स्वाध्याय बिना साधना अधूरी

मानव जीवन में सुख की वृद्धि करने के उपायों में स्वाध्याय एक प्रमुख उपाय है। स्वाध्याय से ज्ञान की वृद्धि होती है, मन में महानता, आचरण में पवित्रता तथा आत्मा में प्रकाश आता है। स्वाध्याय एक प्रकार की साधना है, जो अपने साधक को सिद्धि के द्वार तक पहुंचाती है। मानव जीवन को सुखी समुन्नत और सुसंस्कारी बनाने के लिए सद्ग्रंथों का स्वाध्याय करना अत्यंत आवश्यक है। स्वाध्याय मानव जीवन का सच्चा, सहृदय एवं आत्मा का भोजन है। स्वाध्याय से हमें जीवन को आदर्श बनाने की सत्प्रेरणा मिलती है। स्वाध्याय हमारे जीवन विषयक सारी समस्याओं की कुंजी है। स्वाध्याय हमारे चरित्र-निर्माण में सहायक बनकर हमें प्रभु प्राप्ति की ओर अग्रसर करता है। स्वाध्याय स्वर्ग का द्वार और मुक्ति का सोपान है।
संसार में जितने भी महापुरुष, वैज्ञानिक, संत-महात्मा, ऋषि, महर्षि आदि हुए हैं, वे सभी स्वाध्यायशील थे। स्वाध्याय का अर्थ सत्साहित्य एवं वेद, उपनिषद्, गीता आदि आर्ष ग्रंथ तथा महापुरुषों के जीवन वृत्तांतों का अध्ययन तथा मनन करना है। कुछ भी पढ़ा जाए, उसे स्वाध्याय नहीं कहा जा सकता। मनोरंजन प्रधान उपन्यास, नाटक एवं शृंगार-रस पूर्ण पुस्तकों को पढऩा स्वाध्याय नहीं है। इस प्रकार का साहित्य पढऩा तो वास्तव में समय का दुरुपयोग करना एवं अपनी आत्मा को कलुषित करना है। कुरुचिपूर्ण, गंदे साहित्य को छूना भी पाप समझना चाहिए।
सच्चा स्वाध्याय वही है, जिससे हमारी चिंताएं दूर हों, हमारी शंका-कुशंकाओं का समाधान हो, मन में सद्भाव और शुभ संकल्पों का उदय हो तथा आत्मा को शांति का अनुभव हो। हमारे शास्त्रों में स्वाध्याय का बड़ा माहात्म्य बताया गया है। योगशास्त्र में कहा गया ‘स्वाध्याय से योग की उपासना करे और योग से स्वाध्याय का अभ्यास करें। स्वाध्याय की संपत्ति से परमात्मा का साक्षात्कार होता है।‘
त्रयो धर्म स्कन्धायज्ञोध्ययनं दानमित्।
अर्थात्- ‘धर्म के तीन स्कन्ध हैं। यज्ञ, स्वाध्याय और दान।‘
श्रीमद् भागवत में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- स्वाध्यायभ्यसनं चैव वाड्.मय तप उच्यते। –
अर्थात्- ‘स्वाध्याय करना ही प्राणी का तप है।‘
महाभारत के शांति पर्व में कहा गया है-
नित्यं स्वाध्यायशीलश्च दुर्गान्यति तरन्ति ते।
नित्य स्वाध्याय करने वाला व्यक्ति दु:खों से पार हो जाता है।
अपने जीवन को पवित्र, शुद्ध और निर्मल बनाना चाहते हैं, तो आलस्य और प्रमाद को छोड़कर नित्य सद्ग्रंथों के स्वाध्याय का आज से ही संकल्प कीजिए और उसका दृढ़ता से पालन कीजिए। लोकमान्य तिलक ने कहा है- ‘मैं नरक में भी उत्तम पुस्तकों का स्वागत करूंगा। क्योंकि इसमें वह शक्ति है कि जहां ये रहेंगी, वहां अपने आप ही स्वर्ग बन जाएगा।‘
हम में से प्रत्येक को ईश्वर की भावनात्मक उपासना करने के लिए स्वाध्याय को एक आवश्यक  कत्र्तव्य बना लेना चाहिए। ईश्वर की प्राथमिक पूजा, मूर्ति, चित्र आदि के ध्यान और अक्षत, पुष्प, नैवेद्य धूप, दीप आदि उपकरणों के साथ होती है, पर आगे चलकर मानसिक उपासना उच्च विचारधारा रूपी मानसिकता को मन मंदिर में स्थापित करके ही अग्रगामी बनाई जाती है। संयम, साहस, विवेक, सेवा, दया, करुणा, मैत्री, उदारता, सौजन्य, पवित्रता आदि सद्गुण विशुद्ध रूप से ईश्वर की भावनात्मक प्रतिमा ही हैं। स्वाध्याय सत्संग और चिंतन मनन द्वारा जितनी देर मन मंदिर में इन सद्गुणों का प्रकाश बना रहे और उनमें अपनी श्रद्धा जमी रहे, तो समझना चाहिए कि उतनी देर उच्चस्तरीय ईश्वर पूजन होता रहा।
प्रतिमाएं ईश्वर की प्रतीक हैं, पर उच्च भावनाएं तो प्रभु की प्रतिनिधि ही मानी गई हैं। इसलिए स्वाध्याय हमारी उपासनात्मक आवश्यकता को पूर्ण करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम भी है। जो हमें आज की स्थिति के अनुरूप उच्चस्तरीय मार्गदर्शन एवं परामर्श दे सकें, ऐसे मनीषी महापुरुषों का सत्संग, सान्निध्य हर घड़ी, चाहे जहां उपलब्ध नहीं हो सकता, पर सद्ग्रंथों के माध्यम से हम जिस भी महापुरुष को, जिस भी समय, जिस भी विषय पर परामर्श देने के लिए बुलाना चाहें, वह बिना किसी कठिनाई के सामने उपस्थित होगा। इतना सरल और दूसरा कोई साधन नहीं हो सकता, जितना कि स्वाध्याय।
अस्तु हमें मानसिक परिष्कार के इस अमोघ माध्यम को अपने दैनिक जीवन में दृढ़ता, स्थिरता और श्रद्धापूर्वक स्थान देना चाहिए। स्वाध्याय में प्रमाद न करने की शास्त्राज्ञा को एक धर्मनिष्ठ व्यक्ति की तरह हमें निश्चित रूप से शिरोधार्य करना ही चाहिए।