सर्वप्रथम पूजा के अधिकारी भगवान गणेश की उपासना, आराधना एवं पूजा भारत के कोने-कोने में होती है। शैव मत के धर्मावलम्बी उन्हें भगवान शिव का पुत्र मानते हैं तो वैष्णव एवं शाक्त मतों के धर्मावलम्बी उनकी उपासना एवं आराधना लक्ष्मी के साथ करते हैं। गणेश का शाब्दिक अर्थ होता है गुणों अर्थात् समुदायों के अधिपति (अर्थात् गणपति)। पर व्यावहारिक रूप में भगवान गणेश को गुणों का अधिपति माना जाता है। वे बुद्धि, विवेक, ज्ञान, कौशल, बल एवं साहस के भी देवता माने जाते हैं। गणेशजी का स्वरूप उनके गुणों का ही प्रतिनिधित्व करता है। जैसे वह मूषक (चूहा) पर सवारी करते हैं। चूहे छुपकर अनाज खाकर मानव के खाद्य पदार्थों को क्षति पहुंचाते हैं और इस तरह राष्ट्र की समृद्धि को नुकसान पहुंचाते हैं। गणेश जी की मूषक सवारी का अर्थ यह हुआ कि राष्ट्र की समद्धि को क्षति पहुंचाने वालों पर हमारा पूरा नियंत्रण होना चाहिए। गणेश के कान बड़े होते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि हममें सबकी बातें सुनने का गुण होना चाहिए। गणेश जी को लम्बोदर कहा जाता है, इसका अर्थ यह है कि वे सबकी बात सुनते हैं और इन बातों को उदरस्थ कर जाते हैं, पर जो भी करते हैं अपने बुद्धि और विवेक से करते हैं। गणेश जी मस्तक पर चंद्रमा धारण करते हैं, इसका अर्थ यह है कि हमें किसी बात पर विचार करते समय ठंडे मस्तक से विचार करना चाहिए।
गणराज्य शब्द की उत्पत्ति भी गणेश के बहुत निकट है। पौराणिक संदर्भों के अनुसार उन्हें भगवान शिव के भक्तों का स्वामी माना गया है। गण (प्रजा) के स्वामी के रूप में उनका स्वरूप या आकृति आदर्श है। गणपति या गणेश का विशाल मस्तक उनके बुद्धिमान होने का प्रतीक है। वैसे भी हाथी को सबसे अधिक बुद्धिमान प्राणी माना गया है। गणेश जी का हाथी के समान मस्तक इस बात का प्रतीक है कि प्रजा के नायक को बुद्धिमान होना चाहिए। उनके विशाल कान इस तथ्य के प्रतीक हैं कि गणनायक को प्रत्येक बात की सूचना प्राप्त करने की कुशलता होना चाहिये। गणेश का स्वरूप चतुर्भुज है। वे एक हाथ में त्रिशूल, दूसरे हाथ में मोदक, तीसरे हाथ में पुस्तक तथा चौथे हाथ में कमल का फूल धारण करते हैं। अब ये चार हाथ और उनमें धारण की गई वस्तुएं भी किसी गुणों का प्रतिनिधित्व करती हैं। त्रिशूल का अर्थ है कि वे रक्षक हैं मोदक का अर्थ है खाद्य साम्रगी, पुस्तक का अर्थ है ज्ञान तथा कमल पुष्प का अर्थ है कोमलता। इसका सीधा अर्थ यह है कि प्रजानायक या गुणनायक को रक्षक, खाद्य पदार्थों का दाता, ज्ञान देने वाला तथा कोमल हृदय का होना चाहिए।
उत्तर से लेकर दक्षिण तक तथा पूर्व से लेकर पश्चिम तक जिन गणेश जी की उपासना, आराधना एवं वंदना की जाती है तथा प्रत्येक शुभ एवं मंगल कार्य में सर्वप्रथम जिनकी पूजा की जाती है, उनकी उत्पत्ति, स्वरूप, गुण, धर्म एवं कर्म की अनेक गाथाएं भारतीय ग्रंथों में मिलती हैं। उन्हें शिव एवं पार्वती का पुत्र मानते हुए जहां कुछ विद्वान उन्हें द्रविड़ों का देवता मानते हैं, वहीं आर्यों के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में भी उनकी वंदना की गई है। गणेश जी को गुणों का स्वामी माना जाता