बूढ़ी दीपावली एक खास पर्व है जो हिमाचल और उत्तराखंड में बेहद प्रसिद्ध है। दिवाली से 11वें दिन इस पर्व को मनाया जाता है।
ये छोटी और बड़ी दिवाली से थोड़ा अलग पर्व है। इस बार 12 से 15 नवंबर तक बूढ़ी दिवाली को मनाया जाएगा। इस दौरान लोग पटाखे नहीं जलाते हैं बल्कि 3 दिन लगातार रात को मशालें जलाकर बूढ़ी दिवाली का त्योहार मनाते हैं। कृष्ण पक्ष की अमावस्या को बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है जिसे दिवाली के 11वें दिन मनाया जाता है। इस पर्व पर स्वांग के साथ परोकड़िया गीत, रासा, नाटियां, विरह गीत भयूरी, हुड़क नृत्य और बढ़ेचू नाच के साथ बूढ़ी दिवाली का जश्न मनाते हैं। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के कुछ इलाकों में बूढ़ी दीपावली को मनाया जाता है। हिमाचल प्रदेश के गिरिपार क्षेत्र, शिमला के कुछ गांव, कुल्लू के निरमंड और अन्य कुछ पहाड़ी इलाकों में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। एक अलग तरह के जश्न के साथ बूढ़ी दिवाली को मनाया जाता है।
कहते है जब भगवान राम 14 वर्ष का अपना वनवास खत्म कर आयोध्या वापस आए तो सभी ने दीपावली मनाई और खुशी में दीये जलाए। लेकिन पर्वतीय क्षेत्र काफी सुदूर था, इसलिए वहां तक भगवान राम के आने की जानकारी 11 दिन बाद लोगो को पता चली। इसकारण पर्वतीय क्षेत्रों में दीपावली का पर्व मुख्य दीपावली से 11 दिन बाद मनाया जाता है। इसे इगास दीपावली या फिर बूढ़ी दिवाली भी कहते है।जबकि
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में मुख्य दिपावली के ठीक एक माह बाद बूढ़ी दिवाली के रूप में यह पर्व मनाया जाता है। कुल्लू जिले के आनी और निरमंड में यह पर्व अनूठे रूप से मनाया जाता है। ऐसी ही परंपरा हिमाचल के अन्य जिलों सिरमौर, शिमला, जनजातीय जिला लाहुल स्पीति में भी है। आनी के धोगी गांव में देवता शमशरी महादेव के प्रति समर्पण के साथ दो दिवसीय बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। जबकि निरमंड में तीन दिवसीय बूढ़ी दिवाली मनाये जाने की परम्परा है।इस अवसर पर यहां मेला भी लगता है।
इस बूढ़ी दिवाली में पुरातन संस्कृति की झलक देखने को मिलती है। प्रकाशोत्सव के प्रतीक के रूप में यहां पर मशालें जलाई जाती हैं, पारंपरिक वाद्ययंत्रों की थाप पर लोग झूमते हैं। सबसे अंत में फरवरी माह में लाहुल-स्पीति में दियाली मनाई जाती है।जिसमे प्रकाश का प्रतीक मशालें जलाई जाती हैं।लोग परोकड़िया गीत, विरह गीत भयूरी, रासा, नाटियां, स्वांग के साथ हुड़क नृत्य करके जश्न मनाते हैं। कुछ गांवों में बूढ़ी दिवाली के त्योहार पर बढ़ेचू नृत्य करने की परंपरा भी है। कई जगहों पर आधी रात को बुड़ियात नृत्य भी किया जाता है। लोग एक-दूसरे को सूखे व्यंजन मूड़ा, चिड़वा, शाकुली, अखरोट बांटकर बधाई देते हैं। यहां शिरगुल देवता की गाथा भी गाई जाती है। पुरेटुआ का गीत गाना जरूरी समझा जाता है। हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले के कुछ गांवों में तो इस त्योहार को पूरे एक हफ्ते तक मनाया जाता है।
