पंकज गांधी
कृषि और कार्बन फाइनेंस समझने के लिए हम समझेंगे कि ग्रीन हाउस गैस, इनका उत्सर्जन, ग्लोबल वार्मिंग, कार्बन क्रेडिट, इसका बाजार और किसान इससे कैसे कमा सकता है.. पहले ग्रीनहाउस, ग्रीनहाउस गैसें पृथ्वी के वायुमंडल में गर्मी को रोक कर रखती हैं। दिन के समय पृथ्वी की सतह गर्म और रात में ठंडी हो जाती है जिससे गर्मी वापस हवा में चली जाती है लेकिन कुछ गर्मी वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों द्वारा फंस जाती है। यही कारण है कि पृथ्वी का तापमान औसतन 14˚C पर रहता है अन्यथा यह रात में ठंडी और -18˚C तापमान पर चला जाता। ग्रीन हाउस गैस की एक संतुलित मात्रा है और यह यदि उस सीमा से ज्यादा हुईं तो यह ज्यादा गर्मी रोकेगी जिससे पृथ्वी और वातावरण गर्म हो जायेगा. दुनिया में हुई औद्योगिक क्रांति, बढ़ती जनसंख्या और उनके लिए खाद्य उत्पादन और सुविधा बढ़ाने के क्रम में वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन काफी बढ़ गया है जिससे ग्लोबल वार्मिंग बढ़ने लगा है.
मुख्य ग्रीनहाउस गैस में कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड हैं जिनका उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है। इसीको रोकने हेतु 1997 में क्योटो में एक प्रोटोकॉल अपनाया गया जिसमें औद्योगिक देशों को अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कटौती करने का आदेश दिया गया था। इस गतिविधि ने कार्बन क्रेडिट नामक एक नए बाजार को जन्म दिया। क्यूंकि नियमों के अनुपालन में जो व्यक्ति अपने कार्बन उत्सर्जन के अपने लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर पा रहा है वह उनसे कार्बन क्रेडिट खरीद सकता है जिनके पास यह सरप्लस है. इस विधि से कार्बन उत्सर्जन के सकल लक्ष्यों की प्राप्ति की योजना बनाई गई. यह कार्बन फाइनेंस उत्सर्जन में कमी लाने या उसके लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए भुगतान है जिसका मूल विचार है प्रदूषक ही भुगतान करेगा। इस विचार ने कार्बन क्रेडिट बाजार को जन्म दिया .
कार्बन क्रेडिट, जिसे कार्बन ऑफ़सेट के रूप में भी जाना जाता है, ऐसा परमिटनुमा संपत्ति है जो किसी देश या उद्योगों को एक निश्चित मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड या अन्य ग्रीनहाउस गैसों को उत्सर्जित करने की अनुमति देता है। चूंकि औद्योगीकरण एक सच्चाई है और इसे एकदम से रोका नहीं जा सकता, इसीलिये क्योटो प्रोटोकॉल के माध्यम से ज्यादातर विकसित एवं विकासशील देशों ने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन स्तर को कम करने के लिए एक तंत्र विकसित किया जिसमें कार्बन क्रेडिट अवधारणा को प्रस्तुत किया गया और इसे प्रोत्साहित करने के लिए धन से जोड़ दिया गया । ये कार्बन क्रेडिट दो कंपनियों के बीच अदले बदले भी जा सकते हैं व इन्हें अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेचा भी जा सकता है. पेरिस समझौते के तहत कई देशों ने उत्सर्जन में कटौती का लक्ष्य रखा था जिनमें यह जरुरी नहीं था कि उत्सर्जन में ही कमी ही की जाए. उनके लिए यह कार्बन बाज़ार एक बेहतर विकल्प बन गया है। समझौते के कारण यदि कोई विकसित देश अपने उत्सर्जन में कमी के लक्ष्यों की प्राप्ति करने में असफल रहता है तो वह अपने धन या तकनीक के हस्तांतरण से विकासशील देशों ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी कर कार्बन क्रेडिट प्राप्त कर अपने द्वारा की गई उत्सर्जन में कटौती के रूप में इसे प्रस्तुत कर सकता है।
