कहानी – रोशनी के रंग

”मैं अब क्या करूं? इन बच्चों और सास-ससुर को कैसे पालूं? कुछ सुझाई नहीं देता मुझको।“ रूंधे हुये कंठ से बोलते-बोलते सरला रो पड़ी।
 
ऐसा पहली बार ही नहीं हुआ था। जब कभी वह आता, तब कतिपय हेर-फेर के साथ प्राय: ये ही शब्द सरला के मुख से निकलते और इसके साथ ही उसकी आंखें भी छलछला जातीं। इन मौकों पर वह सोच ही नहीं पाता कि वह क्या करे? कैसे वह इस डूबते हुए घर को ऊपर लाये? कैसे वह इनके आंसू पोंछे? वह स्वयं भी उदास हो जाता। कुछ तो भी बोलकर वह चल देता। चुप-चुप व उदास-उदास। अपने घर जाने के पश्चात भी वह इस समस्या में ही देर तक उलझा रहता। उसका मस्तिष्क रुई-सा, पिंज-पिंज जाता, लेकिन उसे कोई राह नहीं मिल पा रही थी। सरला के पति को मरे हुये पूरे दो मास बीत चले थे। यह अवधि रोने-धोने एवं क्रियाकर्म करने में ही गुजर गई थी। अब तक अपने खीसे से रुपये दे-देकर इस घर को सहारा देता आ रहा था। इसके पहले भी उसके पति को दवा-दारू के लिए इधर-उधर ले जाने में उसका काफी रुपया खर्च हो गया था। इसके बाद भी उसके चेहरे पर कोई सल नहीं पड़ा था। वह धर्म भाई होने का धर्म भलीभांति निभाये जा रहा था, लेकिन एक दिन वह बोली- ‘भाई साब, ऐसा कब तक चलता रहेगा? मुझे अपने पैरों पर ही खड़ा होना होगा।‘ इस पर उसने ढांढस देने के लहजे में उसे आश्वस्त किया था- ”सरला, मुझे मालूम है। ईश्वर पर विश्वास रखो। कोई न कोई रास्ता मिलेगा।‘ इसके पश्चात उसे यह गुत्थी कुछ और अधिक उलझी हुई महसूस होने लगी थी। वह हर क्षण इसी के बारे में सोचता रहता, उठते-बैठते, सोते-जागते।
 
इधर, उसकी पत्नी को उसकी यह मनोदशा रास नहीं आ रही थी। उसे रह-रहकर यह ख्याल आता कि उसका पति इस औरत में इतनी रुचि क्यों लेता है? क्यों वह बार-बार उसके घर जाता रहता है। कभी-कभी उसे इस संबंध पर शक भी होने लगता। यूं भी उसे यह पसंद नहीं था कि उसका पति उसे छोड़कर किसी अन्य औरत में रुचि रखे। ऐसे अवसरों पर रह-रहकर उसकी स्त्री-सुलभ ईर्ष्या जाग उठती। कभी वह उसे बलात् दबा लेती, कभी उसे अपने व्यवहार में प्रकट कर देती। कभी वह अपने पति से अबोला ले लेती, कभी घर के बर्तन व अपने हाथ पैर जब-तब पटक-पटक कर अपने रोष को जतलाती। एक दिन तो उसने हद ही कर दी। उसके पति को रात्रि में आने में देर हो गई। खाना ठंडा हो गया। उसकी प्रतीक्षा करते-करते उसकी आंखें थक गईं। वह एक-एककर घडिय़ां गिनती रही, रात बीतती रही, जब उसका पति आया, तब वह सहसा संयम तोड़कर भनक पड़ी- ‘इतनी रात तक उस चुड़ैल के पास क्या करते रहते हो? बच्चों और लोगों की काना-फूसी का भी आपको ख्याल है कि नहीं? थोड़ा अपनी उम्र का भी ख्याल करो।‘ ये कटु-तिक्त बातें सुनकर वह भी अपना आपा खो बैठा। सरोष बोला- ‘तुम अपनी सीमा में रहो। मेरे किसी भी रिश्ते से तुम्हारा कोई सरोकार नहीं। तुम अपना घर देखो। तुम्हें तो मेरी मां के संग भी मेरा घुलना-मिलना पसंद नहीं है। मां-बेटे के संबंध में भी तुम्हारी ईर्ष्या जाग जाती है। तुम्हारा बस चले तो तुम मेरे सारे रिश्तों को तोड़-ताड़कर रख दो। मैं समाज से नहीं डरता। उसे जो कहना है कहता रहे।‘ ‘हां-हां, मैं ही एक बुरी हूं! तुम सब अच्छे हो। मेरी किस्मत ही फूटी है।
 
यह कहते-कहते उसकी आंखों में आंसू चुहचुहा पड़े। देर तक वह बकती व रोती रही। वह भी बिस्तर में पड़ा-पड़ा जलता-भुनता रहा।
 
