बचपन के दिन तो पंख लगाकर कब चुटकियों में उड़ गये पता ही नहीं चलता, मगर किशोर वय शुरू होते ही हमें पैरों के धरातल की कठोरता का अहसास शुरू हो जाता है। यही वह समय है, जब हम रूमानी कल्पनाओं के संसार से निकलकर जीवन की सच्चाई से रूबरू होते हैं।
यह वह नाजुक समय है, जब हमें स्वयं ही अपने भविष्य के प्रति ठोस निर्णय लेकर तदानुसार ही आचरण करना होता है। बेशक हमारे माता-पिता हमारे मार्गदर्शक हो सकते हैं, मगर अक्सर तो हमारे भविष्य के बारे में बनाई गई उनकी योजनाएं हमारी महत्वाकांक्षा के अनुरूप नहीं होती या हम स्वयं ही उनकी उच्च महत्वाकांक्षा के अनुरूप अपने आपको नहीं ढाल पाते। मसलन व्यवसायी पिता अपने बेटे को व्यवसायी, डॉक्टर व इंजीनियर उन्हें अपने ही अनुरूप बनाना चाहें, मगर हम कोई उनके कलमजन्य प्रतिरूप तो हैं नहीं कि उनकी और हमारी प्रवृत्तियां, रुचियां हूबहू मिले ही सही।
बहुत से युवा सुस्पष्ट निर्णय नहीं ले पाने के कारण अपने कीमती वर्ष यों ही बर्बाद कर देते हैं, मसलन… चलो, ग्रेजुएट तो कर लें…, फिर देखा जाएगा…, पोस्ट ग्रेजुएट के बाद देखा जाएगा… मगर प्रतिस्पर्धा के इस युग में देखा जाएगा में बर्बाद किया गया वक्त आपको बहुत पीछे छोड़ जाता है, अत: अपने अभिभावकों से, मित्रों से अपनी आकांक्षाएं कहें। उस पर गहन विचार-विमर्श करें, उनसे विकल्प पूछें, पूरी योजना बनाएं, संभव हो तो जो विषय या क्षेत्र आप चुनने जा रहे हैं, उसमें संलग्न लोगों से राय-मशवरा लेकर ही यथोचित कदम उठाएं, साथ ही उसके अच्छे-बुरे पक्षों पर गौर करें। संभावित जोखिम उठाने की क्षमता आप में है या नहीं यह भी देख लें।
उदाहरणार्थ- राजेश ने बड़े उत्साह के साथ अपने जीजाजी के यहां तीन वर्ष के अथक परिश्रम से सर्राफा व्यवसाय से संबंधित कार्य सीखा और स्वयं का शोरूम शुरू करने की जब कोशिश की तो दुकान की पगड़ी व व्यवसाय में लगने वाली भारी पूंजी जुटाना (अपने पिता की संचित जमा पूंजी के बावजूद) संभव नहीं हुआ और मजबूरन उसे जनरल स्टोर लगाना पड़ा, जो तीन वर्ष बर्बाद करने से पूर्व भी लगा सकता था।
पढ़ाई में मध्यम दिनेश को उसके पिता लगातार तीन वर्ष तक पी.एम.टी. की परीक्षा दबाव डालकर दिलवाते रहे, मगर वह असफल रहा और अंतत: पिता के व्यवसाय से जुड़ा। यदि वे उसे पहले ही व्यवसाय करने देते तो क्या बुराई थी? अत: समय रहते अपनी योग्यताओं के अनुरूप कार्य निर्धारित करके आप अर्जुन लक्ष्य की मानिंद उसे सिद्ध करने में जुट सकते हैं।
लक्ष्य निर्धारित से पूर्व यह ध्यान अवश्य रखें कि आपको किसी से होड़ नहीं करनी है, किसी की नकल नहीं करनी है और जो भी करना है स्वयं अपने बलबूते पर करना है। माता-पिता या मित्र बहुत दूर तक आपके साथ चलने वाले नहीं हैं। अपने समुद्र मंथन को अमृत के हकदार भी आप ही हैं और उसके गल (विष) के हकदार भी आप ही होंगे।
सही लक्ष्य का निर्धारण ही आधी सफलता का प्रतीक है। लक्ष्य निर्धारण के बाद पूरी ईमानदारी, निष्ठा और लगन के साथ उसे पाने में जुट जाइये। अब कुछ विशिष्ठ बातों पर ध्यान देकर आप सफलता के मार्ग पर कुछ तेजी से अग्रसर हो सकते हैं। सर्वप्रथम प्रतिदिन स्नान कीजिये, मौसम कोई भी हो, स्नान आपको दिन भर स्फूर्त और तरोताजा बनाये रखेगा।
हल्का-फुल्का व्यायाम करें और कुछ नहीं तो संध्या भोजन के पश्चात आधा घंटा टहलकर आप अपने अच्छे स्वास्थ्य का बीमा करा सकते हैं। व्यर्थ में, झगड़ों, प्रपंचों में अपनी शक्ति जाया न करें। देर रात तक जागकर टी.वी. देखने या उपन्यास पढऩे के बजाये नियमित 8-10 घंटे की भरपूर नींद लें। जल्दी सोकर जल्दी उठने वालों की दिनचर्या व्यवस्थित रहती है।
आत्म ऊर्जा उत्पन्न करना सीखें। मन को जब भी कोई बात निराश करे तत्काल मनोमस्तिष्क को शांत निराशावादी विचारों को बाहर निकालें। सदैव सकारात्मक सोचें। हर चीज में अच्छाई देखने की आदत डालें। अपने कार्य को उत्साहपूर्वक करें। मजबूरी समझकर नहीं, स्वयं से संतुष्ट रहें। किसी भी बात में किसी अन्य से अपनी तुलना नहीं करें। न किसी की आलोचना करें।
प्रसन्न एवं हंसमुख रहें। मुस्कुराता हुआ चेहरा स्वयं एक सिफारिशी पत्र हैं। अन्यों पर निर्भरता रहने से बचें। धन-संपत्ति भौतिक साधनों के प्रति मन में कोई ग्रंथी न बनने दें। हर हाल में मस्त रहना सीखें। व्यस्त व्यक्ति सबसे ज्यादा मस्त रहता है।
अपने कार्य में सफलता के पश्चात भी उसमें निरंतर सुधार की उत्कंठा रखने वाला व्यक्ति कभी-कभी सफलता के शिखर से फिसल नीचे नहीं आता। सफल नेता, व्यवसायी या अधिकारी भी हमारे जैसे ही हाड़-मांस के इंसान हैं। उन्हें भगवान ने गढऩे में कोई भेदभाव नहीं बरता है। उसने हमें भी सफलतम होने की सभी विलक्षण शक्तियां दी हैं, फिर हम उनका प्रयोग कर सफल होने में देर क्यों कर रहे हैं।