भारत को धर्म प्रधान देश कहा जाना चाहिए। कहा भी जाता है। धर्म का स्थान यहां प्रमुख है। फिर भी धर्म की बात यहां खुलकर करना आसान नहीं है। सभी धर्मों की मूल शिक्षा तो आपसी सद्भाव की बात करती है तो फिर ऐसा क्यों? असल में एक की आस्था दूसरे से टकराती है। और हर एक की अपनी-अपनी अटूट आस्थाएं हैं। वैसे भी आस्था में तर्क-वितर्क नहीं चलता। कुछ लोग इसे अंध-विश्वास भी कह देते हैं। ठीक है, कम से कम यहां संपूर्ण समर्पण तो होता है। लेकिन तभी एक आस्थावान को अपनी आस्था के अतिरिक्त सब कुछ निरर्थक लगता है। यह मानवीय स्वभाव है। वैसे तो इस आस्था से विश्वास जागता है और विश्वास से शक्ति, और एक समान शक्ति के साथ होने से संगठन। मगर फिर जब आस्था में विवेक नहीं होता, बुद्धिमानी न हो, संयम और समझ न हो तो यह दूसरे की आस्था को झुठलाने की कोशिश कर सकती है। एक-दूसरे के अस्तित्व को चुनौती दी जा सकती है और तभी मुश्किलें पैदा होती है। वैसे भी एक लेखक को धर्म की बात करने में चौकस रहना चाहिए। लेकिन चूंकि लेखक भी मनुष्य है और उसकी भी अपनी आस्थाएं होंगी। ऐसे में उसकी आस्था व्यक्तिगत परिधि तक सीमित रह जाए तो वह परोपकारी नहीं हो सकती। लेकिन अगर यही बृहद समाज से संदर्भित लगने लगे तो फिर वह लोकहितकारी हो जाती है।
मैं दुर्गा भक्त हूं। मां में मेरी अटूट आस्था है। मगर इस लेख का यह आशय कदापि नहीं कि सभी पाठक दुर्गा भक्त बन जाएं। बल्कि सभी अपनी-अपनी आस्थाओं को ध्यान में रखकर इसे पढ़ सकते हैं। जिस तरह अपने जीवन के अनुभव ने मेरी आस्था को सदा सुदृढ़ किया है और संपूर्ण सृष्टि की ईश्वरीय शक्ति मुझे मां के रूप में स्वीकार्य है। उसी तरह अन्य भक्तजन भी अपने-अपने इष्ट में विश्व रूप को देखते होंगे। इसी आस्था की कड़ी में आगे देखें तो कई धार्मिक पवित्र स्थल सिद्घ माने जाते हैं। इनसे संबंधित कई तरह की लोककथाएं प्रचलित हैं। यह शक्तिस्थल या शक्तिपीठ भी कहलाते हैं। यहां प्राय: दूसरे धर्म के लोग भी आते हुए दिख जाएंगे। हिन्दुस्तान में तो ऐसे सैकड़ों स्थान हैं।
अनेक धार्मिक स्थानों पर लोग अपनी-अपनी इच्छाओं और मन्नतों की पूर्ति के लिए जाते हैं। इन स्थानों पर आकर ही समझ में आता है कि मनुष्य कितना कमजोर और नि:सहाय है। इसमें कोई शक नहीं है कि यहां आकर अच्छे अच्छों के सिर झुक जाते हैं। नास्तिक भी स्वीकार करेंगे कि यहां पर मनुष्य के अहम् की समाप्ति होती है। यहां आदमी सेवा, त्याग, दान, चिंतन वह सब कुछ करने को तैयार हो जाता है, करता भी है, जो वह अमूमन अपने घर में नहीं करता। तो क्या यह डर है? बहुत हद तक। मगर इन सब में प्रमुख यह है कि यहां भी भक्त कहीं न कहीं स्वार्थी ही सिद्ध होता है। तभी तो वह अपने लिए विभिन्न सुख की कामना और दु:ख के निवारण की प्रार्थना करता है। और अधिक हुआ तो अपने परिवार के सदस्यों की सुख-समृद्धि के लिए पूजा-अर्चना करता है।