स्वभाव से वह अत्यंत सरल व विनम्र था, लेकिन सच्चाई के लिये लडऩा भी जानता था। एक प्रकार से वह हठी था। किसी बात पर वह हठ पकड़ लेता था तो फिर उसे कोई हिला नहीं सकता था। समाज व आस-पड़ोस के लोग इस रिश्ते के बारे में क्या सोचते हैं, वे क्या कहते-बकते हैं? इस संबंध में उसे सब कुछ अहसास था। यह सब तो उसके पति के जीवित रहते ही शुरू हो गया था। उसे किसी ने कहा न था, इसीलिये यह रिश्ता चलता रहा। तब भी उसे यदा-कदा समाज का ख्याल आ जाता और वह सरला के यहां आना-जाना कम कर देता। कई-कई दिनों तक वह उसके घर जाता ही नहीं। उसके पति की मृत्यु के उपरांत वह इस बात को निभा नहीं पाया। इस वक्त सरला को भावनात्मक स्तर पर थामना जरूरी था। वह अपना फर्ज निभाता रहा।
 
इस क्रम में उसे उस दिन बड़ा धक्का लगा, जब एक दिन सरला की सास ने उसे टोक दिया- ‘आपका हम लोगों को बड़ा सहारा है पर इस समाज को क्या कहा जाये? इसकी ऊंची उठी अंगुली के बारे में कोई क्या कहे? भाई-बहिन के पवित्र रिश्ते को कैसे समझाया जाये? समाज में रहना है तो समाज का ध्यान भी रखना होगा।‘ यह सुनकर वह धक्क से रह गया था। इसकी उम्मीद उसे न थी। उस वक्त उसे लगा था जैसे उसे पकड़कर तीन-चार थप्पड़ मार दिये गए हों। वह यह कहकर उस दिन चला आया था- ‘मांजी, आप सच कहती हैं।‘
 
इसके बाद वह कई दिनों तक सरला के घर नहीं गया था। इससे उसे मानसिक वेदना तो हुई पर वह कठोर बना रहा। यहां तक कि दीवाली आ गई, उसने बच्चों के लिये पटाखे भी नहीं भेजे। नहीं तो वह हर दीवाली पर सरला के बच्चों को ढेर सारे पटाखे दिलाता था। उन्हें रात्रि को बाजार की रोशनी व रौनक दिखलाने ले जाता था। बच्चे भी बड़े खुश होते थे। इस बात का दु:ख सरला और उसके सास-ससुर को भी था। उसकी सास जब-तब अपने आपको कोसती भी थी। उसे अपने उस कथन पर बाद में बेहद आत्मग्लानि हुई थी। वह मन ही मन सोचती रहती ‘वह ऐसा उस भले आदमी को कैसे कह पाई? अब वह क्या करे?’ अपने इस पश्चाताप को व्यवहारिक रूप देने के लिये उसे यह दीवाली का मौका अच्छा लगा। उसने सुबह ही रोटी बनाकर अपनी बहू से कहा- ‘लाड़ी, कल भाईदूज है। तू प्रकाश को बच्चे को भेजकर बुला ले। इस बहाने मैं भी उनसे माफी मांग लूंगी।‘ अंधे को क्या चाहिये, दो आंखें न। सरला भी यही चाहती थी। उसे भी अपने भाई का अपमान अच्छा न लगा था। वह इस हादसे से अत्यंत व्यथित थी। अपनी लंबी घुटन से मुक्त होकर उसने अपने बड़े बेटे को बुलाया और कहा- महेश, कल भाईदूज है। तेरे मामाजी को आने का कह आ। जा बेटा जा, जल्दी जा। वह बच्चा भी इस बात से खुश हो गया।
 
ठीक वक्त पर प्रकाश आ गया था। आते ही सरला की सास पश्चाताप करते हुये उनसे बोली थी- ‘बेटा, मैंने उस दिन तुम्हें बड़ा दु:ख पहुंचाया। मुझे माफ करना। इस समाज का क्या? वह कोई रोज-रोज हमारे यहां टुकड़े डालने थोड़े ही आता है। अपना किया अपना खाते हैं, फिर किसी से भला क्यों डरें?’ इस पर उसने जवाब दिया था- ‘नहीं-नहीं मांजी, ऐसी कोई बात नहीं है, मैं तो आपके बेटा जैसा हूं। आप जो भी कहेंगी मेरे भले के लिये ही।‘ इससे सबके मन का मैल धुल गया था। सरला ने बेहद प्यार से भोजन बनाया और अपने भाई को खिलाया। इसके पश्चात प्रकाश का उस घर में आना-जाना पूर्ववत हो गया था।
 
