ऐतिहासिक है भक्त शिरोमणि मीराबाई का स्मारक
रणबांकुरों की धरती राजस्थान के कण-कण में जहां वीरों की गाथाएं समाई हुई हैं वहीं यहां की धरती पर सन्त महात्मा ऋषि मुनि तथा लोकदेवता भी अवतरित हुए हैं। जिनके त्याग व अध्यात्म की खुशबू सर्वत्र फैली हुई है। एक ऐसी ही सन्तशिरोमणि मीराबाई भी इतिहास के पन्नों में प्रसिद्ध है जो कि भगवान कृष्ण की दीवानी व सन्त रैदास की अनन्य भक्त थी। मध्य राजस्थान के नागौर जिले का ऐतिहासिक शहर मेड़ता पूरे विश्व में मीरा की नगरी के नाम से चर्चित है।
इस नगर को जोधपुर के संस्थापक राव जोधाजी के कुंवर वर सिंह व दूदाजी ने विक्रमसंवत 1518 ई. में बसाया था। मीराबाई, राव दूदाजी के पुत्र कुँवर रतनसिंह की पुत्री थी। मीराबाई का जन्म विक्रम संवत 1561 में मेड़ता में हुआ था।
मेड़ता नगरी अनेक आक्रमणों की भी शिकार हुई थी। आखिरी आक्रमण यहां 1790 ई. में मराठा और सिंधिया सेना द्वारा किया गया था जो इतिहास में राठौड़ व मराठा युद्ध के नाम से चर्चित है। मेड़ता नगरी जहां युद्धों के आक्रमण से तबाह हुई वहीं कई मर्तबा प्राकृतिक प्रकोपों के कारण भी उजड़ी और बसी।
मीराबाई ने अपने बचपन में पण्डित गजाधर से संगीत वाद्य वादन व नृत्य की शिक्षा ग्रहण की थी। मीरा के दादा राव दूदा वैष्णव सम्प्रदाय से अभिभूत थे और मेड़ता ब्रह्माजी की नगरी पुष्कर के नजदीक होने के कारण अनेक साधु सन्तों का इनके यहां आना जाना लगा रहता था। इन्हीं संतों के प्रभाव से मीराबाई को यह संसार मिथ्या लगा और वे भक्ति भाव के रंग में डूबने लगी। ऐसा माना जाता है कि एक मर्तबा बारात देख इनके बालसुलभ मन ने अपनी दादी से पूछा कि घोड़े पर कौन बैठा हैं तो इनकी दादी ने दूल्हा बताया। मीरा बाई ने पूछा तो मेरा दूल्हा कहाँ है? दादी ने अपने उत्तर में गिरधर गोपाल को मीरा का पति बताया था।
मीरा बाई का विवाह 13 वर्ष की बाल्यावस्था में मेवाड़ के राणासांगा के ज्येष्ठ पुत्र कुंवर भोजराज के साथ विक्रम संवत 1573 में हुआ था। विवाह के समय मीरा बाई अपने साथ कृष्ण की मूर्ति चित्तौड़ ले गई थी। राणासांगा ने मीरा का भक्तिभाव देख कृष्ण की मूर्ति किले में मन्दिर बनवाकर प्रतिष्ठापित कर दी थी। राणासांगा ने मीराबाई को जीवनयापन के लिए मेवाड़ के पुरमांडल परगनों में कई गांव दिये थे। मीरा बाई ने विवाह के सात वर्षों बाद ही उनके पति भोजराज का निधन हो गया था। सांसारिक सुख से वंचित हो उनका सारा समय ईश्वर की भक्ति में ही लगने लगा। इधर बाद में विक्रमादित्य मेवाड़ के शासक बने तो उन्हें मीरा का यह आचरण पसन्द नहीं आया और वे उन पर अत्याचार करने लगे। मीराबाई को इस बीच जहर का प्याला भी भेजा गया जिसे वे अमृत समझकर पी गई पर उनका कुछ न बिगड़ा।
बाद में मीराबाई ने मेवाड़ छोडऩे का मन बना लिया और वे पुन: मेडता आ गई यहीं से मीरा तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़ी। वे वृन्दावन में जीवगोस्वामी जी से मिलने गई पर उन्होंने दर्शनार्थी मीरा को कहलवा दिया कि वे स्त्रियों का मुख तक नहीं देखते हैं। लेकिन मीरा का भक्ति भाव देखकर उन्होंने अपना प्रण तोड़ते हुए मीरा को बुला लिया।
ऐसा माना जाता है कि मीराबाई को मेवाड़ के शासक उदयसिंह ने उन्हें पूरे सम्मान के साथ लौट आने को कहा पर वे नहीं लौटी। मीराबाई अपने जीवन काल में संत रैदास से भी मिली थी। कृष्ण भक्ति में लीन रहने वाली मीराबाई का 48 वर्ष की उम्र में द्वारका में ही निधन हो गया था और वही गोमतीघाट पर उनका मन्दिर बनवाया गया।