विषैले जंतुओं से कैसे बचा जा सकता है

हमारे देश में प्रतिवर्ष हजारों लोग विषैले जंतुओं के काटने अथवा उनके डंक मार देने से प्राथमिक उपचार और जानकारी के अभाव में दम तोड़ देते हैं, ये विषैले जंतु कौन-कौन से होते हैं और इनके काट लेने अथवा डंक मार देने पर हमें क्या करना चाहिए इस सम्बन्ध में सामान्य जानकारी हम यहां दे रहे हैं। अधिकतर लोग इन जहरीले जंतुओं के प्रति अनभिज्ञ होते हैं और अंधविश्वासों में पड़कर जहर से ग्रसित व्यक्ति का तत्काल प्राथमिक उपचार नहीं करते हैं। यह बात कई बार जानलेवा सिद्ध होती है। कुछ जंतुओं के काटने से कोई कष्टï तो नहीं होता परंतु कुछ अन्य जंतुओं के काटने से रोगों का आक्रमण होता है, कुछ के काटने से शरीर को असहनीय पीड़ा होती है और कुछ का काटना या डंक मारना घातक होता है। ऐसे जंतुओं में पिस्सू, जूं, खटमल, चीटी, बर्रे, बिच्छू, मकड़ी, सांप, कुत्ता, सियार, बंदर, मछली तथा अन्य अनेक जीव आते हैं। पिस्सू के काटने से प्लेग होता है, खटमल के काटने से काला आजार और टाइफाइड तथा मच्छर के काटने से मलेरिया होता है। फाइलेरिया भी मच्छरों द्वारा हो सकता है। मधुमक्खी और बर्रे के डंक मारने तथा चींटी के काटने से पीड़ा होती है। कभी-कभी इनका डंक मारना घातक भी होता है। बिच्छू के डंक मारने से बड़ी पीड़ा होती है कुछ तो इतने जहरीले होते हैं कि प्राण भी जा सकते हैं। कुछ सांपों का काटना विषैला होता है और उससे मृत्यु हो जाती है। भारत में हजारों व्यक्ति प्रतिवर्ष सांप के काटने से मरते हैं। पागल कुत्ते या सियार के काटने से जलसंत्रास या हाइड्रोफोबिया हो जाता है, जिससे मनुष्य मर जाता है। यदि ये पागल जानवर किसी स्वस्थ जानवर को काट लेते हैं तो वे भी पागल हो जाते हैं और मनुष्यों के लिए खतरा बन जाते हैं।
मधुमक्खी, चींटी, बर्रे का दंश प्राय: एक-सा ही होता है। इनमें  लाली, दर्द एवं खुजलाहट होती है। इनके विष घातक नहीं हैं फिर भी कभी-कभी व्यक्ति को चेतनाशून्य कर देते हैं, जिससे मृत्यु भी हो सकती है। दंश स्थान को किसी क्षार, बुझा चूना, सोडियम बाइकार्बोनेट, लिकर ऐमोनिया, स्मेलिंगसाल्ट या ऐलर्जीरोधी मरहम लगाया जा सकता है।
बिच्छू:-
बिच्छू का डंक मारना कष्टकारक होता है। हृदय नाड़ी तथा रक्त संचार पर इसका विशेष प्रभाव पड़ता है। इससे तीव्र पीड़ा, जलन, मिचली, वमन, मांसपेशियों में ऐंठन होने जैसे लक्षण प्रकट होते हैं। छोटे बच्चों के लिए यह घातक भी हो सकता है। ऐसे समय में जहां पर बिच्छू ने डंक मारा है उस जगह से चार इच ऊपर रुमाल बांधकर दंश स्थान को चीरकर रक्त निकाल देना चाहिए और लिकर ऐमोनिया या स्मेलिंग साल्ट सुंधाना और बर्नाल मरहम या स्पिरिट लगाना लाभदायक रहता है। प्राथमिक उपचार के पश्चात्ï चिकित्सीय मदद लेना चाहिए।
गोजरदंश:-
बहुसंख्यक पैरों वाला गोजर भी काटता है। इसके पैरों के प्रथम जोड़े विषदंत का कार्य करते हैं ये दंश स्थान पर चिपक जाते हैं जिन्हें निकालना कठिन होता है। इसके विष का प्रभाव पूरे शरीर पर पड़ता है। दंश स्थान पर वेदना होती है। चक्कर आने लगता है। वमन तथा सिर दर्द होने लगता है। बिच्छू दंश की तरह इसका भी उपचार किया जाता है।
मकड़ी का दंश:-
प्राय: सभी मकडिय़ों में विषग्रंथि होती है। जहां पर यह काटती है, वहां पर लाल उभार वाला छाला दिखाई देता है। मांसपेशियों में संकोच होता है, जिससे पेट में ऐठन, नाड़ीगति में तीव्रता अथवा चमड़ी पर छाले हो जाते हैं। नाड़ीमूल के आक्रांत होने पर नाड़ी मंडल में दर्द उत्पन्न हो जाता है। प्राथमिक उपचार के रूप में पोर्टेंशियम परमैगनेट का विलयन दंश स्थान पर लगाते हैं और शेष उपचार बिच्छू दंश की तरह ही किया जाता है।
