वैसे तो राजस्थान में बहुत से स्थान हैं जो पर्यटन व घूमने की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं, लेकिन राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में ऐतिहासिक, सांस्कृतिक दृष्टि से एक बहुत ही सुन्दर स्थान है -‘कालीबंगा’। हड़प्पा सभ्यता के बहुत ही दिलचस्प और महत्वपूर्ण अवशेष अपने में समाहित किए एक छोटा सा नगर कालीबंगा गांव की शांति व सादगी को समेटे हुए हम सभी को गौरवान्वित महसूस कराता है। हालांकि, यहां साल भर में बहुत कम पर्यटक ही पहुंचते हैं, लेकिन कांस्य युगीन कहलाने वाली यह सभ्यता सरस्वती नदी(यह नदी अब लुप्त हो गई है) , जिसे अब घग्घर नदी के रूप में जाना जाता है, अपने आप में इतिहास में एक बड़ी मिसाल है। मातृ प्रधान यह सभ्यता हिंदू धर्म में स्वास्तिक चिह्न की भी याद दिलाती नजर आती है, क्यों कि यहां हिन्दू धर्म का स्वास्तिक का चिह्न मिला है। इस सभ्यता की समकोण पर काटती सड़कें, सड़कों की ग्रीकजाल पद्धति, इस सभ्यता में बौई जाने वाली गेहूं और जौ की मिश्रित फसलें, शल्य चिकित्सा और कपास के यहां मिले साक्ष्य और मृतकों के शवों के साथ रखी जाने वाली दैनिक उपयोग की चीजें इसे कहीं न कहीं विश्व की अन्य सभ्यताओं से अलग करतीं हैं।
सरस्वती और घग्घर नदी:-
पाठकों को बताता चलूं कि सैन्धव सभ्यता का महत्वपूर्ण स्थल ‘कालीबंगा’ राजस्थान के हनुमानगढ़ (भटनेर) जिले का एक बहुत ही प्राचीन एवं देश का प्रमुख ऐतिहासिक स्थल है। प्राचीन द्रषद्वती और सरस्वती नदी घाटी वर्तमान में घग्गर नदी के क्षेत्र में प्राचीन कालीबंगा की सभ्यता पल्लवित और पुष्पित हुई। सच तो यह है कि कालीबंगा सरस्वती नदी के तट पर स्थित है। ऐतिहासिक और भौगोलिक तथ्यों के आधार पर पता चलता है कि कि घग्घर हकरा नदी के घाट पर ऋग्वेद में बहने वाली नदी सरस्वती ‘हृषद्वती’ थी। तब सतलज व यमुना नदियाँ अपने वर्तमान पाटों में प्रवाहित न होकर घग्घर व हसरा के पाटों में बहती थीं। महाभारत काल तक सरस्वती नदी लुप्त हो चुकी थी और 13 वीं शती तक सतलज, व्यास में मिल गई थी। पानी की मात्र कम होने से सरस्वती रेतीले भाग में सूख गई थी। इतिहास में कालीबंगा को आज सिंधु सरस्वती सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है। कालीबंगा 4000 ईसा पूर्व से भी अधिक प्राचीन सभ्यता मानी जाती है। सर्वप्रथम 1952 ई. में श्री अमलानन्द घोष ने इसकी खोज की थी। बी.के थापर व बी.बी लाल के निर्देशन में यहां व्यापक पैमाने पर खुदाई की गई थी। कालीबंगन में उत्खनन पांच स्तरों या चरणों में किया गया था, जिसे कालीबंगन I से V के रूप में पहचाना गया।
कालीबंगा का अर्थ, इतिहास, नगर नियोजन, सफाई व्यवस्था और अन्य विशेषताएं:-
दरअसल, कालीबंगा सिंधु भाषा का शब्द है जो काली+बंगा (काले रंग की चूड़ियां) से बना है। काली का अर्थ काले रंग से तथा बंगा का अर्थ चूड़ियों से है। वास्तव में,यहाँ मिली तांबे की काली चूड़ियों के कारण ही इस स्थान को ‘कालीबंगा’ कहा गया। इस सभ्यता में नगर सुनियोजित ढंग से बसाये गए थे, जो कहीं न कहीं आज की हमारी नगर नियोजन व्यवस्थाओं तक को भरपूर चुनौती देते हैं और अपने आप में एक मिसाल क़ायम करते हैं। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के समान यहां से सुरक्षा दीवारों से घिरे पश्चिमी (कालीबंगा प्रथम) व पूर्वी टीले मिले हैं। पश्चिमी ढ़ेरी को दुर्ग टीला भी कहा जाता है।