साहित्य समय के आगे पिछड़ रहा है। अन्य बातें आगे निकल गई हैं। साहित्य का स्थान किसी ने नहीं लिया है। यह खाली स्थान स्पष्ट रूप से दिख रहा है। बड़े-बड़े साहित्यकारों के भीतर भी खाली स्थान व्याप्त हो गया है। उन्होंने इसे भरने के इतर तरीके अपना लिए हैं, लेकिन उनकी हल्की हरकतें उन्हें खरोंच रही है। इस खरोंच को वे अपने भीतर बौने हुए देख रहे हैं, लेकिन इस तंत्र में बने रहने के लिए यह भी उन्होंने स्वीकार कर लिया है।
आज जो साहित्य देश और विश्व के सामने आ रहा है वह साहित्य कम, चर्चित होने का सामान ज्यादा है। यही कारण है कि साहित्य पर से दुनिया की नजर हट गई है। नोबेल पुरस्कार भी इसी तरह दिया जाता है। जो पत्र-पत्रिकाएं अपने भीतर साहित्य को लेकर बोलतीं थीं, उन्होंने साहित्य से किनारा कर लिया है। रविवारीय परिशिष्ट आज और बातें लेकर आ रहे हैं, क्योंकि साहित्य की बातें अब किसी की पसंद नहीं है। अखबार भी इसे अपने भीतर नहीं रख सकते। गत सदी के छठे दशक से नौवें दशक तक साहित्य का जो सम्मान पत्र-पत्रिकाओं में था, वह अब पूरा का पूरा खत्म हो चुका है। साहित्यकार इसे देखते हैं, लेकिन इसके कारणों से अपरिचित बनते हुए किसी भांति अपने आपको दस-पांच आदमियों की गोष्ठी में देख रहे हैं। अखबार जो बात चाहते हैं। वह बात आज साहित्यकारों के पास नहीं है।
अखबार आज के आदमी के लिए है। कल छपने वाला अखबार कल के रूप की चिन्ता करेगा। जब साहित्य के पास आदमी की बात थी, उसने उसे खूब छापा। आज साहित्यकार के पास आज के आदमी की बात नहीं है।
आज सब लेखक त्रस्त हैं इसलिए कि उनके पास आज के आदमी की बात और उसकी भाषा नहीं है। आज का लेखक आज के आदमी के पास नहीं है। वह बीते हुए कल की बात ढो रहा है। आज की पीढ़ी को आज की धरती पर अपना भविष्य खड़ा करना चाहती है। इसका साज-सामान आज के लेखक के पास नहीं है। तो आज के लेखक को आज का आदमी क्यों स्वीकार करेगा?
आज किसी को कोई साहित्यकार, बड़ा या छोटा यह परिचय दे कि मैं राईटर हूं तो वह अनसुना कर अगली बात पर आ जायेगा। राईटर उसके लिए अच्छी बात नहीं है। वह उस किताब की चर्चा करता है जो उसके भविष्य को रचने में सहायक है। दूसरा आदमी उस किताब को अच्छी कहेगा जो उसकी बात का हल प्रस्तुत करेगी। समाज कहां खड़ा है और साहित्यकार क्या देख रहा है। इन दोनों का अंतर लेखकों और साहित्य को पीछे धकेलता जा रहा है।
चर्चा में आज बात दूसरी है। साहित्य और लेखक नहीं है। असल में, लेखकों ने पिछले तीस सालों वह लिखा है जो आदमी की आवश्यकता नहीं है। इसलिए बड़े-बड़े लेखक की पब्लिशर तीन सौ किताबें ही छापता है।
तीन सौ किताबों से सवा सौ करोड़ की जनता में क्या! ऊंट के मुंह में जीरा। और यह जीरा भी काम का नहीं। आज का लेखन न लीपण जोग और न थापण जोग। इस असलियत से सामना करने में आज के बड़े साहित्यकारों को हिचक नहीं होना चाहिये। छोटे तो छोटे हैं। उन्हें साहित्य से नहीं पुरस्कारों से मतलब है।
आज पुरस्कृत कृतियां अपढ़ी क्यों है? क्योंकि यह पुरस्कारों का कचरा है। पुरस्कार बड़े लेखकों की अपनी टीम खड़ी करने के संसाधन अधिक और बंटवारे का रूप तनिक कम है। राशि बांटने के उदाहरण इतने उछले है कि पुरस्कार और पुरस्कृत लेखक दोनों बदनाम होते गये। पुरस्कार अपनी आन खो बैठे और अर्थ भी। पुरस्कृत लेखकों को आज और नजरों से देखा जाता है। पुरस्कार ने उन्हें बदनाम कर दिया। किताब तो बेचारी हो गई- इन पुरस्कारों के सामने।
असल में, साहित्य और साहित्यकार दोनों को पता नहीं है कि वे इस वातावरण से निकलकर आज के आदमी के पास कैसे पहुंचे?
