आमतौर पर हम सबकी यही इच्छा रहती है कि सभी हमारे बारे में अच्छा-अच्छा कहें, हमारी तारीफ करें तथा व्यवहार की सराहना करें। अपने इस मकसद के लिए हम स्वयं को सामाजिक दिखाने का प्रयत्न भी करते हैं परंतु वास्तव में भीतर से हम कितने सामाजिक होते हैं, यह तो हमें भी पता ही होता है। जब हमारा अपना स्वार्थ सिर उठाता है, तब उस समय कई बार तो हम सामाजिक व्यवहार तक भूल जाते हैं। अपने मतलब की बात हो तो ‘जी- जी’ करके बहुत इज्जत करेंगे और यदि अपना मतलब न हो और सामने वाला समाज में बड़ा स्थान न रखता हो तो तमीज से बात तक करने की जहमत नहीं उठाते। कई बार तो अपने आपको सामने वाले से बड़ा साबित करने की कोशिश में उसकी इज्जत तक उतारने से बाज नहीं आते। यह एक तरह का विरोधाभास है, जो कि मन का खेल है। मन जो कि दिखाई नहीं देता, मगर उसका खेल दिखाई देता है। शरीर के भीतर मन नाम की कोई वस्तु या अंग नहीं है, परंतु कर्मों के कारण किसी सूक्ष्म सत्ता का होना दिखाई देता है, जिसे मन का नाम दिया गया है। अपने आपको अच्छा और बड़ा दिखाने के लिए बुरा और गिरा हुआ आचरण मन का उलझा हुआ खेल है।
हम कभी-कभी ऐसी जली-कटी सुनाएंगे कि सामने वाला जलकर राख हो जाए, जिसकी सामने वाला कल्पना भी न कर सकता हो। इसके बावजूद हमारी इच्छा होती है कि हमारी प्रशंसा की जाए। प्रशंसा से हम बहुत प्रसन्न हो जाते हैं। अपने ही मन का यह आचरण बड़ों-बड़ों के भी समझ में नहीं आता कि दूसरों को दु:खी करने वाली बात करके बुरी बात करने वाले का अपना मन सुख महसूस करता है या कुछ हल्का हो जाता है। यह दूसरों को दु:खी देखकर या करके स्वयं भीतर से कुछ हल्का महसूस करने वाली स्थिति होती है। पर निंदा सुख तो समाज में आम देखने को मिलता है। हम सब यह जानना चाहते हैं कि पाप और पुण्य क्या होते हैं। बहुत सीधी-सी बात है कि हमारे जिस आचरण या व्यवहार से दूसरों का भीतर दुखी हो, वह पाप है। और इसके विपरीत हमारे जिस व्यवहार एवं कृत्य से दूसरों की भीतर प्रसन्न व सुखी अनुभव करे, वह पुण्य है। हम जो भी पाप पुण्य करते हैं, वह सब हमारे भीतर की सूक्ष्म व न दिखने वाली ‘सत्ता’ ही पुन: सूक्ष्म मन में प्रकट होकर हमारी इन्द्रियों से करवाती है। इन पाप व पुण्यों का फल भोगने के लिए इस सूक्ष्म सत्ता को बार-बार शरीर धारण करना पड़ता है। इसी सूक्ष्म सत्ता को आत्मा का नाम दिया गया है। शास्त्र कहते हैं कि यदि पाप व पुण्य का पलड़ा बराबर हो जाए, तो मानव शरीर मिलता है और यदि पापों की गठरी का भार पुण्यों के मुकाबले में ज्यादा हो जाए तो कीड़े, मकोड़े, जानवर, पशु पक्षियों आदि की योनि मिलती है। यदि पुण्यों की संख्या पापों से अधिक हो, तो पुन: मानव शरीर में आकर पुण्यों का फल परमात्मा सुखों के रूप में देते हैं। पाप-पुण्य, अच्छा-बुरा, सुख-दु:ख दोनों की परमात्मा ने युगलबन्दी-सी कर रखी है और इन्हीं किनारों के बीच से ही जीवनरूपी नदी की धाराएं बह रही हैं।