मां दुर्गा के विभिन्न शक्तिपीठों के बारे में कई मान्यताएं प्रचलित हैं। विगत कुछ वर्षों में, वैष्णो देवी जाने वालों में, उत्तर भारत के ही नहीं पूरे देश और विश्व से आने वाले भक्तजनों की संख्या बढ़ी है और यह एक प्रमुख तीर्थस्थल बनकर उभरा है। दस-ग्यारह वर्ष पुरानी बात है जब मैं पिछली बार वहां गया था। इस बीच जीवन में कई महत्वपूर्ण मोड़ आए, सफलताएं हाथ लगीं, दु:ख और कष्ट अपने-अपने तरह से आये और समय से उनका निवारण भी हुआ। हर बार मन ही मन मां को याद किया था। मगर चाहते हुए भी मैं इस बीच मातारानी के दर्शन करने नहीं जा सका। मन में यह इस बात का प्रमाण बनता जा रहा था, जो फिर अक्सर कहा भी जाता है कि वहां माता के बिना बुलाए नहीं जाया जा सकता। विगत दस वर्षों से मैं उत्तर भारत में ही पदस्थ हूं। दूर राज्यों से तो मैं यहां आ जाया करता था लेकिन नजदीक होने पर नहीं जा पा रहा था। मगर मन में संतुष्टि थी कि जब मां चाहेगी तब ही दर्शन होंगे।
फिर किसी कार्यवश जम्मू क्षेत्र में जाने का अवसर प्राप्त हुआ। यह अनायास था और फिर भी मैं बीच में समय निकालकर मां के दर्शन के लिए कार्यक्रम बनाने लगा। भौतिक जीवन की आपाधापी में से मैंने कुछ घंटे निकालने की कोशिश की और आवश्यकता के अनुसार योजना बनाई कि नीचे कटरा से हेलीकाप्टर द्वारा ऊपर पहुंचकर, मां वैष्णो देवी के दर्शन करके तुरंत उसी हेलीकाप्टर से वापस आ जाऊंगा। इसमें मात्र दो से चार घंटे लगने थे। मां के दर्शन के साथ-साथ हेलीकाप्टर की यात्रा के लिए भी उत्साहित था। एक दिन पूर्व तक पता लगवाया था कि हेलीकाप्टर सेवाएं चल रही हैं या नहीं? पता चला कि वे नियमित रूप से उड़ान भर रही थीं। स्थानीय अधिकारियों की मदद से बताये गए समय पर, सुबह-सुबह मैं ठीक वक्त पर उसी स्थान पर पहुंचा। जाते ही पता चला कि पहाड़ की चोटी पर बादल होने से हेलीकाप्टर सेवाएं इस वक्त निरस्त हैं। आगे की संभावना पर किसी के लिए भी कुछ कह पाना मुश्किल था। बादल हट पायेंगे अथवा नहीं अनुमान लगाना मुश्किल था।
प्रकृति ने भविष्य के गर्भ को इंसान की पहुंच से दूर रखा है, नहीं तो आदमी का क्या, वह तो शैतान बन जाता। अब चूंकि एक दिन का समय ही उपलब्ध था। इसीलिए कुछ देर इंतजार करने के बाद अंत में मैं पैदल ही यात्रा के लिए निकल पड़ा। मन में कहीं बेचैनी थी। समय की कमी और शारीरिक थकावट के लिए मानसिक रूप से तैयार न था। दो-तीन घंटे की जगह अब कम से कम दस से बारह घंटे लगने थे। ग्यारह से बारह किलोमीटर की लंबी चढ़ाई सोचकर ही मन में घबराहट और चिंता थी।
आधुनिक जीवनशैली ने शरीर को बर्बाद कर रखा है, इसी बात का भय चलने के दौरान कहीं न कहीं मन-मस्तिष्क में बैठा हुआ था। मगर जैसे-जैसे चलता चला गया, रास्ते में जा रहे बच्चों-बूढ़ों और अपाहिजों को देखकर न जाने कहां से शक्ति और प्रेरणा प्राप्त होती चली गई। यही कुछ सोचते हुए लगभग पांच घंटे में जब ऊपर भवन में पहुंचा तो अनायास ही जिस खुशी की अनुभूति व अतिरिक्त ऊर्जा की प्राप्ति हुई उसे बयान नहीं कर सकता। सारी थकावट अचानक गायब हो गई थी। मन में तो यह सोच कर यात्रा प्रारंभ की थी कि तुरंत दर्शन करके वापस आ जाऊंगा। परंतु ऊपर भवन में पहुंचने पर फिर कुछ और हुआ। ऊपर पदस्थ एक विशिष्ट अधिकारी दोस्त के बतलाने पर जब यह पता चला कि सायं सात बजे से नौ बजे तक विशेष आरती होती है जिसमें कुछ राशि दान रूप में भेंट स्वरूप देकर टिकट प्राप्त किया जा सकता है। अधिकारी ने टिकट प्रबंध करने की बात की तो मन में इच्छा जागी। यहां पर बैठने की संख्या सीमित होती है। टिकटधारी भक्तजनों के बैठ जाने के बाद बाकी बची जगह पर सामान्य श्रेणी के कतार में से प्रारंभ के भक्तजनों को सहर्ष मौका दिया जाता है। कई बार यह संख्या पूरी तरह से सामान्य जनता के द्वारा ही भरी जाती है। मगर हर बार कुल संख्या उतनी ही रखी जाती है। अर्थात बहुत सौभाग्यशाली भक्तों को यह मौका मिलता है। चूंकि कतार लंबी होती है। पता नहीं, मित्र अधिकारी के प्रस्ताव को मैं ठुकरा न सका और दो घंटे बाद प्रारंभ होने वाले विशिष्ट आरती का इंतजार करने लगा। मेरे लिये यह पूर्व से नियत नहीं था। अब मन में दुविधा थी कि इतनी लंबी आरती में मैं कैसे बैठ पाऊंगा? और फिर वापसी में काफी देर हो जाने की चिंता थी। इसी पशोपेश में मैंने दो घंटे बिताए। लेकिन फिर जब मैं उस महत्वपूर्ण आरती में बैठा तो जिस शांति और आनंद की प्राप्ति हुई उसे व्यक्त नहीं कर सकता। यह आत्मा व परमात्मा के मिलन का क्षेत्र व समय था। यहां शब्द बौने हो जाते हैं।
मां ने मुझ जैसे साधारण से बेटे को भरपूर दर्शन दिए थे और मैं धन्य हुआ था। देर रात वापसी की यात्रा प्रारंभ कर मैं अगले ही दिन सुबह वापस जम्मू पहुंच पाया था। मगर एक रात्रि की नींद के बदले मां के दिव्य व भव्य दर्शन होना किसी सपने से कम नहीं था। यह सब कुछ अनायास ही था।
सारे कार्यक्रम अचानक बने थे। सोचकर कुछ और गया था और हुआ कुछ और। ऐसा लगा कि मां मुझे विशेष दर्शन देने के लिए मेरी बनाई सभी योजना को निरस्त कर रही थी। मैं जो भी सोचता उससे उलटा ही होता। कारण अपने आप बनते गए। और ऐसा भी नहीं कि मैं सहर्ष उन्हें स्वीकार करके उनके साथ आगे बढ़ता गया। मजबूरीवश ही मैं आगे बढ़ता। मेरा कुछ भी अपना न था। मेरी कोई योजना काम नहीं कर रही थी। मैं किसी अदृश्य शक्ति के नियंत्रण में यंत्रवत् चल रहा था। और अंत में जो हुआ वह अकल्पनीय था। अपनी सोच और समझ से कहीं बेहतर। इसे ही नियति कहते हैं। सर्वशक्तिमान ईश्वर के बिना कुछ भी संभव नहीं, यह इस बात का प्रमाण था और जो होता है अच्छे के लिए ही होता है, पुन: प्रमाणित हो रहा था।
वैज्ञानिक आधुनिक प्रबंधन से प्रेरित महत्वाकांक्षी मैनेजमेंट के तथाकथित गुरु इन बातों को पुरातनपंथी व भाग्य पर निर्भर बनाने वाला कहने से नहीं हिचकिचाएंगे। इस लेख को विकासकारी, प्रगतिशील, विकसित विचारधारा का विरोधी करार देंगे। लेकिन जीवन में ऐसे कई अनुभवों को वे भी नहीं नकार सकते। इसे मात्र संयोग कहकर नहीं बचा जा सकता।
उनके पास भी इसका जवाब नहीं होता कि दो एक-सा कार्य करने वालों को अलग-अलग परिणाम क्यों प्राप्त होते हैं? और भी कई सवाल है जिनका हमारे पास जवाब नहीं होता।