कविता की दुर्दशा बुद्धिधारी कवियों ने की है। जब वे आज से कट गये। आम आदमी ने उन्हें नहीं स्वीकारा तो यह कहने लगे कि मेरी कविता आम आदमी के लिए नहीं है। इस भांति वे स्वयं ही आम आदमी से दूर होकर अलग हो गये। असल में, उनमें आम आदमी की कविता लिखने की लियाकत ही खत्म हो गई। ये अपने वर्ग में कविता-कविता का खेल खेलने लगे। और इस क्रिया ने साहित्य की सब विधाओं को नुकसान पहुंचाया। उपन्यास खत्म, कहानी की कहानी खत्म, निबंध खत्म, यात्रा विवरण, वर्णन खत्म। ये सब एक दुकान का सामान बन गये, जिसके सामान को कोई नहीं खरीदता। साहित्य अकादमियों की मजबूरी है, उनकी पत्रिकाओं के फकत लेखक ही ग्राहक है। आम आदमी इन पत्रिकाओं के नाम तक नहीं जानते हैं। यह भी वही तमाशा है-लेखक-लेखक खेल जैसा। इस खेल का क्रिकेट के खेल युग में कोई अर्थ नहीं है। लेखन और लेखक प्यादे हो गये हैं। लेखक-लेखक खेल फकत लेखक खेलते हैं और लेखक ही देखते हैं। जो लेखक अखबारों में आ गये, वे अपनी अखबारी घटनाओं के हो गये। साहित्य इन्हें कुछ नहीं देगा।
साहित्य रोजी से जुड़ा रहा तो बहुत कुछ पाया। साहित्य भी, प्रसिद्धि भी। इस साहित्य ने साहित्यिक जातियां खड़ी कीं। चारण, राव, भाट, मोतीसर, रावल, ढाढी, सेवक, भोजक जती आदि-आदि। इन जातियों ने जो साहित्य रचा वह समय की मांग थी। उन्होंने अपनी आवश्यकता को छोड़कर समय की मांग को रचा है। यह साहित्य बहुत चर्चित हुआ तो राजपूत, कायस्थ और ब्राह्मण जातियों को भी आकर्षित कर दिया। यह साहित्य इस धरती से निकलकर विश्व के भीतर खड़ा हुआ। और आज भी इसे अपनी आंखों से देखता है, लेकिन साहित्यकारों ने आज की आंखें फोड़ दी है।
वर्तमान को अंधे करने वाले अंधे हो गये हैं। इस साहित्य के गाने वाले नहीं है। उस साहित्य के गाने कैसे थे। इसने गाने वाली जातियों को उद्भव दिया। नाथ और जोगी ने पाबूजा निहाल दे सुलतान पद्यो को गा-गाकर ख्यातनाम किया, उन्हें समाज के भीतर बोल दिया, भोपा जाति ने आल्हा-ऊदल को आम आदमी के भीतर रच दिया। कामड़ी (गाने की जाति) ने रामदेव जी और माताजी के छंदों को विश्व प्रसिद्ध कर दिया। आज के साहित्यकारों ने जो रचा, वह न तो गाने लायक और न सुनने लायक। उन्हें समय की ख्याति समझ में ही नहीं आई। उन्होंने अपने को रचा और अपने में रह गये। एक समूह है जो उन्हें जबरदस्ती बच्चों की किताबें में रखकर ढो रहा है।
लेखक समय में नहीं खो रहा, वह अपने में खो रहा है। समय उसकी समझ में ही नहीं आया है। इसका अर्थ चारणों से पूछो। लेखक समय का चारण है। लेखक आज क्या बन गया, उसे स्वयं को पता नहीं है।
समय से कटे, समय की मांग से भटके लेखकों ने जो रचा उसने साहित्यिक जातियों को भी समाप्त कर दिया। वे जातियां अपनी उत्पत्ति भूल गई। अपनी समझ खोकर खड़ी है। लूंण-मिरच बेच रही है। धूल खा रही है। आज का साहित्यकार कितने-कितने अपराधों का दोषी है, वह दोष से सना उजले कपड़े पहिने हाथ में पुरस्कारों की धूल लिये और कुछ बासी बेमतलब की किताबें लिए समय के हाथों धूल-धूसरित हुआ खड़ा है।
पाखंड में खोया हुआ है लेखक। जितने बड़े पाखंड, उतनी बड़ी ख्याति। आज पाखंड बिक रहे हैं। साहित्य नहीं बिकता। पाखंड के बड़े-बड़े खरीददार हैं। पाखंड छापने वाले व्यवसायी हैं। उन्हें पैसा कमाना है। पैसा कमाना उनका रोजगार है। वे धंधाई हैं। बड़े-बड़े पाखंडी इन पाखंडियों के जलसे रचाते हैं। उन्हें पाखंड में लपेटकर करोड़ों की राशि में प्रस्तुत करते हैं। यह उनका धंधा है। यह खेल इसलिए चला कि साहित्य के कोई खरीददार नहीं रहे। लेकिन इस काम में चमत्कार है और यह चमत्कार सारे विश्व में है।