जब तक वह सरला के घर नहीं आया, तब तक उसकी पत्नी सामान्यतया ठीक रही। यह रिश्ता पूर्ववत होने से उसकी घुटन व ईष्र्या बढ़ती गई। यह बात भी सच थी कि वह अपने पति का उसकी मां से अधिक घुलना-मिलना भी पसंद नहीं करती थी। इसके मूल में उसके हृदय की संकीर्णता थी। वह अपने पति पर एकाधिकार चाहती थी। जब यह भाव उसे विखंडित होता, तब उसका संकुचित मन नाग-सा फुफकार उठता। वह विवेक का नियंत्रण खो बैठती और यह भूल जाती थी कि उसकी मां का भी उस पर उससे कहीं अधिक हक है। उसे यह भी मालूम था कि उसके पति का किसी से गलत रिश्ता नहीं है। ऐसा हो भी नहीं सकता। वह अपने पति के स्वभाव से भलीभांति परिचित थी। इसके पश्चात भी वह अपने आपको रोक नहीं पाती। जब कभी ऐसे अवसर आते, तब वह अपनी औकात पर उतर आती। बाद में उसे अपने किये पर पछतावा भी होता। वह कई-कई दिनों तक खुद को कोसती रहती। प्रकाश भी अपनी पत्नी की वास्तविकता से परिचित थे। उन्हें यह भी मालूम था कि वह उन्हें बहुत चाहती है। उनके लिये कुछ भी कर सकती है, इसलिये अब वे कोई भी कदम उठाते तो उसकी भावना को ख्याल में रखकर। अधिकांशत: विवाद को टालते इसके बावजूद कभी-कभी कुछ न कुछ तकरार तो उनकी उससे हो ही जाती। उसे नियति मानकर वे चुप्पी साध लेते। आज बात कुछ-कुछ दूसरी थी। आज जब वह सुबह-सुबह सरला के घर आया तो उसका अंतर्बाह्य एक अभिनव आभा से प्रदीप्त था। जब वह रो चुकी, तब उन्होंने उसके आंसू पोंछे। फिर हौले-हौले बोले- ”अब रोने-धोने की जरूरत नहीं है। तुम्हारी समस्या का हल मुझे मिल गया है। एक नूतन रोशनी से मैं भर गया हूं।‘ यह सुनकर वह बड़ी उलझन में पड़ गई, क्योंकि आज उसके भाई साहब के मुख पर सदा-सी उदासी न थी। उनके चेहरे पर इस नई रोशनी के न जाने कितने-कितने रंग पलानुपल आ-जा रहे थे। वे आज अतिरिक्त आह्लाद व आत्मविश्वास से भरे हुए थे। वह अपलक उनके चेहरे को देखते हुए उन पर आते-जाते रंगों को पहचानने व ताडऩे का प्रयास कर रही थी, फिर भी वह कुछ समझ नहीं पा रही थी, तभी दरवाजे पर कुछ खटका हुआ। उसने उधर दृष्टि फेरी तो एक नई सिलाई मशीन दरवाजे में धकेलते हुए दो हम्माल उसे दिखाई दिये। पहले तो उसने सोचा कि वे लोग गलत दरवाजे में घुस आये हैं, फिर वह अपनी जगह से उठकर उन्हें कुछ कहने जा रही थी कि प्रकाश ने भांपते हुए उसे रोका, फिर हंसते हुए बोले- ‘यह तुम्हारे लिये ही है। मैंने खरीदी है।‘ इस पर वह चौंकी- ‘मुझे सिलाई कहां आती है भाई साब’। मैं तो निरी गोबर गणेश हूं। वह भी आ जायेगी। तुम मशीन भीतर आने तो दो, इस पर वह चुप हो गई।
 
प्रकाश ने उस मशीन को एक कमरे में जमवा दी। दूसरे दिन वह कुछ फटे-पुराने ब्लाउज व पेटीकोट ले आया। वह सरला के सम्मुख एक ब्लाउज उधेड़ता, उसकी कटिंग को अखबार पर बिछाकर काटता। इस कटे हुए अखबार को एक नये कपड़े पर रखकर वह कटिंग करता और फिर उसे मशीन पर सिलता। ऐसा ही पेटीकोट का करता। शुरू-शुरू में तो सरला हिचकिचाई, उसके हाथ कांपते, फिर वह भी अपने भाई साहब का अनुकरण करती। आहिस्ता-आहिस्ता उसे ब्लाउज एवं पेटीकोट सीना आ गया। वह काज-बटन करना भी सीख गई। शुरू-शुरू में वह दिन में दो-तीन ब्लाउज व एकाध पेटीकोट सिल पाती। धीरे-धीरे उसकी अंगुलियां इस हुनर में निष्णात होती गईं। उसके काम में सफाई आती गई। उसमें गति भी आती गई। एक दिन ऐसा भी आया कि उसे इस काम से फुर्सत ही नहीं मिलने लगी। वह दिन-रात इसी में तल्लीन रहती, इससे उसकी आय भी दिन दूनी बढ़ती गई। अब उसे अपने भाई साहब के रुपयों की जरूरत नहीं रही। इस नये परिवर्तन से उसके सास-ससुर भी खुश थे। बच्चों की पढ़ाई व्यवस्थित रूप से होने लगी। वे भी दिन-पर-दिन बढ़ते गये, एक अनूठी रोशनी से भरते गये। सरला का सारा घर ही इस अभिनव रोशनी से जगमगा उठा, इसके कई रंग थे।