहिल्या सम्मान, बिहार कला पुरस्कार, बिहार रत्न, भोजपुरी रत्न, मिथिला विभूति सम्मान शामिल हैं।

दिवाली के दिन वह 72 साल की हो गई थीं और छठ के पहले दिन उन्होंने अंतिम सांस ली… उनके प्रशंसकों के बीच इन दो खास दिनों पर विशेष तौर पर उनके गीत गाए बजाए जाते थे।

शारदा सिन्हा न केवल जीते जी अपने करोड़ों प्रशंसकों के बीच लोकप्रिय रहीं बल्कि इस दुनिया से जाने के बाद भी हर साल जब भी छठ पर्व आएगा, ‘बिहार कोकिला’ की आवाज उसी तरह छठ घाटों पर गूंजेगी।