हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था एवं जाति परम्परा की आलोचना करना आज एक फैशन सरीखा हो गया है, पर इस धर्म में कई तीर्थ स्थान ऐसे भी हैं, जहां वर्ण एवं जाति का कोई भेदभाव नहीं किया जाता है। इन स्थानों पर प्रारम्भ से ही सभी जातियों एवं वर्णों को पूजा-अर्चना एवं उपासना का अधिकार है।
इन स्थानों में पुरी का जगन्नाथ मंदिर विशेष उल्लेखनीय है। कहा तो यहां तक जाता है कि यदि इस मंदिर में कोई छुआछूत करता है तो उसे कोढ़ हो जाता है। इसीलिए यह लोकोक्ति प्रचलित हुई ‘‘जगन्नाथ का भात जगत पसारे हाथ।’’ अर्थात भगवान जगन्नाथ का प्रसाद पाने एवं पूजा करने का अधिकार सबको है। भारतीय धर्मग्रंथों में जिन पवित्र नगरों (पुरियां) का उल्लेख मिलता है, उनमें पुुरी भी एक है। इस क्षेत्र को विभिन्न धर्मग्रंथों में उचिष्ट क्षेत्र, उड्डीयन पीठ, पुरूषोत्तम क्षेत्र, जामनिक तीर्थ, शंख क्षेत्र, नीलाद्रि, श्री क्षेत्र, मत्र्य बैकुण्ठ, उत्कल एकाग्र क्षेत्र आदि भी कहा गया है। इस क्षेत्र में प्रतिष्ठित भगवान जगन्नाथ या जगदीश स्वामी की विशेषता यह है कि इनकी पूजा का उल्लेख, इतिहास में इस रूप में मिलता है कि पहले इनकी पूजा गिरिजनों एवं अबोध तथा अशिक्षित आदिवासियों द्वारा की जाती थी। बाद में सभी वर्ण इनकी पूजा और उपासना करने लगे।
पुरी के जगन्नाथ मंदिर की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि इस पर आक्रांताओं ने आक्रमण तो अनेक बार किए, पर वे मंदिर की सीमा में भी प्रवेश नहीं कर सके। इसका सबसे बड़ा कारण यही था कि इसकी रक्षा के लिये सभी जातियों एवं वर्णों के भक्तों ने अपने प्राणों की आहुति दी। इस मंदिर के साथ हजारों आदिवासियों के बलिदान की गाथा जुड़ी हुई है।
भगवान जगन्नाथ के पुरी में विराजमान होने की कथाएं कई धर्मग्रंथों में मिलती हैं। एक कथा के अनुसार द्वारिका में एक बार भगवान श्री कृष्ण की पटरानियों ने माता रोहिणी से आग्रह किया कि वे गोपियों के साथ ब्रज भूमि में भगवान श्री कृष्ण की रासलीला और प्रेम का वर्णन सुनायें। इस आग्रह ने जब हठ का रूप धारण कर लिया तो माता रोहिणी तैयार हो गयी। पर उस समय श्रीकृष्ण की बहिन सुभद्रा, मां रोहिणी के पास बैठी हुई थी। माता रोहिणी को यह अनुचित लगा कि वे बहिन (सुभद्रा) के सामने भाई (श्रीकृष्ण) की रासलीलाओं का वर्णन करें। उन्होंने सुभद्रा से कहा कि तुम द्वार पर जाकर खड़ी हो जाओ, क्योंकि श्री कृष्ण आने वाले हैं। जब तक हमारी आज्ञा नहीं हो तब तक दरवाजे पर ही खड़ी रहना तथा किसी को (श्री कृष्ण को भी) भीतर नहीं आने देना।
