ईश्वर एक, रास्ते अनेक

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ईश्वर हमेशा से भक्ति से ज्यादा कोतूहल का विषय रहा है। कोई उसे राम कहता, कोई उसे जीसस कहता, कोई उसे रब कहता और कोई अल्लाह। और ईश्वर को मानने वाला हर कोई माता-पिता के संस्कारों के आधार पर या अपनी तर्कशक्ति के आधार पर किसी न किसी स्तर पर भक्त बनता ही है, लेकिन सच्चाई तो यह है कि मुट्ठी भर प्रबुद्ध जन चाहे आलोचक, विश्लेषक के रूप में हों या चाहे धर्मगुरुओं के रूप में हों, लोगों की धार्मिक भावनाओं पर गहरी छाप डालते हैं।
कोई कहता है- ईश्वर निरंकारी है, तो कोई कहता है- ईश्वर साकारी है। हमारे यहां कबीरदास  ने निरंकारी रूप में ईश्वर को पूजा, जबकि सूरदास व तुलसीदास ने ईश्वर को साकार रूप में देखा। मगर दोनों पक्षों की भक्ति-भावना बेहद उच्च कोटि की थी। अपने साथ जन समुदाय को लेकर चलने की क्षमता थी। लोगों ने समान रूप से दोनों विचारधाराओं का सम्मान किया।
ईश्वर को निरंकारी कहने का अर्थ है- ईश्वर का कोई आकार नहीं है। ईश्वर का कोई प्रकार नहीं है। ईश्वर अदृश्य है, मगर है। वह निराकार है। किसी की आंखों को नहीं दिखता, हाथ-पैर, सिर-धड़ रूप में नहीं दिखता। हमेशा शून्य में मौजूद रहता है। हमारे इर्द-गिर्द ही रहता है। हमारे शरीर के आसपास में रहता है। मगर हमारे जैसा दिखता नहीं है। वह हमारी प्रार्थनाएं सुनता है, हमारी मुरादें पूरी करता है, हमें आशीर्वाद देता है। सुबह-शाम, दिन-रात, हमारे सद्कर्मों व दुष्कर्मों पर नजर रखता है। परलोक जाने पर न्याय करता है, कर्मों के आधार पर फल देता है, लेकिन अनेकों को अदृश्य ईश्वर कर्मों के आधार पर लोक में भी दण्डित करता है। ईश्वर और दुर्जन के बीच सांप-छछुंदर का खेल चलता है। सांप काफी सताकर छछुंदर को मारता है। दुर्जन की गति छछुंदर की गति समान हो जाती है।
ईश्वर को साकार रूप में भजने, पूजने वाले यह मानते हैं कि संसार में ईश्वर है। वह शिव के रूप में है, राम के रूप में है, कृष्ण के रूप में है, देवी शक्ति के रूप में है। इसलिए तमाम देवी-देवताओं के रूप में मूर्ति बनाकर उनकी पूजा करनी चाहिए। वह सच्चिदानंद है, पूजा-अर्चना का फल सज्जन को देता ही है। वह मूर्ति में प्रकट रहता है। इन्हीं मूर्तियों की पूजा करने में ही हमारी संस्कृति की रक्षा है। तमाम देवी-देवताओं के नाम पर, उनकी प्रशंसा पर न जाने कितने लाख श्लोक, भजन, गीत, कविताएं, लिखी जा चुकी हैं, कितने-कितने भक्तों में न जाने कितना बड़ा साहित्य रच दिया। उत्तर की मीरा, दक्षिण के त्याग राज- ये सब उत्कृष्ट किस्म के भक्त हैं। अगर ईश्वर न होता तो, मन में ईश्वर के प्रति गंभीर प्रेम की सृष्टि नहीं घेरती। गंभीर प्रेम की सृष्टि नहीं होती तो इतनी उत्कर्ष गीत-मालाएं नहीं बनती।
लेकिन लगता है कि निरंकारी, वर्ग ने भी ईश्वर को बांट दिया और साकारी वर्ग ने भी ईश्वर को बांट दिया। दोनों ने ईश्वर को अधूरा छोड़ दिया। सच कहा जाए तो ईश्वर को निराकार व साकार रूप में बांटा नहीं जा सकता। ईश्वर अनन्त गुणों का धनी है। उसे बांधा भी नहीं जा सकता। वह सर्वत्र है। शून्य में है, मूर्तियों में हैं, सभी प्रकार के जीवों में हैं, पेड़-पौधों में है, पृथ्वी में है, आकाश में है। सूर्य-चन्द्रमा, तारे- सब कुछ ईश्वर की उपस्थिति दर्ज कराते हैं। कितनी निपुणता से ईश्वर ने पृथ्वी बनाई, कितने अच्छे, पृथ्वी के नियम बनाए। हम आकाश को छू नहीं पाते। ऊपर विशाल शून्य है। इस शून्य को कोई माप नहीं सकता। और ये आकाश ईश्वर के निराकारी रूप को दर्शाता है और यह, धरती का पार्थिव। हम जिस जमीन पर खड़े हैं वह रूपवान है। हम उसे छूकर आनंद ले सकते हैं। इसलिए पार्थिव ईश्वर के साकारी रूप को दर्शाता है और इन दोनों के बीच पूरी दुनिया, बखूबी पनप रही है। चाहे इसको बुला लो या उसको बुला लो, दोनों में ईश्वर है, मगर बुलाओ तो पूर्ण आस्था के साथ प्रेम के साथ। जो श्रद्धा मन में पनपती है वह श्रृद्धा है, अत: किसी को छोटा-बड़ा कहकर अपमानित करना व्यर्थ है। ईश्वर एक है, रास्ते अलग हैं।