शिव, भारतीय मनोरचना की एक अप्रतिम उपस्थिति हैं। कृष्ण की तरह उनके भी अनेक चित्र-विचित्र संस्मरण हैं। कृष्ण साकार हैं और हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवन में बहुत सरस तरह से शामिल होते हुए भी जैसे सच्चे योमेश्वर की तरह हमें अतिक्रांत करते हैं, शिव, लिंग रूप से निष्फल और अराम रहते हुए भी ‘नानाभूतरत:’ और ‘गुणाकर’ हैं, जैसा कि शिवसहस्त्रनाम स्त्रोत में बताया गया है। एक राग से योग की यात्रा तय करता है, दूसरा योग से राग की। लेकिन उनकी यात्रा के अनगिनत प्रसंगों से भारतीय स्मृति लगातार रंजित रही है, लगातार सस्पन्द।
ऐसे शिव को पशुपति के रूप में याद करना, मंदसौर के प्रख्यात मंदिर के तात्कालिक सन्दर्भ में,थोड़ी अलहदा बात है। आधुनिक कविता के अति-तार्किक स्वभाव में भी शायद यह फिट नहीं बैठता। डॉ. नगेन्द्र ने संभवत: मीरा और महादेवी की तुलना के प्रसंग में कहीं कहा है कि वह तन्मयता आधुनिक मानसिकता से कदाचित असंगत है। लेकिन हमारे ही समय में नरेश मेहता ने यह दिखाया कि आज के दौर में भक्ति किस तरह स्वयं को विश्वसनीय बनाते हुए चरितार्थ हो सकती है।
महाकाल, काल के बन्धनों, सीमाओं और आग्रहों से मुक्त निरपेक्ष है। पशुपति मंदसौर मेरी सीमित धारणा में एक प्रणव लिंग है और उज्जैन के ज्योतिर्लिंग महाकाल से उनकी विशेषता भी इसी जगह स्थापित होती है। यह ‘आलोक’ और ‘ध्वनि’ का फर्क है। महाकाल दृष्टि है, पशुपति दर्शन। महाकाल दर्शन-मात्र से मोक्ष प्रदान करते हैं, पशुपति समझने से। महाकाल संवेदना का शुद्ध पावित्र्य है, पशुपति अनुभूति का गुरु-गांभीर्य। पशुपति सिर्फ फैलस नहीं हैं, फिलासफी हैं। लेकिन इस वैशेष्य और माहात्म्य को रेखांकित करना जरूरी है।
पशुपति दशपुर जनपद की लोक स्थानीय चेतना में अत्यन्त पुरातन समय के नित्यतीर्थ हैं। अभिज्ञान शाकुन्तलम् में महाकवि कालिदास ने इन अष्टमूर्ति को यों प्रणाम किया है-
या सृष्टि: स्रष्टुराद्या वहति विधिहुंत या हविर्या च होत्री।
या द्वे कालं विधत: श्रुति विषयगुणा या स्थिता व्याप्य विश्वम्॥
या माहु: सर्व बीज प्रकृतिरिति यथा प्राणिन: प्राणवन्त:।
प्रत्यक्षामि: प्रसन्नस्तनुभिखतु वस्ताभिरष्टाभिरीश:॥
(विधाता की आद्यसृष्टि (जलमूर्ति), विधिपूर्वक हव्य को ले जाने वाली (अग्निमूर्ति), होत्री (यजमान मूर्ति), दिन-रात की कत्र्री (सूर्य-चंद्र मूर्तियां), सब बीजों की प्रकृति (पृथिवी मूति) और प्राणियों के प्राणस्वरूप (वायुमूर्ति)। इन सब प्रत्यक्ष अपनी अष्टमूर्तियों से भगवान महेश्वर आप पर प्रसन्न हों।
मालविकाग्निमित्र, कुमारसंभव और रघुवंश में भी कालिदास इन अष्टमूर्ति भगवान के समक्ष प्रणत हुए हैं-
विदितं वो यथास्वार्था न मे काश्चित्प्रवृत्तय:।