सुभद्रा द्वार पर खड़ी हो गयीं। तभी भगवान श्री कृष्ण एवं बलराम आ गये। सुभद्रा ने दोनों भाइयों को अपने दोनों हाथ फैलाकर उन्हें द्वार में प्रवेश करने से रोका। इसी समय देवर्षि नारद भी आ पहुंचे। उन्होंने दोनों भाईयों एवं बहिन को देखा तो कहा कि कितना अलौकिक दृश्य है। दोनों भाई एवं बहिन एक साथ दर्शन दे रहे हैं। जो भी आप तीनों का एक साथ दर्शन करेंगे, वे सौभाग्यशाली होंगे। नारद ने इन तीनों की स्तुति की तथा यह वरदान मांगा कि आप तीनों भक्तों के कल्याण के लिये इस रूप में दर्शन दें। नारद की यह प्रार्थना इन तीनों ने यह कहते हुए मान ली कि हम कलियुग में इसी रूप में प्रकट होकर अपने भक्तों का उद्धार करेंगे।
धर्मग्रंथों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण, बलराम और भगिनी सुभद्रा अपने इस वरदान की पूर्ति के लिये उत्कल प्रदेश के नीलांचल पर्वत पर भगवान नील माधव के रूप में अवतरित हुए। उनके श्री विग्रह (प्रतिमा) की पूजा अर्चना देवता करते थे। उसी समय मालवा क्षेत्र पर राजा इन्द्रधुम्न शासक थे। (कुछ ग्रंथों में उन्हें उत्कल का शासक भी बताया गया है।) वे भगवान विष्णु के परम भक्त एवं उपासक थे। उन्हें जब भगवान नीलमाधव के अवतरण का पता चला तो उन्होंने चारों दिशाओं में दूत भेजकर पता चलवाया कि यह श्री विग्रह कहां स्थापित हैं? विद्यापति नामक एक ब्राह्मण के माध्यम से उन्हें पता चला कि भगवान नीलमाधव का यह श्री विग्रह उत्कल प्रदेश में नीलांचल पर्वत पर प्रतिष्ठित है। महाराज इन्द्र धुम्न इस श्रीविग्रह के दर्शनों के लिये परिवार सहित नीलांचल पर्वत के लिये प्रस्थित हुए। इन्द्रधुम्न के आगमन का समाचार मिलते ही देवता उस श्री विग्रह को देवलोक ले गए और नीलांचल पर्वत भूमि में धंस गया।
राजा इन्द्रधुम्न जब पर्वत के पास पहुंचे तो भगवान नीलमाधव के अदृश्य होने के समाचार से बहुत दुखी हुए। पर उन्होंने आशा नहीं छोड़ी, और परिवार सहित उसी स्थान पर बस गये। राजा की इस भक्ति को देखते हुए देवताओं ने आकाशवाणाी की कि तुम धैर्य धारण करो। तुम्हें भगवान नीलमाधव अवश्य मिलेंगे। इसी आशा में राजा इन्द्रधुम्न ने भगवान जगन्नाथ का मंदिर बनवाना प्रारंभ किया। पर इस मंदिर पर अधिकार करने के प्रश्न पर उनका राजा गालमाधव से विवाद हो गया। धर्मग्रंथों में इसके दो कारण बताए जाते हैं। पहिला कारण तो यह बताया गया कि गालमाधव उत्कल प्रदेश का शासक था। वह नहीं चाहता था कि किसी दूसरे राज्य का शासक उसके राज्य में मंदिर बनवाए। दूसरा कारण यह बताया जाता है कि मंदिर का निर्माण करने के लिये ब्रह्मा को लेने राजा इन्द्रधुम्न ब्रह्म लोक गए और जब राजा इन्द्रधुम्न ब्रह्मा को लेकर लौटे तब तक उनके कई उत्तराधिकारी सत्ता सम्हाल कर इस भूलोक से जा चुके थे। इस विवाद को कागभुशुन्डि ने सुलझाया तथा मंदिर पर राजा इन्द्रधुम्न का अधिकार बताया।