इस दिवाली को देव कारज भी कहते है,रात में देवता शमशरी महादेव की पूजा करके तीन आग की मशालें जलाई जाती हैं। शमशरी महादेव के पुरोहितों द्वारा महादेव को नचाया जाता है और कांव गाए जाते हैं जिसमें ‘किया माऊए किया काज बड़ी राजा देऊली राज देऊली वोले देऊलीए पारा ओरोऊ आई वुडिली ढेण तैसे नहीं सुना मेरा काम’ आदि कांव गाए जाते हैं। इन कांव गीतों को भूत पिशाच भगाने के उद्देश्य से गाया जाता हैं ।
बूढ़ी दिवाली उत्सव मनाने के लिए सुबह के समय घास का एक लंबा रस्सा बनाया जाता है। जिसे मुंजी का घास कहते है, उस रस्सी के अगले सिरे में महादेव के गुर नाचते हैं और पीछे के हिस्से में बाकी लोग नाचते हैं। नांचते हुए ही मंदिर की तीन परिक्रमा की जाती हैं। उसके बाद रस्सी को काटा जाता है और उस रस्सी को लोग अपने अपने घर ले जाते हैं। कहा जाता है कि इस रस्सी के कटे हिस्से को घर में रखने से चूहे और सांप घर मे नही आते।
बूढ़ी दिवाली पर लोग देवता संग नाचते हैं। इस पर्व का रामायण और महाभारत काल से भी सम्बंध है। पर्व के दौरान हनुमान के भक्तिगीत , हनुमान-सीता संवाद, हनुमान-विभीषण संवाद और भगवान राम के वनवास से आयोध्या तक की गाथा लोकगीतों में प्रस्तुत की जाती है। कौरव और पांडव के प्रतीक के रूप में रस्साकसी भी होती हैं। मूंजी घास के रस्से से ही एक-दूसरे के साथ लोग शक्ति प्रदर्शन करते है।
जब भगवान राम ने लंका पर विजय का परचम लहराया और वे 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे तो उनके अयोध्या लौटने की खुशी में लोगों ने घी के दीये जलाए थे। तब से लेकर आज तक दिवाली के कही 11 दिन तो कही एक माह बाद पहाड़ पर लोग बूढ़ी दिवाली मनाते है। दिवाली के समय जहां दीये जलाने की रिवायत है, वहीं इन गांवों में मशालें जलाकर भी रोशनी की जाती है।इसे मंगसीर की दीपावली भी कहा जाता है।यह दीपावली टिहरी, उत्तरकाशी और देहरादून जिले के जौनसार क्षेत्र में मनाई जाती है। उत्तरकाशी के बनाल क्षेत्र में बूढ़ी दीपावली का जश्न देवलांग रूप में मनाया जाता है।
देवलांग को बनाने का अनूठा रिवाज है। एक महीने पहले लोग अपने आस-पास के जंगल में एक देवदार का सीधा, लंबा-सुडौलनुमा पेड़ की खोज करते हैं। मंगसीर महीने की दीपावली के दिन उस पेड़ को स्थानीय अनुसूचित जाति के लोग जड़ सहित ऊखाड़कर ले आते हैं। इस काम को वह लोग भूखे पेट करते हैं।
गांव में पेड़ पंहुचने के बाद लोग उसका तिलक अभिषेक करके स्वागत करते हैं।बनाल पट्टी के दो दर्जन से अधिक गांव के लोग लोक परंपरानुसार दो भागो में बंट जाते हैं, जिन्हें सांठी और पांसाई नाम से जाना जाता है। ये लोग इतने लंबे पेड़ को हाथ में लिए हुए डंडों से खड़ा करते हैं और जहां इस पेड़ को गाड़ने के लिए गड्ढा बनाया होता है,वहां बिना हाथ लगाए इस पेड़ को गाड़ देते हैं,इसे ही देवलांग कहा जाता है।फिर अलग-अलग गांवों से लोग जुलूस की शक्ल में ढोल, गाजे-बाजो के साथ गीत गाते हुए, हाथ में जलती हुई मशाल लेकर वहां पहुचते हैं, जहां उस पेड़ को गाड़ा हुआ होता है।सांठी और पांसाई नामों से बंटे हुए लोगों में देवलांग की चोटी को छूने के लिए प्रतिस्पर्धा होती है। देवलांग चोटी को छूने के बाद हाथ में लिए मशाल से देवलांग को आग लगाई जाती है।
