-देवेन्द्र ब्रह्मचारी –
दिगम्बर जैन समाज का सबसे अहम आत्म शुद्धि का महापर्व दशलक्षण पर्व इस वर्ष भादो सुदी पंचमी 8 सितम्बर से प्रारंभ होकर अनंत चतुर्दशी 17 सितम्बर तक मनाया जा रहा है। उत्तम क्षमा से प्रारम्भ होकर क्षमावाणी पर्व पर यह संपन्न होगा, दस दिनों तक क्रमशः दस धर्मों की आराधना की जाती है। पूरे विश्व के दिगम्बर जैन धर्म के अनुयायी इस पर्व को बड़े ही उत्साह व आत्मीयता से मनाते है। दशलक्षण पर्व के दिनों में क्रमशः उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन तथा उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म की आराधना की जाती है। ये सभी आत्मा के धर्म हैं, क्योंकि इनका सीधा सम्बन्ध आत्मा के कोमल परिणामों से हैं।
इस पर्व का एक वैशिष्ट्य है कि इसका संबंध किसी व्यक्ति विशेष से न होकर आत्मा के गुणों से है। इस प्रकार यह गुणों की आराधना का पर्व है। इन गुणों से एक भी गुण की परिपूर्ण हो जाये तो मोक्ष तत्व की उपलब्धि होने में किंचित भी संदेह नहीं रह जाता है। मानव इन दस धर्म को अपने जीवन मे अपनाकर अपने जीवन का धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक एवं व्यक्तिगत रूप से उन्नयन कर सकता है, इन दिनों मे सभी दिगम्बर जैन मंदिरों मे प्रातः से ही भक्तों का अम्बार लग जाता है।
उत्तम क्षमा से प्रारम्भ होने वाला यह पर्व अश्विन कृष्ण एकम को क्षमावाणी पर्व पर सम्पन्न होता है, क्षमावाणी दिवस पर सबसे अपने भूलों की क्षमा याचना की जाती है। इस दिन श्रावक (गृहस्थ) और साधु दोनों ही वार्षिक प्रतिक्रमण करते हैं। पूरे वर्ष में उन्होंने जाने या अनजाने यदि संपूर्ण ब्रह्मांड के किसी भी सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव के प्रति यदि कोई भी अपराध किया हो, तो उसके लिए वह उनसे क्षमा याचना करता है। अपने दोषों की निंदा करता है और कहता है- मेरे सभी दुष्कृत्य मिथ्या हो जाएं। क्षमावाणी पर्व पर हर मंदिरों मे क्षमावाणी अभिषेक के पश्चात् क्षमावाणी पर्व मनाया जाता है, इसके माध्यम से एक दूसरे के हृदय की मलीनता दूर की जाती है। क्षमा आत्मा का स्वभाव है। क्षमा पृथ्वी का नाम है। जिस प्रकार पृथ्वी तरह-तरह के बोझ को सहन करती है, इसी प्रकार चाहे कैसी भी विषम परिस्थिति आए, उसमें भी अपने मन को स्थिर रखना, अपने भीतर क्रोध रूप परिणत न करना क्षमा है। उत्तम क्षमा के धारक पुरूष को मात्र अपने आत्मा की शुद्धि ही साध्य है। क्षमा ब्रह्म है, क्षमा सत्य है, क्षमा तप हैै, क्षमा पवित्रता है, क्षमा ने ही सम्पूर्ण जगत को धारण कर रखा है।
क्षमा को धारण करने वाले इंसान ऋजु होते हैं, उनके कर्म संस्कार क्षय होते हैं जबकि जो कुटिल होते हैं, उनके कर्म संस्कार संचित रहते हैं। हंस और बगुला लगभग एक से लगते हैं, किंतु उन दोनों के स्वभाव में बडा अंतर होता है। यही कारण है कि हंस से लोग प्रेम करते हैं और बगुले से द्वेष करते हैं। जिस प्रकार बीज बोने के लिए जमीन पर हल, चलाकर उसे अच्छी तरह जोतकर तथा कूड़ा-करकट से रहित कर साफ किया जाता है उसी प्रकार क्षमा रूपी बीज का वपन करके मन रूपी भूमि को मांजा जाता है एवं आत्मा की निर्मलता के द्वारा उत्तम चरित्र रूपी फल की उपलब्धि सुनिश्चित की जाती है। दुनिया में आज जितने भी अनर्थ और पापकर्म होते हैं, चाहे हिंसा के रूप में हो, आतंक के रूप में हो, शोषण के रूप में हो वे सब क्षमा के अभाव में ही होते हैं। जो परस्त्री और परपदार्थों के प्रति निःस्पृह है, समस्त प्राणियों के प्रति जिसका चित्त अहिंसक है और जिसने दुर्भेद्य अंतरंग मन को धो लिया है ऐसा पवित्र हृदय ही क्षमा धर्म की पात्रता को धारण कर सकता है। यदि कोई व्यक्ति इस पवित्र एवं पावन दिवस पर भी दिल में उलझी गांठ को नहीं खोलता है, तो वह अपने सम्यग्दर्शन की विशुद्धि में प्रश्न चिन्ह खड़ा कर लेता है। क्षमायाचना करना, मात्र वाचिक जाल बिछाना नहीं है। परंतु क्षमायाचना करना अपने अंतर को प्रसन्नता से भरना है। बिछुड़े हुए दिलों को मिलाना है, मैत्री एवं करुणा की स्रोतस्विनी बहाना है। गलती करना मानवोचित्त है, लेकिन क्षमा करना देवतोचित्त है।