अब आते हैं कृषि क्षेत्र में. कृषि क्षेत्र में कार्बन ट्रेडिंग की महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि इसमें कार्बन उत्सर्जित करने और उसे अलग करने जैसे वनस्पति और मिट्टी में कार्बन जमा करने की प्रक्रिया, दोनों की क्षमता होती है। जुताई, उर्वरक उपयोग और पशुधन उत्पादन जैसी कृषि गतिविधियाँ वातावरण में ग्रीनहाउस गैस छोड़ सकती हैं। दूसरी ओर, कृषि वानिकी, संरक्षण जुताई और मृदा कार्बन पृथक्करण जैसी प्रथाएँ वातावरण से कार्बन को हटाकर मिट्टी में जमा कर सकती हैं। कार्बन क्रेडिट और इसके फाइनेंस के बाजार को देखते हुए भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए कृषि में कार्बन फाइनेंस के रूप में किसानों के अतिरिक्त आय के लिए अच्छा अवसर है. कई कृषि प्रथाएँ ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करती हैं जैसे कि रासायनिक खाद का उपयोग, पराली या कृषि अवशेषों को जलाना, जानवरों की पाचन प्रक्रिया, या चावल को बाढ़ की स्थिति में उगाना, या वन भूमि को कृषि भूमि में बदल देना आदि आदि। इसमें कमी कर के किसान कार्बन क्रेडिट कमा सकता है. वनीकरण और पुनर्वनीकरण, सतत वन प्रबंधन, कृषि वानिकी, वनों की कटाई से बचाव, फसल भूमि और चरागाह भूमि प्रबंधन, पशुधन प्रबंधन में उनकी बेहतर आहार पद्धतियाँ, खाद प्रबंधन; सतत जैव ईंधन, जैव विविधता बढ़ाने वाली गतिविधियाँ जैसे वाटरशेड और मृदा प्रबंधन, जैव विविधता संरक्षण जैसी गतिविधयों से भी किसान कार्बन उत्सर्जन को कम कर कार्बन क्रेडिट जमा कर सकता है. वह जलवायु अनुकूल प्रबंधन प्रथाओं को व्यापक रूप से अपनाकर, भूमि और कृषि संसाधनों के संरक्षक के रूप में किसान और पशुपालक टिकाऊ मिट्टी, फसलों, पशुधन और कृषि वानिकी प्रबंधन प्रथाओं के माध्यम से कार्बन क्रेडिट कमा सकते हैं ।
भारत में भी उत्तर प्रदेश सरकार ने खेती को वैश्विक कार्बन क्रेडिट बाजार से जोड़ने और अतिरिक्त ग्रामीण आय उत्पन्न करने के लिए कृषि वानिकी परियोजना शुरू की है। उन्हें इस कृषि वानिकी कार्बन वित्त परियोजना से 4.5 मिलियन कार्बन क्रेडिट उत्पन्न होने का अनुमान है। प्रत्येक कार्बन क्रेडिट का मूल्य उन्होंने $6 आंका है।इसके तहत वन क्षेत्र के बाहर वृक्षों के आवरण को बढ़ाया जायेगा। इस परियोजना से अर्जित कार्बन क्रेडिट को अन्य उद्योगों को उनके कार्बन उत्सर्जन को कम करने के तरीके के रूप में बेचा जा सकता है। कृषि वानिकी में भाग लेकर और कार्बन क्रेडिट बेचकर, किसान अतिरिक्त आय अर्जित कर सकते हैं । इसके अतिरिक्त, कृषि वानिकी लकड़ी और कागज जैसे उद्योगों के लिए कच्चे माल का एक स्थायी स्रोत प्रदान कर सकती है, जो प्राकृतिक वनों पर दबाव को कम करने में मदद कर सकती है। कृषि वानिकी में फसलों के साथ-साथ पेड़ों एवं झाड़ियों को समुचित प्रकार से लगाकर दोनो से लाभ प्राप्त करना है। इसमें कृषि और वानिकी की तकनीकों का मिश्रण करके विविधतापूर्ण, लाभप्रद, स्वस्थ एवं टिकाऊ भूमि-उपयोग सुनिश्चित किया जाता है यह एक ऐसी भूमि उपयोग प्रणाली है जो वृक्षारोपण, फसल उत्पादन और पशुपालन को इस तरह से एकीकृत करती है जो वैज्ञानिक और आय कमाने के दृष्टिकोण से अत्यंत उपयुक्त हो।