पहाड़ परमात्मा द्वारा दिए गए सुंदर उपहार हैं। विकास के नाम पर अथवा लालचवृत्ति के कारण पहाड़ों को काट-काटकर खत्म किया जा रहा है अथवा उनका रूप-स्वरूप विकृत हो रहा है। प्लास्टिक कचरा, गाड़ियों का धुआं और अत्यधिक निर्माण पहाड़ों के लिए खतरा बन रहा है। आज पहाड़ों को बचाने- संवारने की आवश्यकता है। हमें समझना होगा कि प्रकृति और पर्यावरणीय संरचना में पहाड़ों की महत्वपूर्ण भूमिका है। भौगोलिक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक भारतवर्ष के सभी प्रदेशों में न्यूनाधिक पहाड़ हैं। ये पहाड़ भिन्न-भिन्न रूपों में प्राकृतिक संतुलन के आधार हैं। क्षेत्र के अनुसार पहाड़ों की प्रकृति भी भिन्न-भिन्न प्रकार की है। कहीं कठोर चट्टानें, कहीं भुरभुरी मिट्टी तो कहीं पत्थर और मिट्टी के मिश्रण वाले पहाड़ देखे जा सकते हैं।
ऊंचे पहाड़ों से तेज हवाओं का टकराना फिर वापस मैदानों की ओर लौटना सर्दी, गर्मी और वर्षा के बीच संतुलन पैदा करता है। पहाड़ों के ऊपर भिन्न-भिन्न प्रकार की वनस्पतियां, घने जंगल, विभिन्न प्रकार की औषधियां, इमारती लकड़ियां,फल एवं हरित क्षेत्र का फैलाव जीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं। ध्यान रहे समय समय पर पहाड़ों पर गिरने वाली बर्फ और बारिश ही धीरे-धीरे झरने और नदियों के रूप में अन्न, जल और फल प्रदान करती है। अतीत में जाकर विचार करने पर हम पाते हैं कि घने जंगल, पर्वत और उनमें बनी कंदराएं साधु- सन्यासियों एवं योगियों के लिए महत्वपूर्ण स्थान होते थे। ये लोग ध्यान-साधना अथवा तत्व चिंतन के लिए पहाड़ों पर एकांतवास करते थे। उस समय उनकी दृष्टि पहाड़ों के दोहन की नहीं थी, अपितु वे पहाड़ों की पूजा- अर्चना करते हुए उनके सानिध्य में अथवा पर्वतों की गोद में जीवन के आनंद और तत्व चिंतन में लीन रहते थे।
आदिकाव्य रामायण में आदिकवि वाल्मीकि ने अनेक स्थानों पर पर्वतीय क्षेत्र, भौगोलिक दृष्टि से उनके महत्व, वहां रहने वाली जनजातियों और उन पर्वतों पर पाई जाने वाली बहुमूल्य वन-वनस्पतियों का वर्णन किया है। कालांतर में विकास के नाम पर नदी, पर्वत और जंगलों के दोहन और उन्हें विकृत करने का सिलसिला शुरू हुआ। आज पहाड़ घट रहे हैं और विकृति का शिकार हैं। होटल, आवास व सड़क बनाने के लिए पहाड़ों की कटाई जारी है। एक सुरंग का निर्माण उस क्षेत्र की समूची पर्वतीय श्रृंखला में हलचल पैदा कर देता है। विकास और पर्यटन के नाम पर पहाड़ों में मानवीय हस्तक्षेप निरंतर बढ़ रहा है। पहाड़ों में दुर्गम स्थानों पर पहुंचने के लिए सड़कों व सुरंगों का जाल बिछाया जा रहा है। बड़ी-बड़ी मशीनें दिन रात पहाड़ों के सीने में छेद कर रही हैं। रासायनिक विस्फोट से पहाड़ों को तोड़ा जा रहा है। परिणाम स्वरूप पहाड़ों के दरकने, टूटने व लैंड स्लाइडिंग की घटनाएं निरंतर बढ़ रही हैं, जिसमें प्रतिवर्ष हजारों लोग मौत का शिकार हो रहे हैं। उत्तराखंड और हिमाचल में इस प्रकार की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं।
पहाड़ों का सौंदर्य सभी को आकर्षित करता है। पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यटन निरंतर बढ़ रहा है। संवेदनशील और अति संवेदनशील पर्वतीय क्षेत्रों में भी होटल निर्माण और अन्य गतिविधियां जारी हैं। सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों में जाने वाले पर्यटक प्लास्टिक व अन्य कचरा वहीं छोड़ देते हैं। पहाड़ों पर प्लास्टिक और कचरे के ढेर बन गए हैं, उनके निस्तारण की भी वहां समुचित व्यवस्था नहीं हैं। जिसका पहाड़ों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। गाड़ियों का धुआं वहां के प्रकृति-पर्यावरण को विकृत कर रहा है। हमें पहाड़ों की प्रकृति और संस्कृति को समझना होगा।
हाल ही में देवभूमि उत्तराखंड के नैनीताल व अल्मोड़ा क्षेत्र में जाने का अवसर मिला। पूरे पर्वतीय क्षेत्र में जहां एक और आबादी बढ़ रही है वहीं दूसरी ओर अतिक्रमण और गंदगी भी खूब है। इस क्षेत्र में अनेक स्थानों पर जंगलों में आग लगी हुई है। इस आग में केवल जंगल ही नहीं जल रहे हैं अपितु विभिन्न प्रकार की दुर्लभ वनस्पतियां भी जलकर राख हो गई हैं। विभिन्न पशु- पक्षियों के बसेरे छिन गए हैं। यह आग केवल जंगलों की नहीं है अपितु वे जंगल जिन पहाड़ों पर खड़े हैं वे पहाड़ भी जल रहे हैं। पहाड़ों की ऊपरी सतह वन- वनस्पतियों के लिए महत्वपूर्ण होती है। जंगलों की आग में वह उपजाऊ सतह भी निरंतर जल रही है। बांज के घने जंगल पहाड़ों में जल स्रोत बनाते हैं, यह आग उन्हें भी समाप्त कर रही है। जलते पहाड़ों से लगातार पैदा होने वाली गर्मी ग्लोबल वार्मिंग की घंटी बजा रही है।
क्या जंगल और पहाड़ों की स्थिति को लेकर हम अभी भी असंवेदनशील नहीं बने हुए हैं? पहाड़ निर्जीव नहीं है। हमें पहाड़ों के स्वभाव को समझना होगा। पहाड़ों में मानवीय हस्तक्षेप को कम करना होगा। पहाड़ों को प्लास्टिक व कचरा मुक्त करना होगा। वहां के भूगोल और जलवायु को समझते हुए ही विकास के विकल्पों पर विचार करना होगा। पहाड़ों पर भिन्न-भिन्न प्रकार के पेड़ वर्षा का कारण बनते हैं लेकिन वहां पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हो रही है। कई पर्वतीय क्षेत्रों में सूखे की स्थिति सहज ही देखी जा सकती है। पेड़ों की कटाई से वर्षा में कमी आ रही है, जिससे नदियों में जल का स्तर घट रहा है। अनेक बरसाती एवं पहाड़ी नदियां व झरने सूख चुके हैं। शिमला, मनाली, नैनीताल, मसूरी आदि ऐसे विभिन्न पर्वतीय पर्यटक स्थल हैं जो किसी समय में अद्भुत सौंदर्य से भरे होते थे लेकिन आज इन पर्वतीय पर्यटक स्थलों पर होटल और घनी आबादी की भरमार है। पहाड़ों को काटकर होटल और आबादी क्षेत्र बन चुके हैं। परिणामत: अब यहां बर्फ पड़नी या तो बंद हो गई है अथवा बहुत कम पड़ती है। पानी का संकट दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है। झरने सूख चुके हैं। आसपास की नदियों में जल का स्तर बहुत कम रह गया है। इससे वहां खेती- किसानी के साथ-साथ अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हो रही है।
पहाड़ों के आकार प्रकार के कारण ही लोक में कहा जाता है- पहाड़ जैसी मुसीबत लेकिन अब उल्टा होता दिखाई दे रहा है यानी पहाड़ों की मुसीबत। जैसे ही बारिश शुरू होती हैं कभी किसी पहाड़ का हाथ टूटता है तो किसी का पैर। क्या इसका बड़ा कारण अधिक छेड़छाड़ और अनियोजित विकास नहीं है? इस वर्ष जहां मैदानी क्षेत्रों में गर्मी रिकॉर्ड तोड़ रही है, वहीं पहाड़ों में भी तापमान में बढ़ोतरी हुई है। लंबे समय से मौसम में अप्रत्याशित बदलाव आ रहे हैं। क्या यह प्रकृति और पहाड़ों की प्रतिक्रिया नहीं है? एक जानकारी के अनुसार विगत 30 वर्षों में विश्व में 6.68 लाख हेक्टेयर जंगल काटे गए हैं। कार्बन उत्सर्जन एवं विभिन्न रूपों में प्रदूषण बढ़ रहा है। क्या इसका असर पहाड़ों पर नहीं पड़ेगा? आज पहाड़ों में अनावश्यक हस्तक्षेप रोकने की आवश्यकता है। पहाड़ों की प्रकृति और उसके स्वरूप को देखकर ही वहां के लिए योजनाएं बनाई जाएं और अधिक से अधिक वृक्षारोपण किया जाए। पहाड़ों के साथ जहां एक और विभिन्न जीव जंतुओं का जीवन जुड़ा है वहीं मनुष्य का जीवन भी उनसे अलग नहीं है। इसलिए आज पहाड़ों को बचाने की जितनी आवश्यकता है उतनी ही आवश्यकता उन्हें संवारने की भी है।