ननुमूर्तिभिरिष्टाभित्थं भूतोडास्मि सूचित:॥
कुमारसंभव के इस श्लोक में कालिदास अपना इरादा स्पष्ट करते हैं कि वेदान्त प्रतिपादित ब्रह्मï को जनसामान्य के लिए सहज सुलभ बनाने के लिहाज से अष्टप्रकृति (अधिष्ठान) को ही अष्टमूर्ति (शिव) के रूप में प्रतिष्ठित किया। ‘रघुवंश’ में ‘अवेहि मां किकरमष्टमूर्ते:’ (तुम मुझे अष्टमूर्ति का किंकर जानो) की आत्म-स्वीकृति हालांकि कुंभोदर नामक एक गण के नाम से की गई है, लेकिन उसमें आत्मा और स्वर स्वयं कालिदास का लगता है। चूंकि पशुपति की इस प्रतिमा का निर्माण काल 533 ई. के आसपास हुआ विशेषज्ञों द्वारा बताया जाता है, इसलिए यह संभव है कि कवि कालिदास की प्रेरणा उनकी अत्यन्त प्रिय नगरी दशपुर के इस भव्य विग्रह की संकल्पना में सरसित रही हो। पशुपति की प्रतिमा का निर्माण काल और सम्राट यशोधर्मन की हूणों पर विजय, आस-पास घटी घटनाएं हैं। दशपुर का यह सम्राट जिसने ‘स्थाणु’ ‘शूलपाणि’ के अलावा किसी के समक्ष सिर नहीं झुकाया, संभव है कि पशुपति की मूर्ति का प्रथम उद्भास इसी के समक्ष हुआ हो।
मंदसौर के पशुपति तुलना-तर्क से अनायास ही नेपाल के पशुपति की याद दिलाते हैं। उनके ‘चतुर्मुख’ की तुलना में ये ‘अष्टमूर्ति’ हैं। विष्णु धर्मोत्तर पुराण में शिव को चतुर्मुख कहा गया है किंतु ‘अष्टमूर्ति’ एक अलग किस्म की दार्शनिक संकल्पना है जो मुख की अनेकता के गणित से भिन्न है। अष्टरुद्रों की परम्परा-प्रामाणिकता सिद्ध है। शतपथ पुराण,वायु, स्कन्द, पद्म सृष्टि विष्णु, मार्कंडेय, शिव, (शतरुद्रसंहिता,) शिवमहिम्न: स्तोत्र, में भी यही अवधारणा प्रचलित रही है। जब श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ‘प्रकृतिरष्टधा’ का विवेचन किया-
भूमिरापोकनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥
या जब शिवपुराण में
शर्वो भवस्तथा रुद्र उग्रो भीम: पशुपति:।
ईशानश्च महादेव: मूर्तयश्चाष्ट विश्रुता:॥
तो भी भारतीय जीवन में प्रथित आठ की रहस्यमय संख्या का ही आलोक हुआ था। मुझे महत्वपूर्ण यह लगता है कि पशुपति का शिल्पी अपनी कल्पना का रसायन जब तैयार करने बैठा तो उसने एक से अधिक अर्थच्छवियों का घोल विकसित किया। इसलिए अष्ट प्रकृति और अष्टमृर्ति का तादात्म्य तो यहां भी वैसे ही मिलता है जैसे शिवपुराण में-
‘चराचरात्मक विश्वं धत्तै: विश्वं भरात्मिका।
शार्वीं शर्वाहृया मूर्तिरिति शास्त्रस्य निश्चय:॥
संजीवनं समस्मस्य जगत: सलिलात्मिका।
भावीति गीयते मूर्तिर्भवस्य परमात्मन:॥
वहिरंतर्गताद्विश्वं व्याप्य तेजोमयी शुभा।
रौद्रीरुद्रस्य या मूर्तिरास्थिता घोररुपिणा॥
स्पदयत्यनिलात्मेद बिभर्ति स्पदते स्वयम्।
औग्रीति कथ्यते सद्भिमूर्तिरुपस्य वेधस:॥