मंदिर का जब निर्माण पूरा हो गया तो राजा इन्द्रधुम्न ने ब्रह्मा से प्रार्थना की कि मंदिर में भगवान नीलमाधव की प्रतिमा प्रतिष्ठित की जाएं। पर ब्रह्मा ने यह प्रार्थना अस्वीकार कर दी तथा कहा कि भगवान नीलमाधव अपनी ही इच्छा से प्रकट होंगे। ब्रह्मा ने मंदिर के ऊपर एक चक्र तथा ध्वज प्रतिष्ठित किया। यह ध्वज और चक्र अब ‘‘नीलचक्र’’ कहलाता है। पर इसके बाद भी भगवान नीलमाधव प्रकट नहीं हुए। राजा इन्द्रधुम्न ने भगवान नीलमाधव को इस धरती पर अवतरित करने के लिये तपस्या प्रारम्भ की। वे कुश की शैय्या पर सोने लगे तथा कठोर व्रत (उपवास) प्रारम्भ कर दिया। एक दिन भगवान नीलमाधव ने स्वप्न में आकर राजा इन्द्रधुम्न से कहा कि अब तुम्हारी निराशा के दिन समाप्त हो गये हैं। मैं दारू ब्रह्म की लकड़ी के रूप में आ रहा हूं। उसी लकड़ी से तुम मेरी प्रतिमाएं बनवाकर स्थापित करना।
दूसरे दिन भगवान द्वारा निर्देशित स्थान पर दारू ब्रह्म की एक बहुत बड़ी लकड़ी समुद्र में बहती हुई आयी, जिस पर भगवान विष्णु के प्रतीक चिन्ह शंख, चक्र, गदा और पद्म अंकित थे। राजा इन्द्रधुम्न ने अनेक कुशल कारीगरों से प्रतिमाएं बनवाने का प्रयास किया पर सफलता नहीं मिली।
राजा इन्द्रधुम्न फिर निराश होने लगे, तभी स्वर्ग से विश्वकर्मा का एक बूढ़े बढ़ई के रूप में अवतरण हुआ। उन्होंने राजा से कहा कि वे 21 दिनों के भीतर प्रतिमाएं बना देंगे। पर प्रतिमाओं का निर्माण वे एकांत में करेंगे तथा जिस महल में वे प्रतिमाएं बनायेंगे, उस महल के द्वार 21 दिन के पहिले किसी भी हालत में नहीं खोले जाएं। 21वें दिन महल के द्वार खुलेंगे तब तक प्रतिमाओं का निर्माण हो चुकेगा। बूढ़े बढ़ई का रूप धारण किए विश्वकर्मा ने अपना कार्य प्रारम्भ किया। राजा इन्द्रधुम्न अपनी महारानी के साथ महल के बाहर खड़े होकर मूर्तियों के निर्माण की आवाज सुनते रहे। दो सप्ताह बाद राजा को आवाज सुनाई पडऩा बंद हो गया। महारानी को शंका हुई कि इतने दिनों में बूढ़ा बढ़ई कहीं भूख प्यास से मर तो नहीं गया हो। राजा इन्द्रधुम्न ने रानी को बहुत समझाया, पर रानी हठ करती रही, नतीजे में दरवाजा खुलवाया गया तो बढ़ई तो लापता था पर भगवान जगन्नाथ, बलराम एवं सुभद्रा की अपूर्ण प्रतिमाएं वहीं थीं। इन प्रतिमाओं के हाथ और पैर नहीं थे।
राजा इन्द्रधुम्न ने इन प्रतिमाओं की अपूर्णता के लिए अपने आपको दोषी माना। उन्होंने पुन: कठोर उपवास शुरु किए। उसी समय आकाशवाणी हुई कि राजा इन्द्रधुम्न तुम अपने आपको दोषी मत समझो। मैं बिना हाथ और पैर के अपने भक्तों की भक्ति एवं सेवा को स्वीकार करता रहूंगा। मेरी इसी रूप में इस मंदिर में प्रतिष्ठित होने की इच्छा है। पुरी में जिस स्थान पर भगवान जगन्नाथ, बलराम और देवी सुभद्रा की प्रतिमाओं का निर्माण हुआ, उसे जनकपुर या ब्रह्मलोक कहते हैं तथा यह गुडीचा मंदिर के पास है।
भगवान जगन्नाथ का वर्तमान मंदिर देश के विशालतम मंदिरों में से एक है। इतिहासकारों के अनुसार वर्तमान विशाल मंदिर का निर्माण सन् 1100 ईसवी के आसपास उत्कल के तत्कालीन नरेश महाराज अनंत वर्मन ने प्रारंभ कराया था।