इसके बाद उत्साहित लोग हारूल, तांदी और रासौं गाकर नृत्य करते है और चूड़ा, गुड़, तिल बांटकर रातभर जश्न मनाते हैं। इस कार्यक्रम में यमुनाघाटी के 100 से ज्यादा गांवों के लोग शामिल होते हैं।
मंगसीर की दिवाली मनाने के पीछे माधो सिंह भंडारी की कथा भी है। एक समय टिहरी रियासत में वीर माधोसिंह भंडारी की किसी ने झूठी शिकायत कर दी जिस कारण उन्हें दीपावली के दिन टिहरी राज दरबार जाना पड़ा और वापस घर लौटने में वीर माधोसिंह भंडारी को एक माह की देर हो गई। उनकी रियासत के लोगों ने अपने माधोसिंह को दीपावली के अवसर पर अनुपस्थित पाकर दीपावली को अगले महीने में धूमधाम से मनाने का निर्णय लिया। वही देरी से दीपावली मनाने का एक कारण खेती-बाड़ी भी है। कार्तिक महीने में किसानों की फसल खेतों से समेटने में व्यस्तता रहती है। मंगशीर या फिर मार्गशीर्ष महीने तक लोग अपने खेती के कामों को निपटा लेते हैं और उसके बाद दीपावली के जश्न का माहौल बन जाता है। बनाल क्षेत्र के गैर गांव में देवलांग का त्योहार देखने के लिए देहरादून से नौगांव और नौगांव से राजगढ़ी वाले मोटर मार्ग से गडोली होकर गैर गांव पंहुचते है।देहरादून से यह दूरी लगभग 160 किलोमीटर है। नौगांव से बस टैक्सी इत्यादि की सुविधा गैर गांव तक मिल जाती है।यदि आप भी मुख्य दीपावली के बाद बूढ़ी दिवाली का लुत्फ उठाना चाहते है तो चले आइए पहाड़ पर ।उत्तराखंड और हिमाचल दोनो राज्यो में आप इस जश्न का हिस्सा बन सकते है।
ये छोटी और बड़ी दिवाली से थोड़ा अलग पर्व है। इस बार 12 से 15 नवंबर तक बूढ़ी दिवाली को मनाया जाएगा। इस दौरान लोग पटाखे नहीं जलाते हैं बल्कि 3 दिन लगातार रात को मशालें जलाकर बूढ़ी दिवाली का त्योहार मनाते हैं। कृष्ण पक्ष की अमावस्या को बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है जिसे दिवाली के 11वें दिन मनाया जाता है। इस पर्व पर स्वांग के साथ परोकड़िया गीत, रासा, नाटियां, विरह गीत भयूरी, हुड़क नृत्य और बढ़ेचू नाच के साथ बूढ़ी दिवाली का जश्न मनाते हैं। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के कुछ इलाकों में बूढ़ी दीपावली को मनाया जाता है। हिमाचल प्रदेश के गिरिपार क्षेत्र, शिमला के कुछ गांव, कुल्लू के निरमंड और अन्य कुछ पहाड़ी इलाकों में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। एक अलग तरह के जश्न के साथ बूढ़ी दिवाली को मनाया जाता है।
कहते है जब भगवान राम 14 वर्ष का अपना वनवास खत्म कर आयोध्या वापस आए तो सभी ने दीपावली मनाई और खुशी में दीये जलाए। लेकिन पर्वतीय क्षेत्र काफी सुदूर था, इसलिए वहां तक भगवान राम के आने की जानकारी 11 दिन बाद लोगो को पता चली। इसकारण पर्वतीय क्षेत्रों में दीपावली का पर्व मुख्य दीपावली से 11 दिन बाद मनाया जाता है। इसे इगास दीपावली या फिर बूढ़ी दिवाली भी कहते है।जबकि
