अटूट आस्था का केंद्र है कर्ण की आराध्या माँ दशभुजी दुर्गा का मंदिर*

बिहार के मुंगेर का ऐतिहासिक माँ  दशभुजी दुर्गा मंदिर श्रद्धालुओं की  अटूट आस्था और श्रद्धा का केन्द्र है। शारदीय नवरात्र और बासंती नवरात्र में तो  यहां भक्तों का सैलाब उमड़ पड़ता है।भक्तों का मानना है कि   देवी के मंदिर में जो भी भक्त श्रद्धा और भक्ति के भाव से आता हैं। उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं
माँ  दशभुजी को कर्ण की आराध्य देवी माना जाता है। महादानी, महातेजस्वी एवं महारथी कर्ण महाभारतकालीन भारत के महानायकों में अपने शौर्य,  और पराक्रमी राजा के रूप में प्रसिद्ध हैं। तत्कालीन अंगदेश के राजा के रूप में उनका अधिकांश समय मुंगेर में व्यतीत हुआ है। अपनी दानशीलता के लिए इतिहास के अमर व्यक्तित्व राजा कर्ण की अधिष्ठात्री देवी दशभुजी दुर्गा के नाम से आज भी मुंगेर में स्थापित है और उत्तरवाहिनी गंगा के तट पर पर स्थित प्रसिद्ध शक्ति पीठ चंडिका स्थान में उनकी आराधना की कथा जनश्रुतियों में आज भी व्याप्त है। वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त बिहार योग विद्यालय  के गंगा दर्शन को कर्णचौरा ही कहा जाता है। इसी कर्णचौरा से महाराज कर्ण प्रतिदिन सवा मन सोना दान किया करते थे जो उन्हें देवी की आराधना और अपने बलिदान के फलस्वरूप प्राप्त होता था।
कर्ण, पाण्डवों की माता कुंती के प्रथम पुत्र थे, लेकिन कुमारी अवस्था में उनका जन्म होने के कारण उन्हें एक दलित मां-बाप के बेटे के रूप में जाना गया। उनकी माता का नाम राधा और पिता का नाम अधिरथ था। अधिरथ राजा धृतराष्ट्र के यहां सारथी का काम करते थे। एक कथा के अनुसार राजा पृथु की पुत्री कुन्ती को महर्षि दुर्वासा के आदर-सत्कार का मौका मिला और उनके सत्कार से प्रसन्न हो ऋषि ने उन्हें ऐसा आशीर्वाद दिया कि वे किसी भी दिव्य शक्ति को अपने पास बुला सकतीं थीं। ऋषि से प्राप्त आशीर्वाद का प्रयोग कौतुहलवश कुन्ती ने सूर्य के आह्नवान से किया। सूर्य तुरंत उपस्थित हो गए और दोनों के ससंर्ग से कर्ण जैसा तेजस्वी और जन्मजात कवचकुण्डधारी पुत्र उत्पन्न हुआ। चूंकि कर्ण का जन्म कुन्ती की कुमारी अवस्था में ही हुआ अत: कुन्ती ने उसे नदी में प्रवाहित कर दिया जिसका राधा और अधिरथ के यहां पालन पोषण हुआ। इसी कारण कर्ण को सूत पुत्र तथा राधेय नामों से भी जाना गया। राजघराने का वारिस नहीं होने के कारण कर्ण को कई अवसर पर अपमान एवं तिरस्कार का सामना करना पड़ा। पांडवों की शिक्षा पूरी होने के उपरान्त शस्त्र विद्या के प्रदर्शन के समय कर्ण द्वारा दी गयी चुनौती  इस कारण स्वीकार नहीं की गयी कि वह सूत पुत्र है। दुर्योधन ने इसी अवसर पर कर्ण को अंगदेश का राजा घोषित करते हुए उसके सिर पर राजमुकुट रख दिया। दुर्योधन के इस व्यवहार से कर्ण उनके ऋणी बन गए और जीवनपर्यन्त कर्ण ने इस कृतज्ञता का ज्ञापन मैत्री,समर्थन एवं सदैव सहयोग के लिए तत्पर रहकर किया ही, अपना बलिदान देकर भी अपने सत्चरित्र का परिचय दिया।
 कर्ण और अर्जुन के बीच बैर भाव की नींव भी उसी समय पड़ गयी। मत्स्य भेदन के समय यह बैर और गहरा गया जब उसे सूतपुत्र कहकर द्रोपदी ने विवाह करने से इंकार कर दिया। फिर अर्जुन द्वारा मत्स्य भेदन करने पर द्रोपदी ने उनका वरण किया।
