गौतम चौधरी
विभिन्न बाहरी सांस्कृतिक आक्रमण और धार्मिक आवरणों की तकलीफ को झेलने के बावजूद भारत अपने हजार साला इतिहास, संस्कार, आचार व विचार, परंपरा और ज्ञान की अविरल धारा को विपरीत परिस्थितियों में भी संजो कर रखे हुए है। ऐसा इसलिए संभव हो पाया क्योंकि भारत की संस्कृति सार्वभौमिक, समावेशी, सार्वदेशिक व सार्वकालिक है।
भारतीय विचारधारा की बुनियाद वसुधैव वुटुम्बकम् पर आधारित है। सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया, सर्वें भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुख भागभवेत पर आरूढ़ है। यह केवल एक मंत्र मात्र नहीं अपितु हर हिन्दुस्तानी इस पर दृढ़ता से विश्वास करते हैं और वास्तव में इसका पालन भी करता है। शायद यही वजह रही जिसने इकबाल को यह लिखने के लिए मजबूर किया। ‘‘यूनान-ओ- मिस्र रूमा, सब मिट गए जहां से, अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशां हमारा, वुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जमां हमारा।’’ इन्हीं खूबियों की वजह से आज हम सारे जहां में अतुलनीय और लाजवाब हैं। जहां सभी देश और धर्म अपने आप को श्रेष्ठ और अन्य को निम्नतर होने का दावा करते हैं, वहीं भारत ने ईंसा पूर्व 6वीं शताब्दी में बहुजन हिताय बहुजन सुखाय का उद्घोष किया और पहली बार इस विचार को जन्म दिया कि जिस तरह हम अच्छे हैं उसी तरह आप भी अच्छे हैं।
दुनिया के मान्यता प्राप्त 195 देशों में भारत एक मात्र ऐसा देश है जहां लगभग केवल हर धर्म के अनुयायी ही नहीं अपितु उसके उप-धर्म व पंथों के अनुयायी भी पूरी धार्मिक और सामाजिक आजादी के साथ जिन्दगी गुजारते हैं। जिस धर्म को किसी भी देश ने जगह नहीं दिया, उस को भी भारत ने सम्मानपूर्वक फलने-पूलने का समान अवसर प्रदान किया है। हम इस कारण सेक्युलर नहीं हैं कि हमारा संविधान सेक्युलर है, बल्कि हमारा सनातनी विचार न केवल मनुष्यों का अत्यधिक सम्मान करना सिखाता है बल्कि इस पृथ्वी पर ईंश्वर द्वारा रचित सभी प्राणियों से स्नेह भाव रखने की प्रेरणा देता है। सभी धर्माे और पंथों का आदर करना हमारे सांस्कृतिक डीएनए में सम्मिलित है और ये सभी गुण भारत के संविधान में भली भांति प्रतिबिबित हुए हैं।
यह धारणा कि हम अनेक से एक हुए हैं न केवल आधारहीन बल्कि भ्रमित करने वाला भी है। हम एक से अनेक हुए हैं। जिस प्रकार एक दरख्त में उसकी शाखाएं होती हैं, उसके पत्ते होते हैं, उसके टहनियां होती हैं, उसके फल और पूल होते हैं, ठीक उसी प्रकार भारत में रहने वाले सभी सनातनी थे सभी सनातनी हैं और इनशाल्लाह, सनातनी ही रहेंगे। हां उनकी धार्मिक मान्यताएं भिन्न भिन्न हो सकती हैं पर संस्कृति और पारंपरिक चिंतन उसका एक है। इबादत और पूजा पद्धति अलग हो सकती है लेकिन उसके सोचने का ढंग एक ही होगा। कोईं सनातनी मुसलमान हो सकता है, कोईं सनातनी ईंसाईं हो सकता है, कोईं सनातनी सिख हो सकता है और कोईं सनातनी यहूदी हो सकता है क्योंकि यह माटी हमें एक-दूसरे से बांटना सिखाती ही नहीं है।