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में मुख्य दिपावली के ठीक एक माह बाद बूढ़ी दिवाली के रूप में यह पर्व मनाया जाता है। कुल्लू जिले के आनी और निरमंड में यह पर्व अनूठे रूप से मनाया जाता है। ऐसी ही परंपरा हिमाचल के अन्य जिलों सिरमौर, शिमला, जनजातीय जिला लाहुल स्पीति में भी है। आनी के धोगी गांव में देवता शमशरी महादेव के प्रति समर्पण के साथ दो दिवसीय बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। जबकि निरमंड में तीन दिवसीय बूढ़ी दिवाली मनाये जाने की परम्परा है।इस अवसर पर यहां मेला भी लगता है।
इस बूढ़ी दिवाली में पुरातन संस्कृति की झलक देखने को मिलती है। प्रकाशोत्सव के प्रतीक के रूप में यहां पर मशालें जलाई जाती हैं, पारंपरिक वाद्ययंत्रों की थाप पर लोग झूमते हैं। सबसे अंत में फरवरी माह में लाहुल-स्पीति में दियाली मनाई जाती है।जिसमे प्रकाश का प्रतीक मशालें जलाई जाती हैं।लोग परोकड़िया गीत, विरह गीत भयूरी, रासा, नाटियां, स्वांग के साथ हुड़क नृत्य करके जश्न मनाते हैं। कुछ गांवों में बूढ़ी दिवाली के त्योहार पर बढ़ेचू नृत्य करने की परंपरा भी है। कई जगहों पर आधी रात को बुड़ियात नृत्य भी किया जाता है। लोग एक-दूसरे को सूखे व्यंजन मूड़ा, चिड़वा, शाकुली, अखरोट बांटकर बधाई देते हैं। यहां शिरगुल देवता की गाथा भी गाई जाती है। पुरेटुआ का गीत गाना जरूरी समझा जाता है। हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले के कुछ गांवों में तो इस त्योहार को पूरे एक हफ्ते तक मनाया जाता है।
इस दिवाली को देव कारज भी कहते है,रात में देवता शमशरी महादेव की पूजा करके तीन आग की मशालें जलाई जाती हैं। शमशरी महादेव के पुरोहितों द्वारा महादेव को नचाया जाता है और कांव गाए जाते हैं जिसमें ‘किया माऊए किया काज बड़ी राजा देऊली राज देऊली वोले देऊलीए पारा ओरोऊ आई वुडिली ढेण तैसे नहीं सुना मेरा काम’ आदि कांव गाए जाते हैं। इन कांव गीतों को भूत पिशाच भगाने के उद्देश्य से गाया जाता हैं ।
बूढ़ी दिवाली उत्सव मनाने के लिए सुबह के समय घास का एक लंबा रस्सा बनाया जाता है। जिसे मुंजी का घास कहते है, उस रस्सी के अगले सिरे में महादेव के गुर नाचते हैं और पीछे के हिस्से में बाकी लोग नाचते हैं। नांचते हुए ही मंदिर की तीन परिक्रमा की जाती हैं। उसके बाद रस्सी को काटा जाता है और उस रस्सी को लोग अपने अपने घर ले जाते हैं। कहा जाता है कि इस रस्सी के कटे हिस्से को घर में रखने से चूहे और सांप घर मे नही आते।
बूढ़ी दिवाली पर लोग देवता संग नाचते हैं। इस पर्व का रामायण और महाभारत काल से भी सम्बंध है। पर्व के दौरान हनुमान के भक्तिगीत , हनुमान-सीता संवाद, हनुमान-विभीषण संवाद और भगवान राम के वनवास से आयोध्या तक की गाथा लोकगीतों में प्रस्तुत की जाती है। कौरव और पांडव के प्रतीक के रूप में रस्साकसी भी होती हैं। मूंजी घास के रस्से से ही एक-दूसरे के साथ लोग शक्ति प्रदर्शन करते है।
