शिक्षा, शिक्षक और शिक्षण का उत्तरदायित्व

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प्राचीन भारतीय शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास था। प्राचीन भारतीय शिक्षा ने अपने देश में ही नहीं, समूचे विश्व में ऐसा उच्चकोटि का आदर्श स्थापित किया, जिससे न केवल व्यक्ति का व्यक्तित्व समुन्नत हुआ, अपितु सम्पूर्ण देश और समाज का नाम ऊंचा हुआ। शिक्षकों द्वारा दिए गए ज्ञानार्जन के माध्यम से छात्र आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर कर्तव्यों का पालन करते हुए मोक्ष प्राप्ति करता था। भारतीय शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक के छह रूप बताए गए हैं। अध्यापक उसे कहा गया जो कि अपने छात्रों को सूचना प्रदायक शिक्षा से रूबरू करवाता था, उपाध्याय उसे कहा गया जो सूचना-ज्ञानप्रदायक पद्धति को अपनी शिक्षण प्रक्रिया में शामिल करता था। आचार्य का काम ज्ञानयुक्त कौशल-प्रदायक पद्धति को अपनाना था तो पंडित की पद्धति अंतर्दृष्टि प्रदायक थी। इसी तरह दृष्टा उसे कहा जाता था जो आलोचनात्मक चिंतन-प्रदायक पद्धति को अपनाता था तो गुरू की शिक्षण पद्धति प्रबोधन-प्रदायक थी। जिस तरह प्राचीन शिक्षण पद्धति में शिक्षण के रूप दिखते हैं उसी तरह आज भी सभी शिक्षकों की पढ़ाने की अपनी अलग-अलग शैली है,और ऐसा होना भी चाहिए।
आज शिक्षक और शिक्षण प्रक्रिया दोनों में बदलाव दिखाई दे रहा है, इस बदलाव के कई कारणों में से प्रमुख कारण बाजारवाद और यंत्रों की प्रमुखता है। कोरोना काल में ऑफलाइन शिक्षा के मुकाबले ऑनलाइन शिक्षा पर बहुत जोर दिया गया, पर सोचने की बात यह है कि क्या ऑनलाइन शिक्षा से अपने छात्रों का सर्वांगीण विकास एक शिक्षक कर पाएगा। इसे एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है। गुरू द्रोणाचार्य के दो प्रमुख शिष्य माने गए हैं एक अर्जुन और दूसरा एकलव्य। अर्जुन ने जहां गुरु द्रोणाचार्य के साथ रहकर शिक्षा प्राप्त की तो एकलव्य ने द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर, लेकिन धनुर्विद्या के ज्ञान के साथ साथ जो व्यावहारिक ज्ञान अर्जुन को मिला वैसा व्यावहारिक ज्ञान एकलव्य को नहीं मिल पाया।कुछ ऐसा ही आज की ऑनलाइन शिक्षा पद्धति में भी दिखाई दे रहा है। स्कूल और कॉलेज के छात्रों में जो जीवन जीने की व्यावहारिकता होनी चाहिए वह निरंतर कम होती जा रही है। ऐसे में शिक्षकों के उपर अपने छात्रों के प्रति ज्यादा जिम्मेदारी हो गई है। आज एक शिक्षक को अपने छात्रों में न केवल बौद्धिक, शारीरिक, नैतिक और मनोवैज्ञानिक विकास करना है अपितु छात्रों के मनोबल को बढ़ाते हुए सामाजिक, चारित्रिक एवं सांवेगिक विकास के साथ-साथ संवेदनशीलता का ज्ञान भी देना है।
ऑनलाइन शिक्षण पद्धति में शिक्षकों द्वारा छात्रों को किताबी शिक्षा तो मिल रही है परंतु समय की अपनी मजबूरी के कारण शिक्षक चाह कर भी शारीरिक शिक्षा,जीवन की व्यावहारिक शिक्षा दे पाने में असफल है।कोरोना के इस समय ने यदि पूरे समाज के समक्ष चुनौती उत्पन्न की है तो शिक्षक व विद्यार्थी इससे अछूते कैसे रह सकते हैं??इसका व्यापक प्रभाव इनके ऊपर भी है।शिक्षक का कार्य महज़ किताबी ज्ञान देना भर नहीं है अपितु एक अच्छा शिक्षक सही मायने में सर्वांगीण विकास की बात करता है और अपने शिष्यों में हर प्रकार की शिक्षा के माध्यम से उसका चहुँमुखी विकास करता है।