टी.वी. चैनल समय की मांग के अनुसार चलते हैं। आकाशवाणी की वाणी इसलिए अपने तक सीमित हो गई है कि उसे पता ही नहीं वह क्या बोल रहा है। रेडियो लगभग बंद होने की कगार में है। टेलीविजन में रेडियो बोलने से बात नहीं बनेगी, न बन रही है। दूरदर्शन पर लेखक आते हैं। कुछ कर चले जाते हैं। यहां न साहित्य है और न चर्चा और न इसके दर्शक। इतने टी.वी. चैनल है, समय के रचे लोग अपनी पसंद का चैनल और अपनी मांग को तलाशते हैं, उन्हें लेखकों की फालतू बातों से कोई मतलब नहीं, जो लोग इन्हें देखते हैं, को एक भद्दी सी गाली भरा पत्र दूरदर्शन को लिखकर उसके सिर पर मारते हैं। लेकिन दूरदर्शन महानिदेशक को अपनी रोजी से मतलब है। दूरदर्शन के कार्यक्रम उत्पादकों को समय-समझ में ही नहीं आता, मांग तो बहुत दूर की बात है। उन्हें सिर्फ रोटी और दारु यानी दारु रोटी (दाल रोटी की भांति) समझ में आती है। दूरदर्शन केन्द्रों पर कलाकारों की इज्जत लूटी जाती है। लेकिन दिल्ली के कोपरनिकस मार्ग ने सब कुछ पी डाला। दूरदर्शन केन्द्र खर्चे की बरबादी के अड्डे बने खड़े हैं। ये तो विज्ञापन है जो इन्हें खड़ा रखे हुए हैं, वरना इनकी हालत समय खराब कर डालता। आकाशवाणी मात्र अब किसी की रोटी मात्र है रोजगार का जरिया है। बाकी कुछ नहीं। यह अद्र्धसत्य नहीं है।
अब शेष यही रह गया है- बोल मेरी मछली कितना पानी। भ्रष्टाचार देश में ही नहीं, साहित्य में भी है। इस भ्रष्टाचार ने साहित्य को निगल डाला है। जिस दिन यह कोर्ट में चला जायेगा। इस देश में लिटरेरी विशेष अदालतें बन जायेंगी। उस दिन साहित्यकार साहित्य अकादमियों के दाह-संस्कार में खड़े होंगे। लेकिन साहित्य नहीं जलेगा। कविता नहीं जलेगी, आदमी नहीं जलेगा। जलेगा वह, जो कचरा है। जलेंगे वे जो इस अपराध के दोषी हैं। जिस दिन साहित्यकार को सजा हो जायेगी, उसी दिन साहित्य अभिशापित हो जायेगा। देश में महान बने बड़े-बड़े साहित्यकार इस बात का भीतर संज्ञान लें। वे साहित्य अकादमी को बर्बाद कर देंगे। वे देश के साहित्य संस्थानों पर मुखाग्नि डालकर उन्हें श्मशान में जिंदा जला देंगे।
बर्बादी का मार्ग ध्वस्त करना आज के समय के साहित्य की मांग है। कोई इस मांग को लिखे। समय उसे अपने कंधों पर ले लेगा। इतिहास उन्हें सोने के अक्षरों में लिखेगा। राख उड़ाने वाले साहित्य को धूल-धूसरित कर रहे हैं। वे कभी बिन पहिचाने नहीं रहेंगे। समय उन्हें पहिचानेगा और अपने हाथों से उनके सिर पर धूल डालेगा। आज के समय के साहित्यकार भर-भर मुट्ठी राख डाल रहे हैं, कल समय का साहित्य उन्हें इसी भांति राखमय करेगा।
समय के पास समझ भी है और राख भी है। लेकिन साहित्यकार इस बात को भूल समय के हाथ बांधकर उसे अपने से दूर करने में संलग्न है। समय को रचने वालों को समय ने स्वीकारा है और विश्व स्तर पर लाकर विश्व के कंधों पर रखा है। आज का लेखक समय के प्रहारों में डूब रहा है। थपेड़ों में खो रहा है, क्योंकि वह प्रहार और थपेड़ों को समझने का लेखक नहीं है। लेखक को अपने से नहीं समय से संबंध स्थापित करने होंगे। समय की आवश्यकता की गंभीरता से जुडऩा होगा।
कालजयी कोई शब्दमात्र नहीं है। काल का लेखन है। और काल उसे अपने सिर (मस्तक) पर रखता है, गिराता नहीं।