ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से मिलने वाला बौद्धिक अनुभव ज्ञान है जो विचार, चिंतन, मनन और अनुभवों से परिपुष्ट होता हुआ तथ्यों, अवधारणाओं और सिद्धांतों के माध्यम से मूर्तरूप ग्रहण करता है। यही मूर्त रूप ज्ञान, कल्पना शीलता और सृजन शीलता के पंख लगाकर लगातार अभ्यास के आकाश में उड़ाने भरता हुआ, कुशलता के क्षितिज को को छूने का प्रयास करता रहता है।
कहते भी है-
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान।।
अतः एक ही कार्य को अनेक बार करते रहने से, लगातार अभ्यास से दक्षताओं को अर्जित किया जा सकता है। यहां अभ्यास द्वारा कौशल के महत्व को बताया गया है किंतु अभ्यास हेतु ज्ञान की आवश्यकता है. व्यक्ति को यह स्पष्टतया समझना होता है कि उसे क्या करना है? और कैसे करना है?
क्या और कैसे का ज्ञान हो जाने पर ही वह अभ्यास में प्रवृत्त हो सकता है। वह लगातार अभ्यास द्वारा कौशल अर्जित करता है और कौशल में निखार लाने के लिए नवीन ज्ञान प्राप्त करता रहता है।
कुशलता यानी कौशल अपने आप में पूर्ण लक्ष्य नहीं है. यह लगातार, आवश्यकता अनुरूप, सतत ज्ञान और अभ्यास के माध्यम से परिवर्तित और परिमार्जित होता रहता है। बेहतर से और बेहतर करने हेतु प्रयासरत रहता है। प्रति पल कौशलों का परिमार्जन नवीनतम ज्ञान के माध्यम से ही होता है।
अगर हम यह कहें कि- किसी भी कार्य को कुशलता से कर पाना उस कार्य से सम्बंधित सम्पूर्ण ज्ञान हमारी कल्पनाशीलता, सृजनशीलता और लगातार अभ्यास का प्रतिफल है तो अतिशयोक्ति न होगी
ज्ञान आधार है और कौशल उस पर बना हुआ सुन्दर भवन। ज्ञान की धरती पर जब कल्पनाओं के बीज बोए जाते हैं तो फलस्वरूप सुंदर बगीचा उग आता है। जिसकी सुंदरता का प्रतिशत आपके कौशल की महनीयता को, महत्व को सिद्ध करता है। एक बीज के बोए जाने से बढ़ने, पुष्पित, पल्लवित होने तक उसकी सार संभाल और सौंदर्यीकरण का ज्ञान होना आवश्यक है इसी ज्ञान की आधार भूमि पर भौतिक रूप से सुंदर बगीचे का निर्माण संभव है। आधार बिना भवन की संकल्पना अधूरी है। ज्ञान और कौशल संभावनाओं की रेल की दो समानांतर पटरियां है।
अतः हम कह सकते हैं कि -ज्ञान और कौशल अपने सतत संवर्धन और परिमार्जन के लिए एक दूसरे पर आश्रित है। इसलिए हमें अपनी कुशलता में निखार लाने के लिए नवीन से नवीनतम ज्ञान प्राप्त करते रहना चाहिए और उस ज्ञान के आधार पर नवीन कौशलों का विकास करना चाहिए।