परंतु वर्तमान समय में यह एक चुनौती भरा कार्य है।इसमें एक अन्य चुनौती यह है कि ऑनलाइन शिक्षा के लिए सबके पास उस तरह के उपकरण यथा मोबाइल,टैब या लैपटॉप की उपलब्धता होनी चाहिए परंतु जिस देश में अभी ग़रीबी की स्थिति भुखमरी तक है वहाँ सबके पास ऐसी अपेक्षा करना बेमानी होगी।यह एक बड़ा कारण है कि ऑनलाइन शिक्षण तक सबकी पहुँच संभव नहीं हो पा रही है।यदि यह सब स्थिति जल्द से जल्द सामान्य न हुईं तो देश के एक आम विद्यार्थी को इसकी क़ीमत चुकानी पड़ेगी।बहुत लम्बे समय से विद्यार्थियों की शिक्षण संस्थानों से दूरी उनका अहित करेगी।ऑनलाइन शिक्षण पद्धति मजबूरी की शिक्षण पद्धति का ही नाम है,वह कभी भी कक्षा में प्रदान की जाने वाली अनुभवजन्य शिक्षा का विकल्प नहीं बन सकती।इस शिक्षण पद्धति से शिक्षक और विद्यार्थी के मध्य बनने वाले आत्मिक सम्बन्धों में भी कमी आई है।इसलिए हमें अपने स्तर पर प्रयासों के माध्यम से जल्द से जल्द कक्षा में प्रदान की जाने वाली शिक्षा की ओर लौटना होगा।
संस्कृत का एक बेहद लोकप्रिय श्लोक है जिसमें शिक्षक के सात गुण बताए गए हैं।वह श्लोक है:
“विद्वत्वं, दक्षता, शीलं संकांतिरनुशीलनम।
शिक्षकस्य गुणा: सप्त सचेतस्त्वं प्रसन्नता।।”
जिसका अर्थ है विद्वत्व,दक्षता, शील, संक्रांति, अनुशीलन,सचेतत्व और प्रसन्नता, ये सभी शिक्षक का गुण है। हम सभी शिक्षकों को इस दोहे के अर्थ को समझकर अपने छात्रों के बीच जाना चाहिए।एक शिक्षक सहृदय होता है और सदैव वह अपने विद्यार्थियों का कल्याण सोचता है।कोरोना के इस दौर में देश के तमाम शिक्षकों ने ऑनलाइन जो भी संभव हो सका अपनी ओर से देने का प्रयास किया।परंतु इस दौर में शिक्षकों की ज़िम्मेदारी साथ ही साथ जवाबदेही भी बढ़ गयी।इस मुश्किल दौर में एक शिक्षक का दायित्व कम न होकर अपितु बढ़ गया है।सब कुछ के साथ उसे अपने विद्यार्थियों को समय के साथ आगे ले जाने की ज़िम्मेदारी कम नहीं होती है और सबसे अच्छी बात यह रही कि वे लोग इस कार्य को पूरी शिद्दत से करते हुए दिखाई दिए।शिक्षकों की पुरानी पीढ़ी जो तकनीकी उपकरणों के साथ अधिक सक्षम नहीं है,ऐसे शिक्षकों ने भी अपनी ओर से हरसंभव कोशिश कर अपने छात्रों को पिछड़ने नहीं दिया।इसलिए भी वे सराहना के पात्र हैं।नए पीढ़ी के शिक्षकों ने तो यह कार्य आसानी से कर किया। पर इतना होने के बावजूद बाजारवाद के इस दौर में शिष्य और गुरु के बीच पैसा महत्वपूर्ण हो गया है। पैसा इतना महत्त्वपूर्ण हो गया है कि शिक्षा अब उसी को मिल पा रहा है जिसके पास पैसा है।इसके उदाहरण निजी संस्थान और कोचिंग संस्थान है। संस्कृत के एक श्लोक को पूंजीवाद शिक्षकों पर भी उतारने की कोशिश में है।
बहवो गुरवो लोके शिष्य वित्तपहारका:।
क्वचितु तत्र दृश्यंते शिष्यचित्तापहारका:।।
आजकल अनेक गुरु शिष्य का वित्त हरण करनेवाले हो गए हैं पर शिष्य का चित्त हरण करने वाले गुरु शायद ही दिखाई देते हैं। जब तक हम अपने छात्रों का चित्त नहीं हर पाएंगे तब तक आज का दिन अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाएगा, और हर साल हम शिक्षक दिवस मनाने का यत्न भर करेंगे।
डॉ. आलोक रंजन पांडेय
एसोसिएट प्रोफेसर, रामानुजन कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय