वैदिक मतानुसार परमात्मा के असंख्य नामों में से एक नाम विश्वकर्मा भी है। विश्वकर्मा (विश्वकर्म्मा) शब्द से ईश्वर,सूर्य, वायु, अग्नि का ग्रहण होता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में कहा है कि विश प्रवेशने- इस धातु से विश्व शब्द सिद्ध होता है। विशन्ति प्रविष्टानि सर्वाण्याकाशादीनि भूतानि यस्मिन्। यो वाऽऽकाशादिषु सर्वेषु भूतेषु प्रविष्टः स विश्व ईश्वरः। जिसमें आकाशादि सब भूत प्रवेश कर रहे हैं अथवा जो इनमें व्याप्त होके प्रविष्ट हो रहा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम विश्व है। यास्काचार्य ने निरुक्त 10/25 में विश्वकर्मा शब्द का यौगिक अर्थ – विश्वकर्मा सर्वस्य कर्ता तस्यैषा भवति, किया है। वेदों में विश्वकर्मा शब्द का उल्लेख अनेक स्थानों पर हुआ है। चारों वेदों में विश्वकर्मा शब्द इकहतर बार प्रमुखता से प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वेद के दशम मंडल (81-82) में इनकी स्तुति ईश्वर के रुप में की गई है। ऋग्वेद में विश्वकर्मा सूक्त के नाम से 11 ऋचाएं हैं। जिनके प्रत्येक मंत्र पर ऋषि विश्वकर्मा भौवन देवता आदि लिखा है। यही सूक्त यजुर्वेद अध्याय 17, सूक्त मन्त्र 16 से 31 तक 16 मंत्रों में आया है। ऋग्वेद में विश्वकर्मा शब्द एक बार इन्द्र व सूर्य के विशेषण के रूप में भी प्रयुक्त हुआ है। अन्य वेदों में भी प्रजापति आदि विशेषण के रूप में विश्वकर्मा शब्द का प्रयोग हुआ है। पूर्ण परमात्मा ने इस संसार को बनाया है। इसीलिए प्रजापति विश्वकर्मा विसुचित-कहा गया है। विश्वकर्मा नाम को परमब्रह्म परमात्मा या ईश्वर का ही एक रुप मानते हुए कहा गया है- विश्वानि कर्माणि येन यस्य वा स विश्वकर्मा। अथवा विश्वेषु कर्म यस्य वा स विश्वकर्मा।
अर्थात- जगत के सम्पूर्ण कर्म जिसके द्वारा सम्पन्न होते हैं अथवा सम्पूर्ण जगत में जिसका कर्म है वह सब जगत का कर्ता परमपिता परमेश्वर विश्वकर्मा है। अर्थात जिसकी सम्यक सृष्टि और कर्म व्यापार है, वह विश्वकर्मा है। यही विश्वकर्मा प्रभु है, प्रभूत पराक्रम-प्रतिपत्र, विश्वरुप विश्वात्मा है। वेदों में विश्वतः चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वस्पात कहकर इनकी सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता, शक्ति सम्पन्ता और अनन्तता से परिचित कराया गया है। लेकिन महाभारत के खिल भाग सहित अनेक पुराणों में प्रभात पुत्र विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा कहा गया है। पौराणिक ग्रंथों में विश्वकर्मा के पाँच स्वरूपों और अवतारों -सृष्टि के रचयिता- विराट विश्वकर्मा, महान् शिल्प विज्ञान विधाता और प्रभात पुत्र- धर्मवंशी विश्वकर्मा, आदि विज्ञान विधाता वसु पुत्र -अंगिरावंशी विश्वकर्मा, महान् शिल्पाचार्य विज्ञान जन्मदाता अथवी ऋषि के पौत्र- सुधन्वा विश्वकर्म, और शुक्राचार्य के पौत्र- उत्कृष्ट शिल्प विज्ञानाचार्य भृंगुवंशी विश्वकर्मा का वर्णन प्राप्य हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्राचीन काल में कई विश्वकर्मा हुए हैं और आगे चलकर विश्वकर्मा के गुणों को धारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुष को विश्वकर्मा की उपाधि से अलंकृत किया जाने लगा। लेकिन प्रचलित ऐतिहासिक महापुरुष शिल्पशास्त्र के ज्ञाता विश्वकर्मा एवं वेदों के विश्वकर्मा भिन्न हैं। विश्वकर्मा शब्द के यथार्थ अर्थ के आधार पर विविध कला कौशल के आविष्कारक यद्यपि अनेक विश्वकर्मा सिद्ध हो सकते हैं। तथापि सर्वाधार सर्वकर्ता परमपिता परमात्मा ही सर्व प्रथम विश्वकर्मा है। ऐतरेय ब्राह्मणग्रन्थ के मतानुसार प्रजापतिः प्रजाः सृष्ट्वा विश्वकर्माऽभवत्।
प्रजापति (परमेश्वर) प्रजा को उत्पन्न करने से सर्वप्रथम विश्वकर्मा है।
वेद में सृष्टि का मुख्य निर्माण कारण परमात्मा को ही बताया गया है। वही सब सृष्टि को प्रकृति के उपादान कारण से बनाता है, जीवात्मा नहीं। इस कारण सर्वप्रथम विश्वकर्मा परमेश्वर है। जिस प्रकार रचनाकार के बिना सुन्दर रचनाएं नहीं हो सकती। सोने से अपने आप आभूषण नहीं बन सकता। उसी प्रकार प्रकृति से अपने आप सृष्टि नहीं बन सकती। सृष्टि को रचने वाला कोई न कोई तो होना ही चाहिए। और वह महान ईश्वर ही सृष्टि का सृष्टि कर्त्ता है। ईश्वर महान रचनाकार, विशिष्ट शिल्पी है। वही विश्वकर्मा है। परमेश्वर ने जगत को बनाने की सामग्री प्रकृति से सृष्टि की रचना की है। इसलिए वही उपासनीय है। तथा जो शिल्पविद्या के विद्वान विश्वकर्मा हुए हैं, उनमें ऋषि प्रभास के पुत्र -आदि विश्वकर्मा, ऋषि भुवन के पुत्र विश्वकर्मा, ऋषि त्वष्टा के पुत्र विश्वकर्मा आदि अनेक विश्वकर्माओं को वर्तमान के शिल्प विद्या से सम्बंधित विश्वकर्मा समाज माना जाता है।
उल्लेखनीय है कि वेद शिल्प विद्या अर्थात श्रम विद्या का अत्यंत गौरव गान करते हुए प्रत्येक मनुष्य के लिए निरंतर पुरुषार्थ करने का उपदेश देते हैं। वेदों में निठल्लापन को पाप माना गया है। यही कारण है कि यजुर्वेद 40/2 में कर्म करते हुए ही सौ वर्ष तक जीने की आज्ञा दी गई है। भारतीय परंपरा में मनुष्य जीवन के प्रत्येक पड़ाव को आश्रम की संज्ञा दी गई है- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। प्रत्येक आश्रम में मनुष्य को शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करने का उपदेश दिया गया है। वैदिक वर्ण व्यवस्था भी कर्म और श्रम पर ही आधारित व्यवस्था है। आज-कल जिन श्रम आधारित व्यवसायों को छोटा समझा जाता है, उन्हें प्राचीन भारत में अत्यंत महत्व प्राप्त था। और इन कर्मों को करने वालों को शिल्पी विश्वकर्मा कहा जाता था। वेद में कृषि को उच्च स्थान व अत्यंत महत्व प्रदान करते हुए स्वयं राजा को इसकी शुरुआत करने का आदेश दिया गया है। ऋग्वेद 1/117/21, 8/22/6 में कहा गया है कि राजा और मंत्री दोनों मिल कर, बीज बोयें और समय- समय पर खेती कर प्रशंसा पाते हुए, आर्यों का आदर्श बनें। ऋग्वेद 4/57/4 के अनुसार राजा हल पकड़ कर, मौसम आते ही खेती की शुरुआत करें और दूध देने वाली स्वस्थ गायों के लिए भी प्रबंध करें। आदि सृष्टि काल से त्रेतायुग तक लगभग यही व्यवस्था चलने की पुष्टि वाल्मीकि रामायण 1/66/4 में अंकित राजा जनक द्वारा हल चलाते समय सीता की प्राप्ति से संबंधित विवरणी से भी होती है। इससे इस बात की पुष्टि भी होती है कि राजा-महाराजा भी वेदाज्ञा का पालन करते हुए स्वयं कृषि कर्म किया करते थे। ऋग्वेद 10/104/4 और 10/101/3 में परमात्मा विद्वानों से भी हल चलाने के लिए कहते हैं। महाभारत आदिपर्व में ऋषि धौम्य अपने शिष्य आरुणि को खेत का पानी बंधने के लिए भेजते हैं अर्थात ऋषि लोग भी खेती के कार्यों में संलग्न हुआ करते थे। ऋग्वेद का सम्पूर्ण 4/57 सूक्त ही सभी के लिए कृषि की महिमा से संबंधित है। ऋग्वेद 10/26 के अनुसार सभी के हित के लिए ऋषि यज्ञ करते हैं, परिवहन की विद्या जानते हैं, भेड़ों के पालन से ऊन प्राप्त कर वस्त्र बुनते हैं और उन्हें साफ़ भी करते हैं। शिल्पकार, कारीगर, मिस्त्री, बढई,लुहार, स्वर्णकार इत्यादि को वेद में तक्क्षा की संज्ञा दी गई है। वाहन, कपडे, बर्तन, किले, अस्त्र, खिलौने, घड़ा, कुआँ, इमारतें और नगर इत्यादि बनाने वालों का महत्त्व ऋग्वेद में अंकित है। भारतीय संस्कृति में रचनाकार ईश्वर विश्वकर्मा और विश्वकर्मा का कार्य उसकी संतान को याद करने, उनका धन्यवाद करने और विश्वकर्मा ज्ञान की वृद्धि की चर्चा करने के उद्देश्य से प्रत्येक वर्ष 17 सितम्बर को शिल्प संकायों, कारखानों, उद्योगों में श्रम दिवस के रूप में मनाए जाने की परिपाटी है। भगवान विश्वकर्मा की महता को प्रकट करने के लिए मनाई जाने वाली इस पर्व को विश्वकर्मा पूजा के नाम से जाना जाता है। यह उत्पादन-वृद्धि और राष्टीय समृद्धि के लिए एक संकल्प दिवस है। इस तिथि को कन्या संक्रांति होती है। इस वर्ष भी 17 सितम्बर भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी को कन्या संक्रांति के रवि दि. 11/9 पर है। लेकिन यह भी सत्य है कि भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा कन्या की संक्राति अर्थात 17 सितम्बर के साथ ही कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा (गोवर्धन पूजा), भाद्रपद पंचमी (अंगिरा जयंती) मई दिवस आदि भी विश्वकर्मा पूजा महोत्सव पर्व है। इन पर्वो पर भगवान विश्वकर्मा की पूजा-अर्चना की जाती है।