मनुष्य प्रकृति की अनुपम कृति है। मनुष्य मूलत: बुद्धि जीवी प्राणी है। स्वाभाविक है कि मनुष्य की प्रयोगवादी प्रवृति के चलते उसे स्वास्थ्य सहित विभिन्न क्षेत्रों में कई खतरों और बीमारियों का सामना करना पड़ता रहा है। यहीं चिकित्सा का प्रारंभ होता है।
प्राकृतिक चिकित्सा सर्वप्रथम औषधीय प्रयास है। प्राकृतिक चिकित्सा का वर्णन पौराणिक ग्रन्थों एवं वेदों में सुलभ है प्राकृतिक चिकित्सा के साथ ही योग एवं आसानों का प्रयोग शारीरिक एवं आध्यात्मिक तथा मानसिक आरोग्य के लिये होता रहा है ।
पतंजलि का योगसूत्र इसका एक प्रामाणिक ग्रन्थ है। भारत में ही नहीं विदेशों में भी प्राकृतिक चिकित्सा विधियों के इतिहास होने के प्रमाण मिलते है। आधुनिक चिकित्सा विधियों के विकास के फलस्वरूप इस प्राचीन चिकित्सकीय पद्धति को हम भूलते गये। प्राकृतिक चिकित्सा संसार में प्रचलित सभी चिकित्सा प्रणाली में सर्वाधिक पुरानी है। प्राचीन ग्रंथों मे जल चिकित्सा व उपवास चिकित्सा का उल्लेख मिलता है। उपवास को अचूक चिकित्सा माना जाता है, और उसके स्पष्ट त्वरित परिणाम भी दिखते हैं। महाभारत और श्री रामचरित मानस विश्व महाकाव्य हैं। ये ग्रंथ धर्म, राजनीति, संस्कृति, जीवन मूल्य, लोकाचार, पौराणिक, ऐतिहासिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक और वैचारिक ज्ञान की अनमोल थाथी है। इन ग्रंथों के अध्ययन और व्याख्या से इसमें सन्नहित न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या के गुह्यतम रहस्यों को विद्वान अनावरित करते रहते हैं।
चिकित्सा और औषधीय ज्ञान की भी अनेकानेक जानकारियां मानस तथा महाभारत से मिलती हैं। यहाँ तक कि मानसिक रोगों की चिकित्सा का उपाय भी राम चरित मानस में मिलता है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद चार वेदों में से मुख्य रूप से ऋग्वेद और अथर्ववेद में वानस्पतिक औषधियों का वर्णन सुलभ है।
अथर्ववेद को चिकित्सा शास्त्रीय ज्ञान का पहला स्रोत माना जाता है। अधिकांश वैदिक उपचारक छंद अथर्ववेद में पाए जाते है। आयुर्वेद, अथर्ववेद का उपवेद है। अथर्ववेद में बीमारियों के इलाज के लिए वानस्पतिक औषधियों के वर्णन के साथ ही कई मंत्र, तथा प्रार्थनाओं का भी वर्णन किया गया है।
आयुर्वेद ब्रह्मांड में ही सब कुछ देखता है, जिसमें मनुष्य भी शामिल है, जो पांच मूल तत्वों अंतरिक्ष, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी जिन्हें पंचमहाभूत कहा गया है, से निर्मित है।। ये पांच तत्व एक दूसरे के साथ मिलकर मानव शरीर के भीतर तीन जैव-भौतिक बलों (या दोषों) को जन्म देते हैं, वात (वायु और अंतरिक्ष), पित्त (अग्नि और जल) और कफ (जल और पृथ्वी), साथ में ये त्रिदोष के रूप में जाने जाते हैं। मन और शरीर के सभी जैविक, शारीरिक और मनोवैज्ञानिक कार्यों को नियंत्रित करते हैं। आयुर्वेद आहार, हर्बल उपचार, विषहरण, योग, आयुर्वेदिक मालिश, जीवनशैली दिनचर्या और व्यवहार पर नियंत्रण से सकारात्मक भावनाओं को उत्तेजित करता है, और इस पद्धति के संयोजन का उपयोग कर व्यक्ति के दोष के अनुसार मन और शरीर का इलाज करता है। चरक संहिता , आयुर्वेद का प्रसिद्ध पौराणिक ग्रन्थ है। यह संस्कृत भाषा में है। इसी तरह सुश्रुत संहिता भी आयुर्वेद का आधारभूत प्राचीन ग्रन्थ है। चरकसंहिता की रचना दूसरी शताब्दी से भी पूर्व की मानी जाती है। चरकसंहिता में भोजन, स्वच्छता, रोगों से बचने के उपाय, चिकित्सा-शिक्षा, वैद्य, धाय और रोगी के विषय में विशद चर्चा है।
आचार्य चरक आयुर्वेद के साथ ही अनेक शास्त्रों के ज्ञाता थे। उनका दर्शन एवं विचार सांख्य दर्शन एवं वैशेषिक दर्शन का प्रतिनिधित्व करता है। आचार्य चरक ने शरीर को वेदना, व्याधि का आश्रय माना है, और आयुर्वेद शास्त्र को मुक्तिदाता कहा है।
आरोग्यता को महान् सुख की संज्ञा दी है, कहा है कि आरोग्यता से बल, आयु, सुख, अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति होती है। समय के प्रवाह के संग मनुष्य नई नई चिकित्सा पद्धतियों का विकास करता गया किन्तु हमारे प्राचीन धार्मिक साहित्य का चिकित्सकीय वर्णन ही उन सारे नये अन्वेषण तथा खोज का आधार बना हुआ है।