है, इसलिए उन्हें बुद्धि का दाता कहा जाता है। उनकी पत्नियों के नाम भी बुद्धि और सिद्धि कहे गए हैं। महाभारत को लिपिबद्ध करने के बारे में एक कथा है कि वेद व्यास ने इसे बोला तथा भगवान गणेश ने लिपिबद्ध किया। तब महाभारत के श्लोकों को समझने में बुद्धि ने ही अपने पति गणेश जी की सहायता की थी। गणेश जी के दो पुत्र भी माने जाते हैं, शुभ और लाभ। गणेश सिर्फ हिन्दुओं के ही देवता नहीं हैं। जैन धर्म में भी उनकी वंदना की गई है। बौद्ध तांत्रिकों के भी वे आराध्य देव हैं। भारत के बाहर नेपाल, तिब्बत, जावा, बाली, चीन तथा जपान में भी उनकी पूजा होती रही है।
गणेश जी के नाम भी अनेक हैं। पुराणों में उनके अनेक नाम मिलते हैं। गणेश सहस्त्र नाम से यह सिद्ध होता है कि उनके एक हजार नाम हैं। उनके प्रसिद्ध नामों में गणपति, वक्रतुण्ड, महाकाय, एकदन्त, गणदेवता, गणेश्वर, विनायक आदि मुख्य हैं। उनके एकदंत और गजानन होने के संबंध में पुराणों में अनेक कथाएं हैं। एक दंत होने की कथा इस प्रकार है कि एक बार परशुराम शिवजी से मिलने गए। दरवाजे पर गणेश रक्षक के रूप में बैठे थे। गणेश ने परशुराम को प्रवेश करने से रोका इस पर दोनों में विवाद हुआ और बात लड़ाई तक पहुंच गई। इस लड़ाई में परशुराम ने फरसे से प्रहार किया, जिसमें गणेश का एक दांत टूट गया। इस कारण उन्हें एकदंत कहा जाता है।
गजानन के बारे में स्कन्ध पुराण की एक कथा के अनुसार एक समय पार्वती ने शनि को बुलाया कि वह गणेश को देखने आए। शनि आए तो किन्तु वे सिर नीचे करके बैठे रहे। पार्वती ने पूछा कि मेरे पुत्र को आप क्यों नहीं देख रहे हैं। शनि ने कहा कि यदि मैं इस बच्चे को देखूंगा तो इसका सिर नष्ट हो जाएगा। यह कहकर शनि ने गणेश को देखा और गणेश का सिर जलकर भस्म हो गया। इस पर ब्रह्मा ने कहा कि सबसे पहले जो प्राणी मिले उसका सिर काटकर गणेश के सिर के स्थान पर लगा दिया जाए। पार्वती को सबसे पहले हाथी मिला, जिसका सिर उन्होंने काट कर गणेश के सिर पर रख दिया। इस कारण ये गजानन कहलाए।
एक दूसरी कथा के अनुसार पार्वती एक बार स्नान करने के लिए गई और अपने घर के दरवाजे पर गणेश को रक्षक के रूप में बैठा गई। इसी बीच शिवजी आए और उन्होंने घर में प्रवेश करना चाहा। गणेश ने उन्हें प्रवेश करने से रोका। इस पर क्रोध में आकर शिवजी ने गणेश जी का सिर काट दिया। जब पार्वती को पता लगा। तब शिवजी ने हाथी का सिर काटकर गणेश के सिर के स्थान पर जोड़़ दिया।
उनकी सर्वप्रथम पूजा होने के संबंध में भी कथाएं मिलती हैं। इस बारे में प्रचलित एक कथा यह है कि एक बार देवताओं में यह विवाद हुआ कि सर्वप्रथम किस देवता की पूजा हो। विवाद बढ़ा तो निर्णय भगवान शिव को सौंप दिया गया। भगवान शिव ने कहा कि जो देवता सबसे पहले तीनों लोकों की परिक्रमा कर लेगा, उसकी पूजा सबसे पहले होगी। सब देवता अपने-अपने वाहनों से तीनों लोकों की परिक्रमा के लिए रवाना हो गए। पर गणेशजी ने भगवान शिव की ही परिक्रमा कर डाली। भगवान शिव ने जब उनसे पूछा तो उन्होंने कहा कि तीनों लोक आप में ही हैं। आप की परिक्रमा का ही अर्थ है तीनों लोकों की परिक्रमा। इस उत्तर से भगवान शिव इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने गणेश जी की पूजा सर्वप्रथम करने का निर्णय दे दिया। यह कथा कुछ और स्वरूपों में भी प्रचलित है। पर निष्कर्ष यही है कि सर्वप्रथम पूजा गणेशजी की ही होती है। हर मंगल कार्य का शुभारंभ गणेश जी की पूजा से ही होता है। यात्रा का आरंभ गणेश जी का नाम लेकर किया जाता है। खाता-बहियों की शुरुआत भी श्री गणेशाय नम: से होती है और आज तो किसी काम को प्रारंभ करने को ही श्री गणेश करना कहा जाता है। ऋग्वेद के मंत्र गणनां त्वा गणपति ऊं हवामहे तथा यजुर्वेद के मंत्र नमो गणेम्यो गणपतिम्यदा वो नमो नम: से जिन गणेश औैर गणपति की वंदना और आराधना शुरू हुई थी वह आज भी जारी है। बीसवीं शताब्दी में तो भगवान गणेश ने राष्ट्रीय चेतना की भावना का श्री गणेश किया था। गणेशोत्सवों ने इस देश में राष्ट्रीय चेतना की जो ज्वाला प्रज्ज्वलित की थी, वह हमारे स्वतंत्रता आंदोलन की आधारशिला बन गई थी। ऋग्वेद से लेकर आज तक भगवान गणेश अनेक गुणों को लेकर अवतरित हुए और उनकी अनंत कथाएं भी प्रचलित रहीं।
गणेशजी इतने गुणों के स्वामी हैं कि उनके इन गुणों एवं स्वरूप के आधार पर ही उनके एक हजार नाम प्रचलित हैं। पर मुख्य रूप से उनके द्वादश नाम प्रचलित हैं, जिनके नियमित पाठ से मनुष्य के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं तथा सभी मनोरथों की सिद्धि होती है। इस संबंध में यह मंत्र प्रचलित है-
ओम सुमुख श्चैक दंतश्च कपिलौ गजकर्णक:
लम्बोदरश्च विकटो विध्ननाशो विनायक:
धूम्र केतू गणध्ययक्षो भाल चंद्रो गजानन:
द्वादशैतानि नामानि य पठच्धुणु यदापि।
गणेश जी की उपासना एवं आराधना इतनी प्राचीन है कि उनके अनेक अवतारों के वर्णन भी धर्मग्रथों में मिलते हैं। उनके जो मुख्य अवतार हुए हैं वे है- वक्रतुण्डावतार, एकदंतावतार, महोदरावतार, गजाननावतार, लम्बोदरावतार, विकटावतार, विघ्नराजावतार में मत्सरासुर से एकदंतावतार में मदासुर से, महोदरावतार में मोहासुर से, गजाननावतार में लोभासुर से, लम्बोदरातार में क्रोधासुर से विकटावतार में कामासुर से, विघ्नराजावतार में ममतासुर से, धूम्रवर्णवतार में अभिमानानुसार से देवताओं और मानव जाति को मुक्ति दिलाई। इन अवतारों की कथा से एक और तथ्य स्पष्ट होता है कि भगवान गणेश गुणों के देवता ही नहीं है, अपितु अवगुणों से विशेषकर मद, मोह, लोभ, क्रोध, काम, माया एïवं अभिमान से भी मुक्ति दिलाते हैं।
इसी दिन सारे देश में ग्यारह दिवसीय गणेशोत्सव मनाने का क्रम प्रारंभ हो जाता है, पर गणेश जी की उपासना एवं आराधना वर्ष भर ही चलती रहती है। हर मंगल कार्य में यहां तक कि दैनिक उपासना एवं आराधना में गणेश जी को सर्वप्रथम स्मरण किया जाता है। माह में दो बार आने वाली चतुर्थी को भी गणेश जी की उपासना की जाती है। इन चतुर्थी में से कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को संकट नाशक चतुर्थी तथा शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को विनायक चतुर्थी कहा जाता है। इन चतुर्थी पर हजारों भारतवासी गणेश जी की आराधना एवं उपासना करते हैं तथा उपवास रखते हैं। संकट नाशक चतुर्थी को गणेश जी की आराधना करने एवं उपवास करने से हर प्रकार के संकटों का नाश हो जाता हैं।