प्राचीन काल के परम तपस्वी और ख्यातिप्राप्त महर्षि दधीचि न केवल वेद आदि शास्त्रों के पूर्ण ज्ञाता, परोपकारी और स्वभाव के बड़े ही दयालु थे, बल्कि अपने यहाँ आने वाले किसी भी अतिथि को प्रसन्न करने का हरसंभव प्रयत्न करने के गुण के कारण देवताओं के मुख से सिर्फ यह सुनकर कि मात्र दधीचि की अस्थियों से निर्मित वज्र द्वारा ही असुरों का संहार किया जा सकता है, उन्होंने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर अस्थियों तक का दान कर विश्व के महादानियों में अपना नाम अमर कर लिया। उस समय उनकी आयु मात्र 32 वर्ष की थी, जब महर्षि दधीचि ने समस्त संसार के हित में अर्थात विश्व कल्याणयार्थ आत्म त्याग कर अपनी अस्थियां दान कर दीं थी। दधीचि की हड्डियों से निर्मित वज्र से ही इंद्र ने वृत्रासुर का संहार किया था। महर्षि दधीचि के जन्म और इनकी तपस्या के संबंध में भी अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। यास्काचार्य के अनुसार वैदिक ऋषि दधीचि की माता चित्ति और पिता अथर्वा थे। इसीलिए इनका नाम दधीचि हुआ था। कुछ पुराणों के अनुसार यह कर्दम ऋषि की कन्या शांति के गर्भ से उत्पन्न अथर्वा के पुत्र थे। कुछ अन्य पुराणानुसार यह शुक्राचार्य के पुत्र थे। इनका प्राचीन नाम दध्यंच कहा जाता है। महर्षि दधीचि तपस्या और पवित्रता की प्रतिमूर्ति थे। भगवान शिव के प्रति अटूट भक्ति और वैराग्य में इनकी जन्म से ही निष्ठा थी। ऋषि दधीचि ने अपना संपूर्ण जीवन शिवभक्ति में व्यतीत कर दिया। उन्होंने कठोर तप द्वारा अपने शरीर को वज्र के समान कठोर बना लिया था। अपनी कठोर तपस्या द्वारा अटूट शिवभक्ति से ही दधीचि सभी के लिए आदरणीय हुए। अहंकार तो उन्हें छू तक नहीं पाया था। वे सदा दूसरों का हित करना अपना परम धर्म समझते थे। उनके व्यवहार से उनके निवास स्थल वाले उस वन के पशु-पक्षी तक संतुष्ट थे। उनकी पत्नी का नाम गभस्तिनी था। गंगा के तट पर ही उनका आश्रम था। आश्रम पर आने वाले सभी अतिथियों का स्वयं महर्षि तथा उनकी पत्नी पूर्ण श्रद्धा भाव से सेवा करते थे। वे अपने यहाँ आने वाले किसी भी अतिथि को प्रसन्न करने का हरसंभव प्रयत्न किया करते थे। अपने इन्हीं स्वाभाविक गुणों के कारण कभी अपने प्रतिद्वंद्वी रहे इंद्र के द्वारा असुरों के संहार के लिए उनकी अस्थियों का दान मांगे जाने पर महर्षि दधीचि ने बेहिचक अपना शरीर त्याग कर अस्थियों तक का दान जन व देव कल्याणार्थ कर दिया। देवताओं और मानव कल्याण के लिए आत्मत्याग कर अपनी अस्थियों का दान करने वाले महर्षि दधीचि का नाम आज भी बड़े ही आदर व सम्मान के साथ लिया जाता है। मान्यतानुसार महर्षि दधीचि का जन्म भाद्रपद शुक्ल पक्ष की अष्टमी को हुआ था। इसलिए इस दिन दधीचि जयंती पूरे देश मे श्रद्धा एवं उल्लास के साथ मनाई जाती है।