इसकी आजादी और जमानत हमारे देश का संविधान देता है मगर वोट की राजनीति करने वाले और कुछ बाहरी शक्तियों के बहकावे में आने वालों ने इस देश के मुस्लिम कौम को धर्म के जंजाल में इस तरह फंसा कर रख दिया है कि मुसलमान अपनी ही या अपने ही इतिहास, अपने ही परंपरा, अपने ही संस्कार और अपने ही रीति नियम से दूर होते जा रहे हैं। दुर्भाग्य से यह स्थिति केवल भारत में ही देखने को मिलती है। ईंरानी, इंडोनेशियाईं, मलेशियाईं और अरब इस्लाम के अनुयायी होने के बावजूद भी अपने पूर्व इस्लामी इतिहास, परंपरा और संस्कृति को नहीं भूले । यहां तक कि अब पाकिस्तान और बांग्लादेश के भी कुछ मुसलमान अपनी जड़ों की ओर लौटने की कोशिश करने लगे हैं।
संभवतः भारत के मुसलमान नए-नए इस्लाम में परिवर्तित हुए थे और यह साबित करना चाहते थे कि वे अरब और ईंरानी से बेहतर मुसलमान हैं इसलिए भारतीय मुसलमानों ने अपने ही तहजीब और तमद्दुन से अलग होना प्रारंभ किया। यही कारण है कि आज भारतीय मुसलमान टोइजम के शिकार हैं। चूंकि भारतीय मुसलमान कम पढ़े-लिखे हैं इसलिए आसानी से गुमराह होते रहे हैं। भारतीय मुसलमानों कों मुस्लिम और मोमिन में फर्क करना होगा। शरीअत का इल्म नहीं। भारतीय मुसलमानों ने कुरान शरीफ पढ़ा ही नहीं; अगर पढ़ा है तो समझा नहीं और समझा है तो उस पर अमल किया नहीं किया। होवूक अल एबाद और होवूक अल्लाह का फलसफा पता नहीं। इसलिए आसानी से गुमराह होते रहे हैं। समान नागरिक संहिता के संदर्भ मे भी यही हो रहा है।
मुसलमानों को यह कहकर भ्रमित किया जा रहा है कि आम नागरिक कानून उनकी धार्मिक गतिविधियों में भारी बदलाव लाएगा। इससे उनकी नमाज और रोजा जैसी धार्मिक प्रथाओं में वुछ बदलाव होंगे। यह इस्लाम के पांच स्तंभों में प्रवेश करके हिदू कानून लागू करेगा, जो निति रूप से निराधार और झूठा प्रचार है। सामान्य नागरिक कानून कभी भी किसी भी धार्मिक प्रथाओं की धार्मिक गतिविधियों में हस्तक्षेप नहीं करेगा। इसकी गारंटी संविधान की धारा 25 और 26 देता है। यह कानून केवल विवाह, तलाक, गोद लेने और विरासत से संबंधित है। नीचे कुछ ऐसी बात दी जा रही है जिसे जानकर कोई भी इस कानून के समर्थन में उतर सकता है।
शरीयत बनता है, कुरान से, हदीस से, इज्मा और कियास से। जिन कानूनी प्रावधानों की चर्चा कुरान शरीफ में नहीं है, इसका वर्णन हदीस द्वारा किया गया है। यदि कोईं प्रावधान हदीसों में वर्णित नहीं है तो इसका निर्णय इस्लामी विद्वानों के बीच व्यापक परामर्श के बाद लिया जाता है। यदि इस्लामी विद्वान आम सहमति तक पहुंचने में विफल रहते हैं तो अनुमान लगाया जाता है कि कुरान और हदीस के अमुक शब्द या लेखन का यह तात्पर्यं हो सकता है। यह इज्मा का ही परिणाम है कि आज इस्लामी न्यायशास्त्र में 5 विचारधाराएं, हन्फी, शाफेईं, मालेकी, हॅम्बली और जाफरी विकसित हुईं हैं और इनके बीच विवाह, तलाक, रखरखाव, विरासत और गोद लेने के संबंध में बहुत सारे मतभेद पाए जाते हैं। उदाहरण के तौर पर अगर कोईं मुसलमान नशे में होने के बावजूद अपनी पत्नी को तलाक दे देता है तो हन्फी मजहब के अनुसार तलाक हो जाएगा लेकिन इस्लाम का अन्य फिरका इसे तलाक नहीं मानता . एक पत्नी जो हन्फी मजहब की मानने वाली है अगर उसका पति अनियत काल से लापता है, तो उसको उस अवधि तक प्रतीक्षा करनी होगी जब उसकी उम्र के लोगों का निधन हो जाए अर्थात जब उसकी उम्र 90 वर्ष के आसपास हो। हालांकि शाफेईं, मालेकी, हंबली मजहब के अनुसार ऐसी पत्नी को 4 साल तक ही प्रतीक्षा करनी होगी। समान नागरिक कानून लागू हो जाने से हनफी-मालेकी, हम्बली-शाफेईं मजहब के बीच जो मतभेद हैं, समाप्त हो जाएंगे।
यह कानून सभी शहरियों को कानून के एक धागा में पिरोने का काम करेगा। वोटबैंक की सियासत को खत्म करने में मददगार साबित होगा। इस से महिलाओं को समान अधिकार मिलेगा और उनकी स्थिति में भी सुधार आएगा, जिस प्रकार फौजदारी के सभी धराएं तमाम नागरिकों पर समान रूप से लागू है ठीक इसी तरह दीवानी की धराएं भी सभी पर समान रूप से लागू होंगी, जिस से भेद-भाव समाप्त होगा।
इस्लामी शरीयत के मुताबिक इंसान के ऊपर दो प्रकार के हुवूक हैं। पहला हुवूक खुदा का होता है जैसे उसपर यकीन करना और उस के साथ किसी को शरीक न मानना, उसके द्वारा भेजे गए सभी दूतों पर विश्वास करना और उनकी आज्ञाओं का पालन करना। नमाज, रोजा, हज, जकात आदि का खालिस नियत के साथ सख्ती से पालन करना। इस हुवूक को हुवुक अल अल्लाह कहते हैं। दूसरा हुवूक इंसान का इन्सान के ऊपर होता है जिसे हुवूक अल एबाद (मानव अधिकार) कहते हैं। विद्वानों के अनुसार इस्लामिक धार्मिक किताबों में खुद सर्वशक्तिमान परमात्मा ने कहा है कि अल्लाह की इबादत करो और उसके साथ किसी को साक्षी न ठहराओ और माता-पिता के साथ भलाईं करो और रिश्तेदारों, यतीमों, मुहताजों, नजदीकी प़रोसियों, दूर के पड़ोसियों, अपने साथी, मुसाफिर और उन लोगों के साथ, जिनके पास तुम्हारे दाहिने हाथ हों। निस्संदेह, अल्लाह उन लोगों को पसन्द नहीं करता जो आत्म-भ्रम करते हैं और भ्रम करते हैं। इसके अतिरिक्त मानव जाति के प्रति सहानुभूति, जानवरों को कष्ट न पहुंचाना, एकत्र होने का शिष्टाचार, बातचीत का शिष्टाचार, मिलने का शिष्टाचार आदि हुवूक अल एबाद में शामिल हैं। इस्लाम में हुवूक अल एबाद हुवुक अल अल्लाह से श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि यह मानव का मानव के साथ होने वाला व्यवहार है। सामान्य नागरिक संहिता इस मायने भी बेहतर है। अतः इसका खुले मन और दिल से स्वागत होना चाहिए।
जब एक देश एक ध्वज, एक आधार कार्ड, एक राशन कार्ड, एक पाठ्य पुस्तक, एक स्थायी खाता संख्या, एक फौजदारी आईंन हो सकता है तो एक सामान्य नागरिक संहिता क्यों नहीं? हां इसमें एक बात का ध्यान जरूर रखा जाना चाहिए। शासन को समान नागरिक संहिता लागू करने से पहले मसौदा तैयार करने के लिए सभी धर्मों के न्यायशास्त्र विशेषज्ञ और कानून विशेषज्ञ की एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया जाना चाहिए। सामान्य नागरिक संहिता का मसौदा तैयार करते समय संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 को ध्यान में रखा जाना चाहिए क्योंकि यह समय की मांग है।
सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लाने का यह सबसे अच्छा समय है। अनुच्छेद 14 के महत्व को समझते हुए पूरे देश में एक अनुकूल माहौल बनाया जाना चाहिए। सामान्य नागरिक संहिता में धर्मों और समुदाय के सर्वोत्तम, वैज्ञानिक और उत्कृष्ट व्यक्तिगत कानून को शामिल करने के लिए ईंमानदार प्रयास भी जरूरी है। एक बात यह भी ध्यान में रखी जानी चाहिए कि इस मामले में शासन या सरकार को मौकापरस्त पार्टियां, या फिर अन्य बाहरी शक्तियों से प्रभावित विद्वानों की तरह राजनीतिक लाभ के लिए नहीं, देश व समाज हित के लिए इसे लागू करना चाहि