प्रति बारह से अठारह वर्ष के अंतराल में भगवान जगन्नाथ, भगवान बलराम एवं भगवती सुभद्रा की नई प्रतिमाएं प्रतिष्ठित होती है। इन प्रतिमाओं का निर्माण उन दारू वृक्षों से होता है जिन पर शंख, चक्र, गदा एवं पद्म के चिन्ह प्राकृतिक रूप से उत्कीर्ण होते हैं।
भगवान जगन्नाथ, जगदीश स्वामी भी कहे जाते हैं। पुरी स्थित उनके मंदिर में उन्हें आठ बार भोग लगाया जाता है। इस भोग में 56 व्यंजन होते हैं, पर प्रमुखता भात (चावल) की ही रहती है। मंदिर के द्वार 24 घंटे में से 21 घंटे खुले रहते हैं।
मंदिर में प्रवेश के लिये हिन्दू होना अनिवार्य है, पर वहां जाति एवं वर्ण का प्रतिबंध प्रारंभ से ही नहीं है। इसीलिए शताब्दियों से देश के कोने-कोने से भक्त जन भगवान जगन्नाथ या जगदीश स्वामी के दर्शनों के लिये पहुंचते हैं। यह क्रम सदियों से जारी है। उस समय से जब इस देश में रेल एवं बसें तक नहीं थी।
भगवान जगन्नाथ स्वामी लौकिक एवं अलौकिक दोनों ही कामनाओं की पूर्ति करने वाले कहे जाते हैं। मेरे दादा (पितामह) मध्यप्रदेश के एक गांव में निवास करते थे, पर वे उस समय (कोई सवा सौ वर्ष पूर्व) जगन्नाथ स्वामी के दर्शनार्थ पहुंचे थे। वे जिस कामना को लेकर गये थे, वह पूरी हुई तथा चार पुत्रियों के बाद उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई थी। आज भी अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिये प्रतिदिन हजारों नर-नारी जगन्नाथ पुरी पहुंचते हैं। जगन्नाथ पुरी की रथ यात्रा सारे भारत में प्रसिद्ध है। इस संबंध में एक धार्मिक कथा मिलती है। एक बार सुभद्रा ने भ्रमण की इच्छा व्यक्त की। इसके लिये भगवान श्री कृष्ण ने तीन रथ बनवाए थे। इन रथों पर भगवान श्रीकृष्ण, सुभद्रा एवं बलराम ने भ्रमण किया था।
उस दिन आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया थी। उसी भ्रमण की स्मृति में जगन्नाथपुरी में रथ यात्रा निकाली जाती है। इस रथ यात्रा का एक प्रतीकात्मक महत्व भी है। उस दिन रथ के सामने पुरी के महाराजा को झाड़ू लगाना पड़ता है। इसका अर्थ यह भी है कि भगवान जगन्नाथ के सामने राजा और रंक सभी समान है। उनके भक्तों की न कोई जाति है और न वर्ण। उनके सामने शूद्र पूजा कर सकता है और राजा को झाड़ू लगाना होता है।
जगद्गुरू शंकराचार्य ने जगन्नाथ पुरी के इस महत्व को समझा था। इसीलिए उन्होंने जिन चार पीठों की स्थापना की, उनमें एक पीठ जगन्नाथ पुरी में भी है। कलियुग में जगन्नाथ पुरी का महत्व बताते हुए कुछ धर्मग्रंथ कहते हैं कि सतयुग का धाम बद्रीनाथ, त्रेतायुग का धाम रामेश्वरम्, द्वापर युग का धाम द्वारिका तथा कलियुग का धाम जगन्नाथ पुरी है। जहां बिना किसी कर्मकांड के मात्र दर्शन से ही भगवान जगन्नाथ स्वामी प्रसन्न होते हैं तथा अपने भक्तों की लौकिक-अलौकिक मनोकामनाओं की पूर्ति करते हैं।