श्रावण के महीने को भगवान शिव का प्रिय माना जाता है। यही कारण है, कि इस महीने में महादेव की पूजा,आराधना का विशेष महत्व होता है। श्रावण के इस पवित्र, पावन महीने में बिहार और झारखंड में भगवान शिव की पूजा कुछ अलग ही अंदाज में की जाती है।
श्रावण मास के प्रारंभ होते ही प्रत्येक वर्ष बिहार और झारखंड का पूरा क्षेत्र केसरिया वस्त्रधारी शिव-भक्तों की आवाजाही व बोल बम के नारों से गुंजायमान हो उठता है।
इन शिवभक्तों को कांवडिय़ों के रुप में जाना जाता है।यहां कांवडि़ए बिहार के सुल्तानगंज से जल लेकर 110 किलोमीटर की लंबी पैदल यात्रा तय करते हैं और नाचते-गाते बाबा बैद्यनाथ के धाम की ओर प्रस्थान करते हैं। पूरे श्रावण मास में बिहार-झारखंड सहित बंगाल,असम, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के अलावा पड़ोसी देश नेपाल से भी प्रतिदिन हजारों की संख्या में शिव-भक्त कांवडि़ए बिहार के भागलपुर जिले के सुल्तानगंज नामक स्थान पर आते हैं और यहां से उत्तरवाहिनी गंगा का पवित्र जल अपनी कांवड़ों में लेकर नियम-निष्ठापूर्वक खुले पांव पैदल चलकर इसे झारखंड के देवघर स्थित वैद्यनाथ द्वादश ज्योतिर्लिंग पर अर्पित कर अपने कष्ट-व्याधियों को दूर करने तथा मनोवांछित फलों की प्राप्ति की कामना करते हैं।
वैद्यनाथ धाम स्थित देवघर के ऐतिहासिक विवरण का उल्लेख शिवपुराण में है। यहां द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक विश्व प्रसिद्ध बाबा वैद्यनाथ विराजमान है। शिवपुराण में वर्णित द्वादश ज्योर्तिलिंगों मेें इसका वैद्यनाथ चिताभूमि के रूप में वर्णन है। यह मात्र संयोग नहीं है कि देवघर भी शिव की चिताभूमि के रूप में जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि यहां माता सती का हृदय गिरा था। शिव पुराण के अनुसार यहीं पर माता के हृदय का दाह-संस्कार किया गया था और तब बाबा बैद्यनाथ (भगवान शंकर) ने माता सती के वियोग में उसी राख में लोट-लोटकर पूरे अंग को भस्म विभूषित कर लिया था। इसलिए भस्म का यहां विशेष महत्व है। यहां आने वाले श्रद्धालुओं को प्रसाद के रूप में भस्म भी दिया जाता है। मान्यता यह भी है कि इस भस्म को अपने ललाट पर लगाकर किसी भी कार्य के लिए निकले वह कार्य पूर्ण होता है। मनोवांछित फलों की प्राप्ति भस्म को अपने ललाट पर लगाने से होती है। देवघर के तीर्थ पुरोहित श्रीनाथ महाराज के मुताबिक सावन और भादो में तीर्थ पुरोहित अपने यजमान को हवन से प्राप्त भस्म देते हैं। भगवान शिव का यह पीठ ऊर्जा का उद्गमस्थल है, शक्ति का केन्द्र है। देवर्षि नारद ने हनुमान से बैद्यनाथ धाम की महिमा का वर्णन करते हुए कहा है कि यही एक मात्र स्थान है जहां शिव बिना पात्र-कुपात्र, पापी पुण्यात्मा का विचार किए सबकी कामना पूर्ण करते हैं।