सर्वावकाशदा सर्वव्यापिका गगनात्मिका।
मूर्तिर्भीमस्य भीमाख्या भूतवन्दस्य भेदिका॥
सर्वात्मनाधिष्टात्री सर्वक्षेत्रनिवासिनी।
मूर्ति: पशुपतेज्र्ञेया पाशुपाशनिकृन्तनी॥
दीपयन्ती जगत्सर्व दिवाकरसमाहृया।
ईशानाख्या महेशस्त मूर्तिर्दिवि विसर्पतिं॥
आप्याययति यो विश्वममृतांशुर्निशाकर:।
महादेवस्य सा मूर्तिर्महादेवसमाहृवया॥
आत्मा तस्याष्टमी मूर्ति: शिवस्य परमात्मन:।
व्यापिकेतरमूर्तीना विश्वं तस्माच्छिवात्मकम्॥‘
(चराचरात्मक विश्व को यह पृथ्वी धारण करती है। शास्त्र का निर्णय है कि यह शिवात्मक मूर्ति है। इस संपूर्ण विश्व का जीवन जलात्मक है, शिव की मूर्ति भावी कही जाती है। बाह्यïाभ्यन्तर विश्व को व्याप्त कर उसकी तेजोमयी शुभ मूर्ति तथा घोर रूप रौद्र मूर्ति है। संपूर्ण विश्व का स्पन्दन करने वाली वायु इसका भरण-पोषण करती है और उसकी मूर्ति उग्र कहलाती है। उनकी आकाशात्मक मूर्ति सबको अवकाश देने वाली है तथा सब प्राणियों को भयदायक भीममूर्ति है, जो सब क्षेत्रवासियों के अन्त: करण में सर्वात्म रूप में स्थित है, वह पशुपति मूर्ति सब जीवों के पाश को काटने वाली है। सूर्य रूप से वे संपूर्ण विश्व को प्रकाशित करते हैं, ईशान नामक शिव मूर्ति स्वर्ग में चलने वाली है। विश्व को अपनी चांदनी से तृप्त करने वाली उनकी चंद्र मूर्ति है, वह महादेव संज्ञा वाली है। शिव की व्यापक मूर्ति इनमें आठवीं है, यह इतर मूर्ति से अधिक व्यापक होने के कारण शिवात्मक है।)
इसके साथ-साथ दूसरे अर्थों के भी ढ़ेरों शेड्स इस महिमा-मूर्ति में झांकते मिलते हैं। आठ रसों के आठ स्थायी भाव इसमें आचार्य भरत के रस शास्त्र का स्मरण दिलाते हैं तो ऊपर के चार मुख जीवन की चार अवस्थाओं का और नीचे के चार मुख चार फलों-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का। शिव की बाल अवस्था की मूर्ति ने मुझे चकित किया क्योंकि उसमें विष्णु का प्रतीक मोरपंख लगा था लेकिन तब मेरे हृदय में अकस्मात शिव-पूजा के समय दोहराए जाने वाले शिव के आठ नाम गूंजे जो वायवीय संहिता के अन्तर्गत वर्णित हैं और जिनमें एक नाम विष्णु है। एक नाम पितामह जो तत्काल शिव की वृद्ध मूर्ति से समीकृत हो जाता है। इसी तरह से वीर शैव सम्प्रदाय के आठ प्रमुख साधन, आठ आवरण भी इन अष्टमूर्तियों से समीकृत होते हैं और पितामह यहां ‘गुरु’ बन जाते हैं।
इस शिल्पी की प्रतिभा को जितना प्रणाम किया जाए, कम है किंतु उदाजी नामक उस धोबी का भाग्य भी किसी न किसी दिव्य अर्थ से संवलित है, जिसको वर्षों शिवना के गर्भ में गुप्त यह मूर्ति सर्वप्रथम प्रत्यक्ष हुई। मुझे ऐसा लगता रहा है कि सूर्य मंदिर (कोणार्क), सोमनाथ (चंद्र), नेपाल के पशुपतिनाथ (यजमान), शिवकांची का एकाम्रेश्वर क्षितिलिंग, त्रिचनापल्ली का जुम्बुकेश्वर आपलिंग (जल), तिरुवण्णमल्लै या अरुणाचल का तेजोल्लिंग, उत्तर-आर्कट का काल हस्तीश्वर वायुलिंग और चिदम्बरम् का आकाशलिंग। इन सभी आठ शिव मंदिरों की एकत्र स्मृति मंदसौर के पशुपति हैं और यह मंदिर इस तरह प्रकारान्तर से उस राष्ट्रीय और सांस्कृतिक समरसता का प्रतीक है, जिसके कारण भारत की विविधता में एकता के दर्शन होते हैं।