ऊंचे पहाड़ों से तेज हवाओं का टकराना फिर वापस मैदानों की ओर लौटना सर्दी, गर्मी और वर्षा के बीच संतुलन पैदा करता है। पहाड़ों के ऊपर भिन्न-भिन्न प्रकार की वनस्पतियां, घने जंगल, विभिन्न प्रकार की औषधियां, इमारती लकड़ियां,फल एवं हरित क्षेत्र का फैलाव जीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं। ध्यान रहे समय समय पर पहाड़ों पर गिरने वाली बर्फ और बारिश ही धीरे-धीरे झरने और नदियों के रूप में अन्न, जल और फल प्रदान करती है। अतीत में जाकर विचार करने पर हम पाते हैं कि घने जंगल, पर्वत और उनमें बनी कंदराएं साधु- सन्यासियों एवं योगियों के लिए महत्वपूर्ण स्थान होते थे। ये लोग ध्यान-साधना अथवा तत्व चिंतन के लिए पहाड़ों पर एकांतवास करते थे। उस समय उनकी दृष्टि पहाड़ों के दोहन की नहीं थी, अपितु वे पहाड़ों की पूजा- अर्चना करते हुए उनके सानिध्य में अथवा पर्वतों की गोद में जीवन के आनंद और तत्व चिंतन में लीन रहते थे।
आदिकाव्य रामायण में आदिकवि वाल्मीकि ने अनेक स्थानों पर पर्वतीय क्षेत्र, भौगोलिक दृष्टि से उनके महत्व, वहां रहने वाली जनजातियों और उन पर्वतों पर पाई जाने वाली बहुमूल्य वन-वनस्पतियों का वर्णन किया है। कालांतर में विकास के नाम पर नदी, पर्वत और जंगलों के दोहन और उन्हें विकृत करने का सिलसिला शुरू हुआ। आज पहाड़ घट रहे हैं और विकृति का शिकार हैं। होटल, आवास व सड़क बनाने के लिए पहाड़ों की कटाई जारी है। एक सुरंग का निर्माण उस क्षेत्र की समूची पर्वतीय श्रृंखला में हलचल पैदा कर देता है। विकास और पर्यटन के नाम पर पहाड़ों में मानवीय हस्तक्षेप निरंतर बढ़ रहा है। पहाड़ों में दुर्गम स्थानों पर पहुंचने के लिए सड़कों व सुरंगों का जाल बिछाया जा रहा है। बड़ी-बड़ी मशीनें दिन रात पहाड़ों के सीने में छेद कर रही हैं। रासायनिक विस्फोट से पहाड़ों को तोड़ा जा रहा है। परिणाम स्वरूप पहाड़ों के दरकने, टूटने व लैंड स्लाइडिंग की घटनाएं निरंतर बढ़ रही हैं, जिसमें प्रतिवर्ष हजारों लोग मौत का शिकार हो रहे हैं। उत्तराखंड और हिमाचल में इस प्रकार की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं।
पहाड़ों का सौंदर्य सभी को आकर्षित करता है। पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यटन निरंतर बढ़ रहा है। संवेदनशील और अति संवेदनशील पर्वतीय क्षेत्रों में भी होटल निर्माण और अन्य गतिविधियां जारी हैं। सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों में जाने वाले पर्यटक प्लास्टिक व अन्य कचरा वहीं छोड़ देते हैं। पहाड़ों पर प्लास्टिक और कचरे के ढेर बन गए हैं, उनके निस्तारण की भी वहां समुचित व्यवस्था नहीं हैं। जिसका पहाड़ों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। गाड़ियों का धुआं वहां के प्रकृति-पर्यावरण को विकृत कर रहा है। हमें पहाड़ों की प्रकृति और संस्कृति को समझना होगा।