वास्तव में कर्म हमारे भीतर का स्वभाव है। अपने भीतर महसूस होने वाले इस सूक्ष्म ‘भीतर’ को यदि कोई नाम न भी दें, तो भी इसकी गतिविधियां तो जाहिर ही है, जिसमें से अच्छे-बुरे कर्म अपने आप से ही, बिना किसी कमांड के फूटते रहते हैं। जिससे आदेश लेकर हमारा शरीर और शरीर की कर्मेंद्रियां अच्छे-बुरे कर्म करती हैं और इन अच्छे बुरे कर्मों के फल ही हमें जन्म-जन्मांतर में सुख व दुखों के रूप में भुगतने पड़ते हैं। यहां ‘हमें’ से हमारा भाव, हमारा सूक्ष्म भीतर यानी हमारे भीतर को सूक्ष्म सत्ता ‘आत्मा’ ही है। जो शरीर के जलने, गलने या कट जाने पर भी न मरती है न जलती है न गलती है और न ही तलवार या छुरे आदि से कटती है। यह आत्मा तो युग-युगान्तरों से, सृष्टि के प्रारंभ से भी पहले से ही अजर-अमर अविनाशी है। जब यह सृष्टि नहीं भी होती, तो भी यह समाप्त नहीं होती। यह वैदिक दृष्टिकोण है।
कई बार हम पाप-पुण्य करने व सुख-दु:ख भोगने वाली सूक्ष्म सत्ता यानि आत्मा को परमपिता परमात्मा का अंश समझने की भूल करने लगते हैं। यहां समझने वाली बात यह है कि परमात्मा तो ‘एक’ है। उसके अंश नहीं हो सकते। परमात्मा सुख-दुख भोगने के लिए स्वयं धरती पर नहीं आते।
परमात्मा तो, आत्माओं के पाप-पुण्य रुपी कर्मों के आधार पर न्याय से, सूक्ष्म आत्माओं को सुखों-दुखों का भोग करने के लिए भांति-भांति के शरीर बनाकर प्रदान करते हैं। प्रत्येक आत्मा के सभी कर्म सदा सर्वदा परमात्मा की नजर में रहते हैं, क्योंकि परमात्मा हमेशा हरेक आत्मा के साथ जुड़ा रहता है। परमात्मा चेतना स्वरूप है। परमात्मा दृष्टïा स्वरूप है। परमात्मा ज्ञान स्वरूप है। परमात्मा आनन्द स्वरूप है। बस चेतना व्यापक हो रही है हर तरफ समस्त आकाश में। इस चेतना का हर तरफ व्यापक होना भी आनन्द है, न सुख न दुख, न खुशी, न गम। हमें तो तमाम ज्ञान उस ज्ञान स्वरूप दृष्टा स्वरूप परमात्मा से ही प्राप्त होता है। हम देखते, सुनते, चखते, महसूस करते इत्यादि कर्म सब इस सर्वव्यापक परमात्मा से ही करते है, क्योंकि परमात्मा तो है ही ‘ज्ञान स्वरूप’। आत्मा अच्छी या बुरी इच्छा करती है, परमात्मा उसे पूरी करते है या नहीं भी करते है, परमात्मा द्वारा रचित सिस्टम में बने व बढ़ फूल रहे शरीर का इस इच्छा पूर्ति में योगदान शामिल होता है और इस प्रकार शरीर द्वारा किए गए बुरे-अच्छे का फल समय से दु:ख व सुख के रूप में मिलता है। यह भी परमात्मा ही देता है। वरना कोई भी आत्मा अपने किसी बुरे कर्म के लिए स्वयं ही अपने लिए बुरी सजा मुकर्रर नहीं कर सकती। न्याय तो कोई दूसरा ही करेगा। इस प्रकार न्यायाधीश के रूप में परमात्मा की आत्मा से अलग सत्ता सृष्टि का मूल व तार्किक आधार है।
वास्तव में आत्मा को चेतन भी इस सर्वव्यापक ‘चेतन’ परमात्मा ने ही किया हुआ है। यह चेतना आत्मा का साथ कभी नहीं छोड़ती। जब जीवात्मा शरीर छोड़ देती है, तो भी उसमें व्याप्त हो रही चेतना उसे आत्मा के अच्छे-बुरे कर्मों के अनुरूप किसी नए बन रहे शरीर में प्रवेश दिला देती है। इस प्रकार परमात्मा, आत्मा का हमेशा-हमेशा का मित्र है और चेतना के रूप में उसमें ही व्याप्त हो रहा है। वेद मंत्रों में आत्मा और परमात्मा का संबंध ‘सयुजा’और ‘सखा’ का कहा गया है। क्योंकि आत्मा भी चेतन है, इसलिए हमें इस आत्मा के सर्वमान्य चैतन्य रुपी परमात्मा का अंश होने की भूल होने लगती है।