प्रमुख बात यह है कि टीले की बस्ती भी सुरक्षा भित्ति से घिरी हुई थी और इसके निर्माण में 30×30×10 सेंटीमीटर की कच्ची ईंटों का प्रयोग किया गया था। मूलतः यह 1.90 मीटर चौड़ी थी। प्राक् सैंधव काल के प्रमुख अवशेषों में यहां लाल-गुलाबी रंग के चाक निर्मित मृदभांड, तश्तरियां,पेंदीदार और संकरे मुंह के घड़े प्रमुख हैं। कुछ बर्तनों पर काले रंग में ज्यामितीय अभिप्राय को चित्रित किया गया है। यहां पाषाण उपकरण, ताम्र निर्मित कुल्हाड़ी तथा परशु सेलखड़ी, शंख, कार्नेलियन एवं तांबे के मनके, पकी मिट्टी और तांबे की बनी चूड़ियां, पत्थर के सिलबट्टे, मिट्टी की खिलौना गाड़ी के पहिये भी मिले हैं।
यहां की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही है कि यहां आड़ी-तिरछी जुताई वाले विश्व के प्रथम खेत मिले हैं। एक ओर हराइयां (Furrows) पूर्व-पश्चिम में तथा दूसरी और उत्तर-दक्षिण दिशा में बनाई गयी है। पहली की दूरी 30 सेमी० तथा दूसरी की 190 सेमी0 है। दोनों एक दूसरे को समकोण पर काटती हुई जालीदार जुताई का नमूना प्रस्तुत करती हैं। कम दूरी की हराइयों में चना तथा ज्यादा दूरी को हराइयों में सरसों बोया जाता था। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि लोग एक ही खेत में एक साथ दो फसलें उगाना जानते थे। बेलनाकार तंदूर यहां की एक अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक है। कालीबंगा के भवन कच्ची ईंटों से बने हैं, जो सामान्यः 30×15×7.15 सेमी० आकार की है। पक्की ईंटों का प्रयोग केवल नालियों, कुओं एवं स्नानागार बनाने में ही किया गया है। यहाँ से सार्वजनिक नाली के अवशेष नहीं मिलते।मकानों की नालियों का पानी नाबदानों में गिरता था। इतना ही नहीं,लकड़ी को कुरेद कर नाली बनाने का साक्ष्य केवल कालीबंगन(कालीबंगा) में ही मिलता है।
यहां एक फर्श के निर्माण में अलंकृत ईंटों का प्रयोग भी किया गया है। फर्श की ईंटों पर वृत्त को काटते हुए वृत्त (प्रतिच्छेदी वृत्त) का सुन्दर अलंकरण भी यहां मिलता है। यहां कच्ची ईंटों के चबूतरे भी मिले हैं। एक चबूतरे पर कुआं, अग्निकुंड (वेदिका) तथा पक्की ईंटों का आयताकार गर्त मौजूद था, जिसमें पशुओं की हड्डियां थीं। दूसरे चबूतरे पर सात अग्निकुंड एक पंक्ति में बने हुए थे। भवनों के आगे पीछे सड़कें, दुर्ग पर पहुंचने के लिए सीढ़ियां यहां मिलीं हैं। सड़कों को पक्की बनाने का प्रयास यहीं मिलता है। भवनों के दरवाजे, जो संभवतया एक ही पल्ले के रहें होंगे, गली की ओर खुलते थे। लकड़ी के तनों को खोखला कर इन्हें नालियों के रूप में प्रयोग किए जाने का साक्ष्य केवल और केवल यहीं से ही मिलता है। यहां भूकंप आने के भी साक्ष्य मिलते हैं।
यहाँ से तांबे के धातु से बने हथियार मिले हैं। इससे पता चलता है कि वे लोग हथियारों से और तांबे की धातु से परिचित थे। यहां तक कि शैलखड़ी की मुहरें और मिट्टी की छोटी मुहरें भी यहां मिली हैं। मिट्टी की मुहरों पर सरकंडे की आकृति छपी मिली है। यहां से प्राप्त मुहरें ‘मेसोपोटामिया’ की मुहरों से मिलती हैं। यहाँ पर प्राप्त पत्थर से बने बाट से पता चलता है कि यहाँ के लोग तौलने के लिए बाट का उपयोग किया करते थे। ऐसा माना जाता है कि यहाँ अंत्येष्ठी संस्कार की तीन विधियां प्रचलित थीं: पूर्व समाधीकरण, आंशिक समाधिकरण और दाह संस्कार। कहना ग़लत नहीं होगा कि मोहन-जोदड़ो व हड़प्पा की भाँति कालीबंगा में भी सूर्य से तपी हुई ईटों से बने मकान, दरवाज़े, पांच से साढ़े पांच मीटर चौड़ी एवं समकोण पर काटती सड़कें, कुएँ, नालियाँ आदि पूर्व योजना के अनुसार निर्मित हैं जो तत्कालीन मानव की नगर-नियोजन, सफ़ाई-व्यवस्था, पेयजल व्यवस्था आदि पर प्रकाश डालते हैं।