हाल ही में देवभूमि उत्तराखंड के नैनीताल व अल्मोड़ा क्षेत्र में जाने का अवसर मिला। पूरे पर्वतीय क्षेत्र में जहां एक और आबादी बढ़ रही है वहीं दूसरी ओर अतिक्रमण और गंदगी भी खूब है। इस क्षेत्र में अनेक स्थानों पर जंगलों में आग लगी हुई है। इस आग में केवल जंगल ही नहीं जल रहे हैं अपितु विभिन्न प्रकार की दुर्लभ वनस्पतियां भी जलकर राख हो गई हैं। विभिन्न पशु- पक्षियों के बसेरे छिन गए हैं। यह आग केवल जंगलों की नहीं है अपितु वे जंगल जिन पहाड़ों पर खड़े हैं वे पहाड़ भी जल रहे हैं। पहाड़ों की ऊपरी सतह वन- वनस्पतियों के लिए महत्वपूर्ण होती है। जंगलों की आग में वह उपजाऊ सतह भी निरंतर जल रही है। बांज के घने जंगल पहाड़ों में जल स्रोत बनाते हैं, यह आग उन्हें भी समाप्त कर रही है। जलते पहाड़ों से लगातार पैदा होने वाली गर्मी ग्लोबल वार्मिंग की घंटी बजा रही है।
क्या जंगल और पहाड़ों की स्थिति को लेकर हम अभी भी असंवेदनशील नहीं बने हुए हैं? पहाड़ निर्जीव नहीं है। हमें पहाड़ों के स्वभाव को समझना होगा। पहाड़ों में मानवीय हस्तक्षेप को कम करना होगा। पहाड़ों को प्लास्टिक व कचरा मुक्त करना होगा। वहां के भूगोल और जलवायु को समझते हुए ही विकास के विकल्पों पर विचार करना होगा। पहाड़ों पर भिन्न-भिन्न प्रकार के पेड़ वर्षा का कारण बनते हैं लेकिन वहां पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हो रही है। कई पर्वतीय क्षेत्रों में सूखे की स्थिति सहज ही देखी जा सकती है। पेड़ों की कटाई से वर्षा में कमी आ रही है, जिससे नदियों में जल का स्तर घट रहा है। अनेक बरसाती एवं पहाड़ी नदियां व झरने सूख चुके हैं। शिमला, मनाली, नैनीताल, मसूरी आदि ऐसे विभिन्न पर्वतीय पर्यटक स्थल हैं जो किसी समय में अद्भुत सौंदर्य से भरे होते थे लेकिन आज इन पर्वतीय पर्यटक स्थलों पर होटल और घनी आबादी की भरमार है। पहाड़ों को काटकर होटल और आबादी क्षेत्र बन चुके हैं। परिणामत: अब यहां बर्फ पड़नी या तो बंद हो गई है अथवा बहुत कम पड़ती है। पानी का संकट दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है। झरने सूख चुके हैं। आसपास की नदियों में जल का स्तर बहुत कम रह गया है। इससे वहां खेती- किसानी के साथ-साथ अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हो रही है।
पहाड़ों के आकार प्रकार के कारण ही लोक में कहा जाता है- पहाड़ जैसी मुसीबत लेकिन अब उल्टा होता दिखाई दे रहा है यानी पहाड़ों की मुसीबत। जैसे ही बारिश शुरू होती हैं कभी किसी पहाड़ का हाथ टूटता है तो किसी का पैर। क्या इसका बड़ा कारण अधिक छेड़छाड़ और अनियोजित विकास नहीं है? इस वर्ष जहां मैदानी क्षेत्रों में गर्मी रिकॉर्ड तोड़ रही है, वहीं पहाड़ों में भी तापमान में बढ़ोतरी हुई है। लंबे समय से मौसम में अप्रत्याशित बदलाव आ रहे हैं। क्या यह प्रकृति और पहाड़ों की प्रतिक्रिया नहीं है? एक जानकारी के अनुसार विगत 30 वर्षों में विश्व में 6.68 लाख हेक्टेयर जंगल काटे गए हैं। कार्बन उत्सर्जन एवं विभिन्न रूपों में प्रदूषण बढ़ रहा है। क्या इसका असर पहाड़ों पर नहीं पड़ेगा? आज पहाड़ों में अनावश्यक हस्तक्षेप रोकने की आवश्यकता है। पहाड़ों की प्रकृति और उसके स्वरूप को देखकर ही वहां के लिए योजनाएं बनाई जाएं और अधिक से अधिक वृक्षारोपण किया जाए। पहाड़ों के साथ जहां एक और विभिन्न जीव जंतुओं का जीवन जुड़ा है वहीं मनुष्य का जीवन भी उनसे अलग नहीं है। इसलिए आज पहाड़ों को बचाने की जितनी आवश्यकता है उतनी ही आवश्यकता उन्हें संवारने की भी है।