बेंगलुरु, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने कहा कि पांच साल की एक बच्ची के दुष्कर्म और हत्या मामले की सुनवाई पिछले सात साल से लंबित रहने के कारण पूरी फौजदारी न्याय प्रणाली शर्मसार हुई है।
यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम, 2012 के तहत यह अनिवार्य है कि जहां तक संभव हो इस अधिनियम में दर्ज मुकदमे की सुनवाई एक साल में पूरी कर ली जाए। उच्च न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामलों में देरी, जहां अपराध जघन्य है और तथ्य ‘भयावह’ हैं, कानूनी और न्यायिक प्रणाली की दुखद स्थिति को प्रतिबिंबत करती है।
अदालत ने रेखांकित किया कि पॉक्सो अधिनियम की धारा 35 (2) एक वर्ष के भीतर मामले की सुनवाई पूरी करने की बात करती है, लेकिन संबंधित सुनवाई अदालत में कई मामले लंबित हैं। न्यायमूर्ति एम नागप्रसन्ना ने उक्त टिप्पणियां यह कहते हुए कीं कि 2017 में ही दो आरोपियों के खिलाफ आपराधिक मामले में संज्ञान लिया गया था, लेकिन उन्हें अभी तक न्याय के कटघरे में नहीं लाया गया है।
मामले के आरोपियों में से एक चंदना ने इस आधार पर जिरह के लिए नौ गवाहों को दोबारा बुलाने के लिए उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी कि सुनवाई अदालत ने उसकी अर्जी को खारिज कर दिया, जबकि आरोपी के वकील ने खराब स्वास्थ्य का हवाला देकर जिरह नहीं की थी।
उच्च न्यायालय ने उपरोक्त तथ्य पर संज्ञान लेते हुए नौ गवाहों को दोबारा बुलाने की अनुमति दे दी, क्योंकि आरोपी ने उनसे दोबारा जिरह के अधिकार का लाभ नहीं लिया था। अदालत ने साथ ही शर्त लगाई कि इन गवाहों से जिरह नौ दिन के भीतर पूरी होनी चाहिए और मुकदमे की सुनवाई जिरह पूरी होने की तारीख से तीन महीने के भीतर पूरी हो जानी चाहिए।