मैत्री पर्व का दर्शन बहुत गहरा है। मैत्री तक पहुंचने के लिए क्षमायाचना की तैयारी जरूरी है। क्षमा लेना और क्षमा देना मन परिष्कार की स्वस्थ परम्परा है। क्षमा मांगने वाला अपनी कृत भूलों को स्वीकृति देता है और भविष्य में पुनः न दुहराने का संकल्प लेता है जबकि क्षमा देने वाला आग्रह मुक्त होकर अपने ऊपर हुए आघात या हमलों को बिना किसी पूर्वाग्रह या निमित्तों को सह लेता है। क्षमा ऐसा विलक्षण आधार है जो किसी को मिटाता नहीं, सुधरने का मौका देता है। भगवान महावीर ने कहा-‘अहो ते खंति उत्तमा’-क्षांति उत्तम धर्म है। ‘तितिक्खं परमं नच्चा’-तितिक्षा ही जीवन का परम तत्व है, यह जानकर क्षमाशील बनो। तथागत बुद्ध ने कहा-क्षमा ही परमशक्ति है। क्षमा ही परम तप है। क्षमा धर्म का मूल है। क्षमा के समकक्ष दूसरा कोई भी तत्व हितकर नहीं है। क्योंकि प्रेम, करुणा और मैत्री के फूल सहिष्णुता और क्षमा की धरती पर ही खिलते हैं। ‘सबके साथ मैत्री करो’ यह कथन बहुत महत्त्वपूर्ण है किंतु हम वर्तमान संबंधों को बहुत सीमित बना लेते हैं।
भारत की संस्कृति में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ समूची वसुधा कुटुम्ब है, सारा विश्व एक परिवार है, का उद्घोष हुआ। यह महावीर की अहिंसा एवं बुद्ध की करुणा से प्रेरित उद्घोष है, जो विश्व मैत्री को बल देता है। ‘मित्ती में सव्व भूएसु वेरं मज्झ न केणई’- यह सार्वभौम अहिंसा एवं सौहार्द का ऐसा संकल्प है जहां वैर की परम्परा का अंत होता है। क्षमा वाणी के दिन सभी से शत्रुता, नफरत एवं द्वेष को मिटा कर गले लगाने का दिन है। यह दिलों को जोड़ने का पर्व है, यह आत्मा को निर्मल बनाने का पर्व है। दस दिनों की कठोर साधना एवं क्षमावाणी का घोष मानवीय संवेदनाओं को जागृत करने की एक विलक्षण साधना है। क्षमा देने एवं क्षमा लेने की यह विलक्षण साधना तनावमुक्ति का विशिष्ट प्रयोग है जिससे शरीर को आराम मिलता है, अपने आपको, अपने भीतर को, अपने सपनों को, अपनी आकांक्षाओं तथा उन प्राथमिकताओं को जानने का यह अचूक तरीका है, जो घटना-बहुल जीवन की दिनचर्या में दब कर रह गयी है। इस दौरान परिवर्तन के लिये कुछ समय देकर हम अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकते हैं तथा साथ ही इससे अपनी आंतरिक प्रकृति को समझ सकते हैं, उसे उन्नत एवं समृद्ध बना सकते हैं।
भगवान महावीर ने क्षमा यानि समता का जीवन जीया। वे चाहे कैसी भी परिस्थिति आई हो, सभी परिस्थितियों में सम रहे। ‘‘क्षमा वीरो का भूषण है’’-महान् व्यक्ति ही क्षमा ले व दे सकते हैं। दशलक्षण पर्व क्षमा के आदान-प्रदान का पर्व है, जिसमें सभी अपनी मन की उलझी हुई ग्रंथियों को सुलझाते हैं, अपने भीतर की राग-द्वेष की गांठों को खोलते हैं वह एक दूसरे से गले मिलते हैं। पूर्व में हुई भूलों को क्षमा के द्वारा समाप्त करते हैं व जीवन को पवित्र बनाते हैं। इस तरह से दशलक्षण महापर्व एवं क्षमापना दिवस- यह एक दूसरे को निकटता में लाने का पर्व है। यह एक दूसरे को अपने ही समान समझने का पर्व है। गीता में भी कहा है -‘आत्मौपम्येन सर्वत्रः, समे पश्यति योर्जुन’’-श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा-हे अर्जुन ! प्राणीमात्र को अपने तुल्य समझो। भगवान महावीर ने कहा-‘‘मित्ती में सव्व भूएसु, वेरंमज्झण केणइ’’सभी प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है, किसी के साथ वैर नहीं है। मानवीय एकता, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, मैत्री, शोषणविहीन सामाजिकता, नैतिक मूल्यों की स्थापना, अहिंसक जीवन, आत्मा की उपासना शैली का समर्थन आदि तत्त्व इस पर्व के मुख्य आधार हैं। ये तत्त्व जन-जन के जीवन का अंग बन सके, इस दृष्टि से इस महापर्व को जन-जन का पर्व बनाने के प्रयासों की अपेक्षा है। क्षमावाणी का पर्व विभिन्न देशों के बीच चल रहे युद्ध को विराम देने का आह्वान है क्योंकि अहिंसा और मैत्री के द्वारा ही शांति मिल सकती है। युद्धरत देशों के लिये क्षमा पर्व एक प्रेरणा है, पाथेय है, मार्गदर्शन है और अहिंसक-सौहार्द-शांतिमय जीवन शैली का प्रयोग है।
(प्रख्यात जैन संत देवेन्द्र ब्रह्मचारी जन आरोग्यम फाउण्डेशन के संस्थापक है।)