कुत्ते का काटना:-
पागल कुत्ते के काटने से जलसंत्रास या हाइड्रोफोबिया हो जाता है। यह जान लेवा होता है। ऐसा व्यक्ति जिसे पागल कुत्ते ने काट लिया है और वह उक्त बीमारी का शिकार हो जाता है तो जल पीने, जल देखने और उसके नाममात्र से डरने लगता है। पागलों जैसी हरकतें भी कर सकता है। जल या किसी अन्य पेय या खाद्य को देखकर रोगी के भयभीत होने की स्थिति को हाइड्रोफोबिया कहा जाता है। पागल कुत्ते के काटने के प्राय: 40 दिनों में यह उत्पन्न हो सकता है। शिशु और बालकों में तो कुछ ही दिनों में प्रकट हो सकता है। रोग की प्रथम अवस्था में दो-तीन दिन तक रोगी का मन उदास रहता है। उसे भूख नहीं लगती और वह भयभीत-सा रहता है। प्रकाश अच्छा नहीं लगता नींद भी नहीं आती। कुछ भी निगलने में गले में पीड़ा होती है। इसलिए वह कुछ भी खाना नहीं चाहता, वह जल पीने तक का साहस नहीं करता। पेशियों में विशेषकर कंठ की पेशियों में ऐंठन होती है। निगलने की क्रिया में काम आने वाली ग्रीवा को अन्य पेशियों में दारूण पीड़ा युक्त ऐंठन होती है। रोगी को बुखार हो जाता है। कितने ही रोगियों को ऐंठन के साथ उन्माद हो जाता है। रोगी बकने-झकने लगता है। कुछ रोगियों में ज्वर नहीं भी होता है। यह अवस्था दो-तीन दिन तक रहती है। रोग बढऩे पर पेशी समूह अकर्मण्य हो जाता है और ऐंठन कम हो जाती है। संस्लंभि (नाड़ी का धीमे होना) होकर मांस पेशी ढीली होने लगती है। रोगी अचेत हो जाता है। अंत में सब पेशियों के संस्तंभन गति का सहसा रुकने के कारण हृदयावसाद से रोगी की मृत्यु हो जाती है। यह अवस्था 6 से 18 घंटे तक रहती है। यह रोग कुत्ते, सियार, लोमड़ी, बिल्ली, गाय और घोड़ों को भी होता है। मनुष्य को प्राय: कुत्ते के काटने से होता है। रोग का निदान कठिन नहीं होता परंतु प्रारंभ में इसका उपचार करने से यह संभव होता है। रोग का कारण एक प्रकार का विषाणु होता है जो तंत्रिका तंत्र को विशेषकर तंत्रिकाओं से प्रेरक मूलों को आक्रांत करके मरूरज्जू में भर जाता है इसके कारण मस्तिष्क में विशेष आकार के पिंड बन जाते हैं, जिनका नेग्री नामक विद्वान ने सबसे पहले वर्णन किया था इस कारण इनको नेग्री पिंड कहा जाता है। इस रोग की कोई चिकित्सा नहीं पांच-सात दिनों में रोगी की मृत्यु हो जाती है परंतु रोग को रोकना सहज और निश्चित है। इस रोग की चिकित्सा मृत कुत्तों की मेरूरज्जु से तैयार किये टीके इंजेक्शन 14, प्रतिदिन एक के क्रम से लगाए जाते हैं। वर्तमान में अन्य विकसित इंजेक्शन आ जाने से अब 14 इंजेक्शनों की आवश्यकता नहीं पड़ती। कुत्ता काटने के तुरंत बाद ही इंजेक्शन देना प्रारंभ किया जाना चाहिए परंतु कुत्ता पागल हो तभी  वरन् इसकी आवश्यकता नहीं होती। पागल कुत्ते का पता 10 दिन में लग जाता है यदि कुत्ता दिखाई न दे तो भी इंजेक्शन आवश्यक हो जाता है। इस टीके का आविष्कार सबसे पहले लुईपेस्टर ने किया था। प्राथमिक उपचार में कुत्ते के काटे हुए स्थान पर साबुन के पानी से फिर हाइड्रोजन परॉक्साइड या प्रबल पोर्टेशियम परमैगनेट के विलयन से घाव को धोया जाता है। कार्बोलिक अम्ल से घाव को जलाकर ऐंटिरैबिक की सुई दी जाती है।
सर्पदंश:-