यह ध्यान रखने की बात है कि चाहे ‘अष्टों कला: समाख्याता अकारे सद्यजा: शिवे’ के रूप में शिव की आठ कलाओं की बात हो या ‘दलाष्टकमिहोच्यते’ के रूप में अष्ट दल कमल की यौगिक-तांत्रिक बात हो, यह अष्टमूर्ति प्रतिमा-विज्ञान और सीमांतिकी (सीमेटिक्स) के समन्वय का अद्भूत दृष्टान्त है। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने इन आठ रूपों की भाव-व्यंजना वेदों में अग्नि के आठ रूपों से मानी है। आठ रूप आठ वसु हैं, जिनका उल्लेख शतपथ ब्राह्मण (तान्येतानि अष्टों अग्निरुपाणि) तथा सांख्यायन सूत्र में किया गया है। (अष्टमूर्ति शिव महादेव द ग्रेट गॉड शिव, वाराणसी 1966) पशुपति का शिल्पकार इस समृद्ध दार्शनिक कोष का पूरा-पूरा उपयोग करता प्रतीत होता है। इसलिए तक्षण, रेखांकन, उत्कीर्णन, अनुरेखण का एक-एक बिन्दु, घुमाव, रेखा, लिप्यंकन यहां किसी न किसी नए रहस्योद्घाटन की ओर आपको धकेलता है। मसलन शिव के ‘कैशोर्य’ रूप में विषधर (सर्प) और सुधाधर (चंद्रमा) का साथ-साथ होना।
मुझे इस बात ने अक्सर चकित किया है कि इन अष्टमूर्ति भगवान को ‘पशुपति’ के नाम से ही मंदसौर में जाना गया जबकि पशुपति नाम उनकी आठ मूर्तियों में से एक है। वह एक रूप मात्र है। लेकिन तब मुझे याद आया कि पशुपति हमारी सभ्यता में शिव की प्रथमतम आकृति और अभिव्यक्ति के रूप में मान्य हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता की एक आकृति में पशुपति ढेर सारे जानवरों से घिरे बैठे हैं। ‘इंडियन आइकोनोग्राफी’ के लेखक डॉ. द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल ने यह भी लिखा-
‘शैव-संप्रदाय के अनेक अवांतर भेद हैं। उनकी दार्शनिक दृष्टि भी भिन्न है। संक्षेप में शैव-धर्म के सामान्य तीन सिद्धांत हैं जो ‘पकार’ से प्रारंभ होते हैं-पशु, पाश और पति।‘
‘पशुपति’ और ‘भूतेश’ इस तरह से शिव की सर्वाधिक लोकप्रिय ‘इमेज’ सिद्ध होते हैं। ऋग्वैदिक ‘पशुप’ भी पशुपति ही है। लेकिन इन सबके पीछे मुझे लगता है कि द्विपद और चतुष्पद से-जीव से- शिव की अनन्यता स्थापित करना ही सबसे महत्व की वस्तु है। इसलिए शिव पुराण की साक्षी हैं-
देहिनो यस्य कस्यापि क्रियते यदि निग्रह।
अनिष्टमष्टमूर्ते स्तत्कृतमेव न संशय:॥
कि किसी भी देहधारी का निग्रह करना, शिव की अष्टमूर्ति का ही निग्रह करना है और यह भी कि-
