आजकल गरीब हो या धनवान- हर माता-पिता चाहने लगे हैं कि उनका बच्चा पढ़-लिखकर कुछ बन जाए, इज्जत से जी ले और इसी मिशन को पूरा करने के लिए वे दिन-रात, सुबह-शाम एक करके पैसा जोड़ते हैं। इतना होने के बावजूद इतना सही है कि लगभग 37-40 प्रतिशत बच्चे बहुत मेधावी होते हुए भी पढ़ाई नहीं कर पाते।
स्कूल में भर्ती होने के बाद 20 प्रतिशत मेधावी बच्चे मैट्रिक तक नहीं पहुंच पाते। एक तो घर में पढ़ा-लिखा जैसा वातावरण नहीं मिलता, ऊपर से जहां रहते हैं, वहां का वातावरण भी शिक्षा की दृष्टि से उन्नत नहीं हो पाता। ज्यादातर महलिाएं जिनके बच्चे पढऩे में कमजोर है, विघटनात्मक भूमिका निभाती है। वे मेधावी बच्चों की मांओं से शिकायत करती है कि बच्चा स्कूल जाकर बिगड़ जाएगा और सड़ा खाना को छोड़कर सरकारी स्कूलों में मिलता ही क्या है? पढ़े-लिखे या न लिखे- अपना और बीवी बच्चों का पेट भरने के लिए पैसा तो कमाएगा ही काहे की चिंता और लड़कियों के बारे में यह बात आती है कि ज्यादा पढ़ा-लिखाकर क्या फायदा। लड़की के पैर बाहर पड़ेंगे तो चार ओर भटकेंगे और माता-पिता की नाक कटकर रह जाएगी। वैसे शादी करना, वंश बढ़ाना यही तो लड़की के भाग्य में लिखा होता है। तो पढ़ाई काहे की। पढ़ाई और शादी दोनों के लिए पैसा खर्चा करना मूर्खता के अलावा कुछ भी नहीं है।
अनेक बार छोटे बच्चों पर भी घर-परिहवार के भरण-पोषण का दायित्व आ पड़ता है। दस-बारह, पन्द्रह वर्ष का बच्चा भी पिता के मर जाने या बीमार पड़ जाने पर घर-परिवार का भरण-पोषण करने के लिए रेस्तरों में, घरों में, दुकानों में मेहनत करता है और इस धुन में वह यह भूल जाता है कि उसने अन्दर भी आसमान की ऊंचाइयों को छूने की कला है। प्रतिभा है। जिम्मेदारी उसकी प्रतिभा को लील जाती है और इस तरह बीस प्रतिशत मेधावी बच्चे मैट्रिक तक नहीं पहुंच पाते।
जो मेधावी बच्चे मैट्रिक तक पहुंच जाते हैं, कई कारणों से ग्यारहवीं-बारहवीं तक नहीं पहुंच पाते। इसका सबसे बड़़ा कारण होता है- माता-पिता के पास पैसों का अभाव। एक बच्चे को पढ़ाने में हजारों का खर्च आता है। माता-पिता के सामने घर के दूसरे सदस्यों की भी पढ़ाई-लिखाई या भरण पोषण की जिम्मेदारी होती है। घर की बहुत सारी आवश्यकताएं होती हैं। इसलिए वे ऐलान कर देते हैं कि पढ़ाई-लिखाई बहुत हो गई, अब अच्छा तो यही है कि मेहनत मजदूरी कर किसी तरह दो-चार रुपए आए और पिता का हाथ बटाएं। अगर घर पर विधवा मां और छोटे भाई बहन हो, तो भी एक मेधावी किशोर अपनी इच्छाओं पर पत्थर रखकर, अपने परिवार के लिए जीना शुरू करता है, उसका खयाल रखना शुरू करता है। अनेक बार पढ़े-लिखे की जो स्थिति बन जाती है, बेरोजगारी इतनी भयंकर हो गई है कि किशोर डर-सहम सा जाता है। हिम्मत बढ़ाने वाला कोई नहीं मिलता तो उसकी प्रतिभा वही दफन हो जाती है। वह छोटी-मोटी नौकरी में पड़ जाता है। बारह प्रतिशत के लगभग बच्चे इस तरह परिस्थितियों का कोपभाजन बन जाते हैं।
बाकी बच्चे 5 से 8 प्रतिशत बच्चे कॉलेज का चेहरा नहीं देखते। जो माता-पिता बारहवीं तक पढ़ाते हैं, उन्हीं की नजर में वह एक गधा के सिवाय कुछ भी नहीं रह जाता। माता-पिता बच्चों की प्रतिभा को समझने की अपेक्षा अपनी इच्छा लादना पसन्द करते हैं। अब बच्चा माता-पिता के लिए बोझ बन जाते हैं। ऐसे पढ़ाई छोड़कर नौकरी या रोजगार की तलाश कर माता-पिता के लिए आज्ञाकारी बन जाते हैं और फिर कुछ बच्चों को शादी, घर गृहस्थी, इन सबकी ओर मन चला जाता है, क्योंकि वे अपने गली-कूचों में यही सब कुछ बचपन से देखने चले आते हैं। माहौल उन पर हाबी हो जाता है। वहीं उसके जीने का दर्श बन जाता है। पारिवारिक दायित्व वगैरह आ जाएं, तो रही सही पढ़ाई की ऊर्जा भी खत्म हो जाती है।
कुल मिलाकर शिक्षा धनवानों व पढ़े-लिखो की बात बन जाती है। माता-पिता को देखकर बच्चों में यह प्रेरणा उत्पन्न होती है कि उनको भी एक उच्च स्तरीय जीवन चाहिए। और वे बचपन से सपने देखकर बड़े होने पर साकार कर डालते हैं। आर्थिक व मानसिक शक्ति जो शिक्षा ग्रहण करने को आधार होती है, पढ़े-लिखे माता-पिता ही बच्चों को प्रदान करते हैं। पल-पल उनका मार्गदर्शन करते हैं। जब जरूरत हो, जहां जरूरत हो, दोनों हाथों से, पैसा बहाते हैं। और अपने बच्चों को भविष्य को लेकर इतने संवेदनशील होते हैं कि डोनेशन ब्राइव सब की व्यवस्था करते जाते हैं। बड़े-बड़े कोचिंग सेन्टरों में भेजते हैं। धनवानों व पढ़े-लिखों के कुछ बच्चे फ्लॉप हो भी जाते हैं, मगर ज्यादातर बच्चों को ढकेलकर खंबे के ऊपर चढ़ा ही दिया जाता है। और उच्च मेधावी बच्चे निश्चित रूप से ऊंची जगह पर पहुंच पाते हैं। मगर अंधेरे में दीप की आस को पूरा करना इनके हिटलिस्ट में नहीं।