विषैले जंतुओं के दंश में सबसे अधिक सर्प के काटने से मृत्यु होती है। कुछ सांप, विषैले नहीं होते और कुछ विषैले होते हैं। समुद्रीय सांप साधारणत: विषैले होते हैं परंतु वे शीघ्र नहीं काटते हैं, विषैले सांपों में नाग कोबरा, काला नाग, नागराज (किंग कोबरा) करेत, कोरल वाइपर, रसेल वाइपर, ऐडर, डिस फालिडस, मांवा वाइटिस गेवोनिका, रेटल स्नेक, काटेलस हॉरिडस आदि हैं। विषैले सांपों का विष एक जैसा नहीं होता है। कुछ विष तंत्रिकातंत्र को आक्रांत करते है तो कुछ रक्त को और कुछ तंत्रिकातंत्र और रक्त दोनों आक्रांत करते है।
सांपों के विषैले होने न होने की पहचान कुछ हद तक इनके अंगों से हो सकती है। विषैले सर्प के सिर पर के शल्क छोटे होते हैं और उदर शल्क उदर प्रदेश (पेट) के एक भाग में पूर्णरूप से फैले रहते हैं। इनके सिर के बगल में एक गड्ïढा होता है। ऊपरी ओंठ के किनारे से सटा हुआ तीसरा शल्क नासा (नाक) और (आंख) के शल्कों से मिलता है। पीठ के शल्क अन्य शल्कों से बड़े होते हैं। सिर के कुछ शल्क बड़े तथा अन्य छोटे होते हैं।
विषहीन सांपों की पीठ और पेट के शल्क समान विस्तार के होते हैं। पेट के शल्क एक भाग से दूसरे भाग तक स्पर्श नहीं करते हैं। सांपों के दांत में विष नहीं होता। ऊपर के छेदक दांतों के बीच विषग्रंथि होती है। ये दांत कुछ मुड़े होते हैं। काटते समय जब ये दांत धंस जाते हैं तब उनके निकालने के प्रयास में सांप अपनी गर्दन ऊपर उठाकर झटके से खींचता है। उसी समय विषग्रंथि के संकुचित होने से विष निकलकर आक्रांत स्थान पर पहुंच जाता है। कुछ सांपों के काटने के स्थान पर दांतों के निशान काफी हल्के होते हैं। दंश स्थान पर तीव्र जलन, तंद्रालुता, अवसाद, मिचली, वमन अनेच्छिक मल-मूत्र त्याग, अंगघात, पलकों का गिरना, किसी वस्तु का एक के स्थान पर दो दिखाई देना, पुतलियों का विस्फारित होना प्रधान लक्षण है। अंतिम अवस्था में चेतनाहीनता और मांसपेशियों में ऐंठन होती है। श्वांस रुक जाने से मृत्यु हो जाती है। कुछ सांपों के काटने से तीव्र पीड़ा चारों तरफ फैलती है। दंश स्थान काला पड़ जाता है। हाथ-पैरों में झनझनाहट, चक्कर आना, पसीना छूटना, दम
घुटना, मिचली, दुर्बलता आदि लक्षण होते हैं।
 विष के फैलने से मूत्र में रुधिर तथा सारे शरीर में जलन और खुजलाहट हो सकती है। सर्पदंश के प्रारंभिक उपचार के साथ-साथ शीघ्र चिकित्सकीय सहायता की जरूरत होती है। दंश स्थान के कुछ ऊपर और नीचे कसकर रस्सी या रबर या कपड़े से बांधा जाता है ताकि रक्त का प्रवाह रुक जाए। लाल गरम चाकू से दंश स्थान को 1/2 लंबा और 1/4 चौड़ा चीरकर रक्त निकाल दिया जाता है।
तत्पश्चात् दंश स्थान को साबुन या नमक के पानी या एक प्रतिशत पोटाश परमेंगनेट के विलयन से धोना चाहिए। यदि ये प्राप्त न हो तो पुरानी दीवार के चूने को खुरचकर घाव में भर देना चाहिए। दंश स्थान को पूरा विश्राम देना चाहिए। किसी भी दशा में गरम सेंक नहीं करना चाहिए। बर्फ का उपयोग कर सकते हैं। ठंडे पदार्थों का सेवन किया जा सकता है। प्राथमिक उपचार के तुरंत बाद मरीज को अस्पताल पहुंचाना आवश्यक है। चाय, काफी तथा दूध का सेवन कराया जा सकता है परंतु शराब का सेवन भूलकर नहीं करवाना चाहिए। इस प्रकार से अनजान कुंए, गढ्ढे में हाथ न डालकर, बरसात में अंधेरे और नंगे पांव से न घूमना, जूते झाड़कर पहनना चाहिए, थोड़ी-सी सावधानी और प्रारंभिक जानकारी रखने से हम जंतुदंश से होने वाली मौत से बच सकते हैं। हमारी प्रकृति विचित्र जीव-जंतुओं का खजाना है। कुछ जहरीले हैं, कुछ नहीं, लेकिन हमें सावधानी और जानकारी रखने की जरूरत है।