अष्टमूत्र्यात्मना विश्वमधिष्टाय स्थितंशिवम्।
भजस्व सर्वभावेन रुद्रं परमकाहणम्॥
यानी अष्टमूर्ति से संपूर्ण विश्व को व्याप्त करके स्थित हुए परम कारण रूप भगवान शिव का सर्वभाव से भजन करना ही श्रेयस्कर है। फिर वायवीय संहिता में पाशुपत सिद्धांत के अंतर्गत ही ‘नामाष्टकमय योग’ बताया गया है जिसके द्वारा सहसा ‘शैवी प्रज्ञा’ का उदय होता है। इसमें ‘भावना द्वारा नाभि में आठ आहुतियों का हवन करके पूर्णाहुति एवं नमस्कारपूर्वक आठ फूल चढ़ाकर अंतिम अर्चना पूरी कर अंजलि में लिए हुए जल की भांति अपने आपको शिव के चरणों में समर्पित करने) का निर्देश है। इसमें अध्र्य भी अष्टांग बताया गया है। यह ‘पाशुपत’ नाम दर्शन था कि अस्त्र या दोनों, यह आज भी वैसे ही निर्धारित होगा जबकि यह मूर्ति सकल है या अकल या दोनों निर्धारित की जाती रही है। पाशुपत दर्शन के ‘आठ प्रतिपाद्य’ का उल्लेख सर्वदर्शन संग्रह में है- लाभ, मल, उपाय, देश, अवस्था, विशुद्धि, दीक्षा और बल। पशुपति की यह मूर्ति इस कारण यदि इस नाम से अलंकृत हुई तो यह संयोग वृथा नहीं था, ईश्वरेच्छा ही थी।
कृष्ण और शिव दोनों ने ही दार्शनिक और वैचारिक स्तर पर भारतीय मनीषा को अत्यन्त व्यस्त और विन्यस्त किया है।
इसका अर्थ यह नहीं कि वे भारतीय रागात्मकता और हार्दिकता के अधिष्ठान नहीं रहे हैं। मुझे तो यह लगता है कि एक तरफ जैसे गोपियां कृष्णातुर हुई जाती थीं, वैसे ही वामन पुराण, कूर्मपुराण, स्कन्द पुराण, लिंग-पुराण, शिव-पुराण और पद्म-पुराण में ऋषि-पत्नियों का शिव पर न्यौछावर और मोहित हुआ जाना भी शिव के उसी ‘मैचो’ रूप का स्वीकार है। कृष्ण पुरुष की कल्चर्ड सौम्य अपील और शिव उसी की आदिम पुरुष फक्कड़ अपील के रूप में हिन्दुस्तानी हृदय को विमोहित करते रहे हैं। इसलिए मैं शिव-पूजा में रागात्मकता को विशेष अवधान के साथ अंकित करता रहा हूं।
पशुपति निश्चय ही दशपुर की इन ललनाओं में अनादि से लोकप्रिय रहे होंगे, जिसके बारे में कालिदास ने मेघदूत में अपने यक्ष को बताया है। दरअसल संस्कृति के प्रमाण सामान्यत: और निर्विशेषता, निर्वेयक्तिकता और लोकाचार में भी उतने ही हैं जितने अपवादात्मक देव-व्यक्तियों में। संस्कृति भादों की एकादशी के वक्त बहन द्वारा भाई के सोच भरे ललाट पर लगे रोली के टीके में उतनी ही फूट-फूट पड़ती है, जितनी कि तब जब भगवान पशुपतिनाथ के मंदिर से बाहर निकलती हुई मालव कन्याओं के हाथ से प्रसाद बंटता है। वह मूर्ति जितनी संस्कृति है, ये मनुष्य इनकी हाजिरी भी उतनी ही संस्कृति है। पशुपति पर जो जन-आस्था है वह बताती है कि यह प्रतिमा उत्तरगुप्तकालीन एक ऐतिहासिक घटना नहीं है, वह घटना तो इतनी सारी जनता के बीच पल-पल हो रही है, पल-पल घट रही है।