बाबा वैद्यनाथ के प्रादुर्भाव की कथा भी कौतुहलपूर्ण और अनोखी है। इस लिंग की स्थापना का इतिहास यह है कि एक बार असुरराज रावण ने हिमालय पर जाकर शिवजी की प्रसन्नता के लिये घोर तपस्या की और अपने सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ाने शुरू कर दिये। एक-एक करके नौ सिर चढ़ाने के बाद दसवां सिर भी काटने को ही था कि शिवजी प्रसन्न होकर प्रकट हो गये। उन्होंने उसके दसों सिर ज्यों-के-त्यों कर दिये और उससे वरदान माँगने को कहा। रावण ने लंका में जाकर उस लिंग को स्थापित करने के लिये उसे ले जाने की आज्ञा माँगी। शिवजी ने अनुमति तो दे दी, पर इस चेतावनी के साथ दी कि यदि मार्ग में इसे पृथ्वी पर रख दिया जाएगा तो यह वह वहीं अचल हो जाएगा। अन्ततोगत्वा वही हुआ। रावण शिवलिंग लेकर चला पर मार्ग में एक चिताभूमि आने पर उसे लघुशंका निवृत्ति की आवश्यकता हुई। रावण उस लिंग को एक व्यक्ति को थमा लघुशंका-निवृत्ति करने चला गया। इधर उस व्यक्ति ने ज्योतिर्लिंग को बहुत अधिक भारी अनुभव कर भूमि पर रख दिया। फिर क्या था, लौटने पर रावण पूरी शक्ति लगाकर भी उसे न उखाड़ सका और निराश होकर मूर्ति पर अपना अँगूठा गड़ाकर लंका को चला गया। इधर ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने आकर उस शिवलिंग की पूजा की और सभी देवी देवताओं ने शिवलिंग की वहीं उसी स्थान पर प्रतिस्थापना कर दी और शिव-स्तुति करते हुए वापस स्वर्ग को चले गये।
जनश्रुति व लोक-मान्यता के अनुसार यह वैद्यनाथ-ज्योतिर्लिंग मनोवांछित फल देने वाला है। लंकापति रावण के द्वारा स्थापित होने के कारण ये रावणेश्वर वैद्यनाथ भी कहलाते हैं। शुद्ध हृदय से पूजा करने पर ये बड़ी सहजता से प्रसन्न हो उठते हैं और भक्तों की मनोकामनाएं पूरी करते हैं।इस कारण मनोकामना लिंग के नाम से भी इनकी प्रसिद्धि है। बाबा वैद्यनाथ की पूजा अत्यंत सरल है। निर्मल हृदय से फूल और बेलपत्र के साथ शिवलिंग पर उत्तरवाहिनी गंगा का जल अर्पित करो और बाबा प्रसन्न। तभी तो श्रावण मास के आते ही भक्तगण देश के कोने-कोने से कातर भाव से यहां शिवपूजन हेतु खिंचे चले आते हैं। देवघर तो आधुनिक नाम है जिसका शाब्दिक अर्थ है देवताओं का घर पर संस्कृत ग्रंथों में इसका उल्लेख हृदयपीठ, रावण वन, हरितिकी वन या वैद्यनाथ के नाम से मिलता है। अघोर साधना का महत्वपूर्ण स्थान होने के कारण देवघर का तांत्रिक साधना के लिए कामाख्या के बाद स्थान आता है।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भगवान शिव को जल अत्यंत प्रिय है। सुल्तानगंज में आकर गंगा उत्तरवाहिनी हो जाती जो कि बहुत ही पवित्र मानी जाती है। यही कारण है कि अपने इष्टदेव को प्रसन्न करने हेतु प्रति वर्ष बड़ी संख्या में शिव-भक्त कांवडि़ए सुल्तानगंज से जल लेकर वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग पर अर्पित करने हेतु यहां आते हैं। सुल्तानगंज से जल लेकर देवघर में अर्पित करने की परम्परा काफी पुरानी है। ऐसी मान्यता है कि सर्वप्रथम भगवान श्रीराम चन्द्र ने सुल्तानगंज से जल लेकर वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग पर अर्पित किया था और तब से ही इस परम्परा की शुरुआत हुई जो आज तक जारी है।