कर्ण की आराध्य देवी दशभुजी थीं। यह स्थान मुंगेर के मंगल बाजार में अवस्थित है। जन श्रुति है कि यहां स्थापित प्रतिमा महाभारतकाल की है, यह मूर्ति दानवीर राजा कर्ण की अधिष्ठात्री देवी की है। वर्तमान स्थिति में मूर्ति की स्थापना के लगभग तीन सौ वर्ष हो चुके हैं। पूरी मूर्ति काले रंग के एक ही पत्थर की बनी हुई है। नवरात्रि में लाखों भक्त यहां  पूजा अर्चना करते हैं। यहां पर बलि प्रथा वर्जित है। पहले यह मूर्ति पूरबसराय के किसी स्थान पर थी जहां यह वर्षो तक अज्ञात पड़ी रही। कालान्तर में इसे अंग्रेजों के शासनकाल में बैलगाड़ी में छुपाकर ले जाया जा रहा था, परन्तु वर्तमान स्थान पर जहां मूर्ति स्थापित है उससे आगे बैलों ने चलना बंद कर दिया, परिणामस्वरूप लोगों ने इसे दैवी कृपा मानते हुए उस स्थान पर ही मूर्ति को स्थापित कर दिया, जहां एक विशाल मंदिर बनाया गया। मुंगेर स्थित शक्तिपीठ चण्डिका स्थान में कर्ण प्रतिदिन अपने को एक जलते तेल कड़ाह में डालते हुए देवी की आराधना करता था। इससे देवी प्रसन्न होकर कर्ण को सवा मन सोना देती थी तथा उसकी हर मनोकामना पूर्ण करने का वरदान देकर उसे श्री सम्पन्न बना देतीं थी। आज भी दशभुजी देवी, चण्डिका स्थान तथा मां गंगा के बीच एक त्रिकोण है जिसे एक तांत्रिक स्थल के रूप में जाना जाता है। यहीं पर कर्णचौरा के रूप में विख्यात स्थान मुंगेर बिहार योग विद्यालय बना है जो उसके तांत्रिक स्वरूप को और समृद्ध बना देता है। दशभुजी मंदिर का जीर्णोद्धार कर नया रूप दिया गया है। मंदिर का उत्तरोतर विकास हो रहा है। यहां साल भर लोग पूजा के लिए आते हैं लेकिन शारदीय नवरात्र पर भक्तों की जबरदस्त भीड़ उमड़ती है।
धनुर्विद्या में प्रवीणता के साथ कर्ण महादानी भी थे। उनकी दानशीलता अपने चरमोत्कर्ष पर तब पहुंची जब इंद्र द्वारा मांगे जाने पर उन्होंने अपने शरीर से छीलकर कवच और कुण्डल का दान किया और महाभारत युद्ध के समय कुन्ती की याचना पर उन्होंने अर्जुन को छोड़कर सभी पाण्डव पुत्रों के जीवन का अभयदान दे दिया। कर्ण का जीवनादर्श बड़ा उच्च कोटि का था। वे त्याग और मैत्री को सर्वाधिक महत्व देते थे और यही जीवन आदर्श उनको अति उच्च कोटि का मानव बनाता है।  मैत्री को सर्वाधिक महत्व देने वाले कर्ण को महाभारत युद्ध से पहले कृष्ण ने उन्हें दुर्योधन को छोउ़कर युधिष्ठिर के साथ आने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन दिए। पांडवों का अग्रज बताकर सम्राट बनाने की बात कही, भारत का चक्रवर्ती राजा बनाने का वादा किया परन्तु कर्ण पर इस प्रलोभन का कोई असर नहीं पड़ा। वो तो हिमालय के समान अडिग थे, उन्हें दुर्योधन के हित के सिवा कुछ भी नहीं प्रिय नहीं था। एक बार का दुर्योधन द्वारा दिया गया सम्मान उन्हें चक्रवर्ती बनने से ज्यादा प्रिय लगा। राष्ट्रकवि रामधारी सिहं दिनकर  ने अपनी रचना रश्मिरथी में कर्ण के संबंध में उल्लेख किया है:
हृदय का निष्कपट, पावन क्रिया का,
दलित तारक, समुद्धारक त्रिया था।
बड़ा बेजोड़ दानी था, सदैव था,
युधिष्ठिर ! कर्ण का अद्भुत हृदय था।।
कर्ण की दानशीलता ने महाभारत युद्ध की दिशा ही बदल दी। एक बार इंद्र को कवच कुण्डल देना और दूसरी ओर युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव को अभयदान देकर उन्होंने अपनी दानशीलता पर होने वाले आक्षेप से अपने को बचाया। कर्ण को भगवान कृष्ण के वास्तविक रूप का ज्ञान था,फिर भी अंत तक वे अपने सिद्धांत पर डटे रहे और उनके प्रतिपक्ष में ही बोलते रहे। महाभारत युद्ध की दो घटना कर्ण के चरित्र को और उद्धात बनाती है। अश्वसेन नामक सर्प जिसके पूर्वजों ने अर्जुन को समाप्त करने के लिए कर्ण के बाण से अर्जुन के पास भेजने का अनुरोध किया तो कर्ण ने ऐसी विजय से मृत्यु का वरण करना श्रेष्ठ माना और अश्वसेन को भगा दिया। इसी तरह युधिष्ठिर के मामा शल्य जो कर्ण के सारथी थे, भगवान कृष्ण की सीख पर बार-बार उन्हें दुर्वचनों से हतोत्साहित करते रहे ताकि कर्ण की ओजस्विता और रणकौशल धूमिल हो परन्तु इसका कोई प्रभाव उन पर नहीं पड़ा और वे अंत तक अपने पराक्रम के बल पर अपराजेय बने रहे। कर्ण का वध छलपूर्वक किया गया। गड्डे में फंसे अपने रथ के चक्के को बाहर कर रहे थे तो कृष्ण के उकसावे पर अर्जुन ने अनीति से उसका वध कर दिया। इस प्रकार अंग देश सम्प्रति मुंगेर के सत्यनिष्ठ, पराक्रमी, दानशील एवं तेजोमय व्यक्तित्व का अंत हुआ।