उल्लेखनीय है कि यहां पर ताँबे के औजार व मूर्तिया कालीबंगा में उत्खन्न से प्राप्त अवशेषों में ताँबे (धातु) से निर्मित औज़ार, हथियार व मूर्तियाँ मिली हैं, जो यह प्रकट करती है कि मानव प्रस्तर युग से ताम्रयुग में प्रवेश कर चुका था। यहां मिली बैल और बारहसिंगे की हड्डियां और आयताकार, वर्तुलाकार तथा अंडाकार अग्निवेदियां कहीं न कहीं यह भी इशारा करतीं हैं कि यहां पशु बलि दी जाती होगी।
कालीबंगा संग्रहालय का इतिहास –
कालीबंगा में एक संग्रहालय भी स्थापित किया गया है। दरअसल,संग्रहालय 1961-69 के बीच की गई हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त वस्तुओं को रखने के लिए इसे वर्ष 1983 में स्थापित किया गया था। इस संग्रहालय में अनेक प्राचीन वस्तुएं, पात्रों और पुरावशेष को 3 दीर्घाओं में प्रदर्शित किया गया है। इसका मुख्य आकर्षण हड़प्पा मुद्राएँ, चूड़ियाँ, टेराकोटा की वस्तुएँ, टेराकोटा की मूर्तियाँ, ईंटें, चक्की, पत्थर की गेंदें तथा प्रसिद्ध छह भवनों वाली पात्र-निर्माणशाला शामिल हैं। इतना ही नहीं इसमें विभिन्न समान जैसे आभूषण, खिलौने और पुराने शहरों की तस्वीरें और बरतन आदि भी देखे जा सकते हैं।दीर्घाओं में प्रदर्शित वस्तुओं में कालीबंगा के ‘क’ से ‘ड.’ तक के हड़प्पा पूर्व स्तर की हड़प्पा मुद्राएं, चूड़ियां, टेराकोटा की वस्तुएं, टेराकोटा की मूर्तियाँ, ईंटें, चक्की, पत्थर की गेंदें तथा प्रसिद्ध छह भवनों वाली पात्र-निर्माणशाला शामिल हैं। इसके अलावा, खुदाई के विभिन्न स्तरों के खुली संरचनाओं के चित्र भी दर्शाएं गए हैं।
कैसे पहुंचें:-
पुरातात्विक स्थल कालीबंगा, राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में स्थित है। हनुमानगढ़ के 12 जुलाई 1994 में जिला बनने से पहले यह स्थल गंगानगर में आता था।हनुमानगढ़ जिसे भटनेर के नाम से भी जाना जाता है, से कालीबंगा की दूरी लगभग 20 किलोमीटर है। बीकानेर या हनुमानगढ़ से पीलीबंगा से होकर कालीबंगा पहुंचा जा सकता है। कालीबंगा, पीलीबंगा से मात्र पांच किलोमीटर की दूरी पर ही स्थित है। पीलीबंगा भी कालीबंगा की ही भांति एक छोटा सा कस्बा है। पीलीबंगा में बीकानेर तथा हनुमानगढ़ से सीधी रेलसेवा भी उपलब्ध है। सड़कमार्ग से भी यहां आसानी से पहुंचा जा सकता है।
अंत में यही कहूंगा कि कालीबंगा सभ्यता कालीबंगा गांव में बहुत ही शांत माहौल में एक समृद्ध, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक सभ्यता है। कालीबंगा गांव में पहुंचकर इसे प्रत्यक्ष देखकर ही कोई भी इस विरासत के असली महत्व को गहराई से जान व समझ सकता है। हालांकि कालीबंगा गांव में रहने ठहरने की कोई ज्यादा माकूल व उचित व्यवस्थाएं उपलब्ध नहीं है लेकिन यहां आने वाले पर्यटक हनुमानगढ़ या सूरतगढ़ में होटलों, गेस्ट हाउस, रेस्तरां आदि में ठहर सकते हैं। यहां ठहरना, खाना-पीना कुछ खास महंगा नहीं है। तो कभी आइएगा, पधारिएगा भारतीय गांवों के माहौल के बीच में, कालीबंगा गांव के परिवेश और यहां के शांत वातावरण में। आपको यहां निश्चित ही एक अलग सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, ज्ञान में इज़ाफ़ा करने वाले अनुभव प्राप्त होंगे।