श्रावण का महीना शुरू होते ही देश के विभिन्न हिस्सों से प्रतिदिन हजारों शिव-भक्तों की आवाजाही सुल्तानगंज में शुरू हो जाती है। सुल्तानगंज से लेकर देवघर तक के 110 किमी के क्षेत्र में बिहार राज्य के भागलपुर, मुंगेर व बांका जिलों के तथा झारखंड राज्य के देवघर व दुमका जिलों के क्षेत्र पड़ते हैं। पूरे श्रावण मास में बिहार-झारखंड की राज्य सरकारें और संबंधित जिला प्रशासन दिन-रात शिव भक्तों की सुविधा एवं सुरक्षा, आवासन, पेयजल, चिकित्सा, परिवहन आदि की व्यवस्था में लगी रहती हैं। पूरे 110 किमी लम्बे कांवडिय़ां मार्ग पर भक्ति की डोर में बंधे श्रद्धालुओं की अटूट श्रृंखला निरंतर चलायमान रहती जो लोक-आस्था के महामेले का स्वरूप धारण कर लेता है जो अपने आप में अनूठा है।
सुल्तानगंज आकर भक्तगण सर्वप्रथम यहां की उत्तरवाहिनी गंगा में स्नान करने के बाद अपनी कांवड़ों की साज-सज्जा करते हैं। फिर कांवड़ की पूजा कर अजगैबीनाथ महादेव के दर्शन करते हैं। तत्पश्चात अपने कंधे पर कांवड़ लेकर बोल बम और हर-हर महादेव का उद्घोष करते हुए देवघर की ओर प्रस्थान करते हैं। शिवभक्ति से ओतप्रोत इन कांव?ियां श्रद्धालुओं में गजब का उत्साह देखने को मिलता है। सुल्तानगंज से चलने के बाद 110 किमी के मार्ग में बिहार के भागलपुर, मुंगेर और बांका जिलों के असरगंज, कुमरसार, जिलेबिया, अबरखा, इनारावरण और गोडय़िारी नामक स्थान पड़ते हैं। इसके बाद वे पहाड़ी गोडय़िारी नदी पार कर झारखंड की सीमा में प्रवेश करते हैं जहां से देवघर की दूरी 17 किमी है। देवघर स्थित वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग पर गंगा के पवित्र जल के अर्पण के बाद भक्तों की कांवड़ यात्रा पूरी होती है। सामान्यत: भक्तगण तीन से चार दिनों में देवघर की पैदल-यात्रा तय करते हैं। ऐसे यात्री रास्ते में विश्राम करते हुए चलते हैं। पर कुछ लोग अनवरत दौड़ लगाते हुए चौबीस घंटे में यह दूरी तय करते हैं, जो डाक बम कहलाते हैं।
प्रत्येक वर्ष बिहार और झारखंड के क्षेत्र में लगनेवाला यह महामेला सिर्फ भक्ति व श्रद्धा का धार्मिक अनुष्ठान ही नहीं, वरन् यह हमें शहरों के शोरगुल तथा प्रदूषण से दूर कुछ पल प्रकृति के साहचर्य में गुजारने का मौका भी देता है, जो हममें एक नयी ताजगी और ऊर्जा भर देता है। सुल्तानगंज की पवित्र उत्तरवाहिनी गंगा से प्रारंभ होनेवाली यह यात्रा देवघर की शिव गंगा में जाकर पूर्ण होती है जिसके बीच मार्ग में बाग-बगीचे, हरे-भरे खेत व मैदान, पर्वत-पहाड़, नदी-नाले, पशु-पक्षी सभी मिलते हैं। बीच-बीच में सावन की रिमझिम फुहारें। श्रावणी मेले की कांवड़ यात्रा में जहां एक ओर मन को एक अपूर्व भक्तिमिश्रित शांति मिलती है, वहीं तन में भी नयी ऊर्जा का संचार हो जाता है जो इसमें सम्मिलित होकर ही महसूस किया जा सकता है।