जब भगवान राम ने लंका पर विजय का परचम लहराया और वे 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे तो उनके अयोध्या लौटने की खुशी में लोगों ने घी के दीये जलाए थे। तब से लेकर आज तक दिवाली के कही 11 दिन तो कही एक माह बाद पहाड़ पर लोग बूढ़ी दिवाली मनाते है। दिवाली के समय जहां दीये जलाने की रिवायत है, वहीं इन गांवों में मशालें जलाकर भी रोशनी की जाती है।इसे मंगसीर की दीपावली भी कहा जाता है।यह दीपावली टिहरी, उत्तरकाशी और देहरादून जिले के जौनसार क्षेत्र में मनाई जाती है। उत्तरकाशी के बनाल क्षेत्र में बूढ़ी दीपावली का जश्न देवलांग रूप में मनाया जाता है।
देवलांग को बनाने का अनूठा रिवाज है। एक महीने पहले लोग अपने आस-पास के जंगल में एक देवदार का सीधा, लंबा-सुडौलनुमा पेड़ की खोज करते हैं। मंगसीर महीने की दीपावली के दिन उस पेड़ को स्थानीय अनुसूचित जाति के लोग जड़ सहित ऊखाड़कर ले आते हैं। इस काम को वह लोग भूखे पेट करते हैं।
गांव में पेड़ पंहुचने के बाद लोग उसका तिलक अभिषेक करके स्वागत करते हैं।बनाल पट्टी के दो दर्जन से अधिक गांव के लोग लोक परंपरानुसार दो भागो में बंट जाते हैं, जिन्हें सांठी और पांसाई नाम से जाना जाता है। ये लोग इतने लंबे पेड़ को हाथ में लिए हुए डंडों से खड़ा करते हैं और जहां इस पेड़ को गाड़ने के लिए गड्ढा बनाया होता है,वहां बिना हाथ लगाए इस पेड़ को गाड़ देते हैं,इसे ही देवलांग कहा जाता है।फिर अलग-अलग गांवों से लोग जुलूस की शक्ल में ढोल, गाजे-बाजो के साथ गीत गाते हुए, हाथ में जलती हुई मशाल लेकर वहां पहुचते हैं, जहां उस पेड़ को गाड़ा हुआ होता है।सांठी और पांसाई नामों से बंटे हुए लोगों में देवलांग की चोटी को छूने के लिए प्रतिस्पर्धा होती है। देवलांग चोटी को छूने के बाद हाथ में लिए मशाल से देवलांग को आग लगाई जाती है।
इसके बाद उत्साहित लोग हारूल, तांदी और रासौं गाकर नृत्य करते है और चूड़ा, गुड़, तिल बांटकर रातभर जश्न मनाते हैं। इस कार्यक्रम में यमुनाघाटी के 100 से ज्यादा गांवों के लोग शामिल होते हैं।
मंगसीर की दिवाली मनाने के पीछे माधो सिंह भंडारी की कथा भी है। एक समय टिहरी रियासत में वीर माधोसिंह भंडारी की किसी ने झूठी शिकायत कर दी जिस कारण उन्हें दीपावली के दिन टिहरी राज दरबार जाना पड़ा और वापस घर लौटने में वीर माधोसिंह भंडारी को एक माह की देर हो गई। उनकी रियासत के लोगों ने अपने माधोसिंह को दीपावली के अवसर पर अनुपस्थित पाकर दीपावली को अगले महीने में धूमधाम से मनाने का निर्णय लिया। वही देरी से दीपावली मनाने का एक कारण खेती-बाड़ी भी है। कार्तिक महीने में किसानों की फसल खेतों से समेटने में व्यस्तता रहती है। मंगशीर या फिर मार्गशीर्ष महीने तक लोग अपने खेती के कामों को निपटा लेते हैं और उसके बाद दीपावली के जश्न का माहौल बन जाता है। बनाल क्षेत्र के गैर गांव में देवलांग का त्योहार देखने के लिए देहरादून से नौगांव और नौगांव से राजगढ़ी वाले मोटर मार्ग से गडोली होकर गैर गांव पंहुचते है।देहरादून से यह दूरी लगभग 160 किलोमीटर है। नौगांव से बस टैक्सी इत्यादि की सुविधा गैर गांव तक मिल जाती है।यदि आप भी मुख्य दीपावली के बाद बूढ़ी दिवाली का लुत्फ उठाना चाहते है तो चले आइए पहाड़ पर ।उत्तराखंड और हिमाचल दोनो राज्यो में आप इस जश्न का हिस्सा बन सकते है।