और जब हम अपनी आत्मा को परमात्मा से अलग करके जान लेते हैं, तो विज्ञान स्वरूप परमात्मा से अपनी ही आत्मा के फूटने वाले स्वाभाविक अच्छे-बुरे कर्मों को देखते ही स्थिति में आ जाते हैं। तब हमें पता चला है कि अच्छे कर्मों के अच्छे नतीजे भोगने को मिलेंगे तथा बुरे कर्मों के बुरे फल भुगतने होंगे। यदि आज हम कोई दु:ख भोग रहे हैं, तो वह हमारे द्वारा ही किए गए किसी बुरे कर्म का फल है और यदि हम आज सुख का भोग कर रहे हैं, तो वह भी हमारी आत्मा में ही हो रहा है। दृष्टा स्वरूप परमात्मा हमारे किसी अच्छे कर्म के फलस्वरूप ही भोग करा रहा है। अपना भविष्य जानने के लिए हमें अपने वर्तमान कार्यों पर नज़र रखनी होगी। जैसे-जैसे कर्म हमारी आत्मा से फूटकर मन व शरीर की अन्य कर्मेन्द्रियों के माध्यम से प्रकट हो रहे हैं, हम उसी प्रकार के भविष्य की तरफ बढ़ रहे हैं, क्योंकि परमात्मा इस सृष्टि को ‘न्याय व दया’ के आधार पर चला रहे हैं। दया करके परमात्मा, आत्मा को जीवन की देन बख्शते हैं और न्याय के आधार पर सुख-दु:ख देते हैं। विद्वान कहते हैं कि तीन जीवन तो हमें स्पष्टï ही दिखाई देते हैं। यदि हम सुखी जीवन जी रहे हैं, तो अवश्य पिछले जन्म में हमने अच्छे कर्म किए होंगे। यदि अब हम अच्छे कर्म कर पा रहे हैं, तो हमारा अगला जन्म भी अवश्य सुखी जीवन से भरपूर होगा। इसी प्रकार यदि हम दुखी जीवन जी रहे हैं, तो पिछले जन्म में अवश्य बुरे कर्म किए होंगे और यदि हम अब भी बुरे कर्मों में ही लिप्त हैं, जिनसे दूसरे लोग दुखी होते हैं, तो हमें अगले जन्म में दु:ख भुगतने पड़ सकते हैं, बेशक इस जीवन में हम राजसुख या सत्ता सुख ही क्यों न भोग रहे हों। चूंकि परमात्मा हर आत्मा का मित्र है, इसलिए आत्मा को दुखी करने वाला कर्म पाप और आत्मा को सुखी करने वाला कर्म पुण्य की श्रेणी में अपने आप ही शामिल होता रहता है। परमात्मा स्वयं कभी खुश या उदास, सुखी या दुखी नहीं होते। परमात्मा सर्वव्यापक होते हुए भी सबसे व सब प्रकार की भावनाओं से हमेशा मुक्त हैं। परमात्मा तो मुक्तभाव से कर्मों के फल देते हैं, दाता हैं, निर्माता हैं, सृष्टि की रचना से लेकर जीवन रुपी गीत के गायक हैं। संसार की तमाम शक्तियों के अकेले मालिक हैं, जो ‘चेतन’, ‘ज्ञान, ‘दृष्टा’ स्वरूप में संसार के जर्रे जर्रे में व्याप्त हो रहे हैं। तप्त आत्माओं को जीवन समेत संसार के तमाम सुख-दु:ख, आत्मा के भीतर ही हमेशा व्याप्त हो रहे, सर्वव्यापक चेतन परमात्मा के कारण अस्थायी तौर पर प्राप्त होते है तथा छिनते रहते हैं। इस प्रकार संसार का कर्ता परमात्मा तथा विभिन्न जीवनों के दौरान पाप-पुण्य, अच्छे व बुरे कर्मों की कर्ता तथा सुख-दु:ख की भोगी आत्मा है। दोनों का अस्तित्व ‘सत्य’ है।