समान आयु के बालकों में विभिन्नताएं

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एक समान आयु वर्ग के बालकों के विकास में अनेक विभिन्नताएं देखी जाती हैं फिर यह आवश्यक भी नहीं कि समान आयु के बालकों का विकास भी एक समान हो।  उनका विकास अनेक कारकों शारीरिक, मानसिक, स्वास्थ्य, बुद्धि, वातावरण, पोषण आदि पर निर्भर करता है, जिसमें भिन्नता होने पर उनके विकास में अंतर हो जाता है। चाहें आप एक अध्यापक हों, अभिभावक हों अथवा एक जागरूक माता-पिता। आपको बालकों की विभिन्नताओं को सुलझाने के लिए उनके उपचार हेतु मेरी दृष्टि में निम्नलिखित उपायों को अपनाना पड़ेगा-
बालकों को अपने विकास के लिये पूर्ण अवसर प्राप्त हों, इसके लिए आवश्यक है कि उनके जन्मों के मध्य कम से कम दो वर्ष का अंतर अवश्य रखें।
चूंकि अनुवांशिक विशेषताओं से बालकों का विकास प्रभावित होता है। इसलिए उनके स्वास्थ्य, सामाजिक व आर्थिक पहलुओं पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
आनुवांशिक रोगों से परिचित होना चाहिये ताकि बालक की विकासशील स्थिति को दुष्प्रभावित होने से रोका जा सके।
विभिन्नता वाले बालकों को बहुत अधिक प्यार, समय व स्नेह की आवश्यकता होती है। इसलिए अतिरिक्त समय निकालकर उनसे बातचीत करना चाहिये तथा अपने आपको उनके सामने आदर्श रूप में प्रस्तुत करना चाहिए।
बच्चों में बढ़ती आयु के साथ-साथ उत्पन्न होने वाली जिज्ञासा को शान्त करना चाहिये। ताकि उनमें संवेदना, रचनाशीलता और बुद्धि कौशल का पर्याप्त विकास हो सके, उन्हें सुरक्षित, भौतिक वातावरण उपलब्ध हो तथा वे अपने आस-पास की वस्तुओं का अपनी इच्छानुसार प्रयोग कर सकें।
बालक जो कार्य कर लेते हैं, वह तो सही है, किन्तु जो नहीं कर पाते हैं, उसके लिए मार्गदर्शन व प्रोत्साहन देना चाहिये। समय- समय पर प्रशंसा करनी चाहिये, ताकि वह कुण्ठाग्रस्त न हो सकें। उनमें निरन्तर आगे बढऩे के लिए उत्साह बना रहे, वह हतोत्साहित भी न हों।
बालकों को कुछ जिम्मेदारी पूर्ण कार्य सौंपे जाने चाहिये, ताकि वह अपने को उपेक्षित न समझें तथा उन्हें अपनी जिम्मेदारी स्वयं संभालने का अभ्यास हो जाये। वह किसी दूसरे पर कार्य टालने की न सोचें और न ही वैसी आदतें डालें, विशेष रूप से हमें बालकों को भोजन बनाने, नहाने, कपड़े धोने, अपना कमरा साफ करने, पेड़-पौधों की रक्षा, घर व आस-पड़ोस की स्वच्छता का दायित्व सौंपना चाहिये।
हमें उनके विकास की विभिन्नताओं को दृष्टिगत रख उनकी दिनचर्या निर्धारित करनी चाहिये। समय पर भोजन करने, सोने, जागने, उठने-बैठने, खेलने व पढऩे की प्रेरणा देनी चाहिये, जिससे उनको विविध शारीरिक एवं मानसिक बीमारियों का शिकार न होना पड़े। उनमें समय से अपनी दिनचर्या निपटाने का अभ्यास पड़ जाये।
मौसम के परिवर्तन, कीट-पतंगों से होने वाली बीमारियों आदि के गुण-दोषों से अवगत कराकर उनसे बचाव के उपाय समझाने चाहिए।
एक ही स्थान पर घिरे रहने वाले बालकों को बाहर मैदान में ले जाकर विविध प्रकार के खेलों से अवगत कराते हुए उनमें उनकी भागीदारी सुनिश्चित करनी चाहिए। खेलों के प्रति उनकी रुचि बढ़ाने के लिए प्रत्येक संभव प्रयत्न करना चाहिये।
हमें बालकों के विकास में समरूपता लाने के लिए उनमें तर्क क्षमता, रचनाशीलता के विकास हेतु विशेष प्रयास करना चाहिये। उन्हें  विविध महापुरुषों, घटनाओं, रेखाचित्रों, संस्मरणों, सौन्दर्य चित्रों, प्राकृतिक दृश्यों से परिचित कराकर उन पर कहानी, कविता, लेख लिखने को कहना चाहिये। उनमें वाद-विवाद, सुलेख स्वच्छता, गीत, कहानी आदि प्रोत्साहनपरक प्रतियोगिताएं करानी चाहिये।
हमें बालकों के विकास में श्रेष्ठï पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं का महत्व समझाते हुए उन्हें पढऩे के लिए उपलब्ध करवानी चाहिये।
बालकों की बढ़ती आयु के साथ-साथ बदलती अपेक्षा-आवश्यकताओं को पूरा करते रहना चाहिये, इनके स्तर व पूर्ति में बालकोचित् संतुलन बनाये रखें, जिससे न केवल बालक आगे बढ़ेगा, बल्कि उसका सर्वांगीण विकास भी होगा।
बालक को अनिश्चय की स्थिति में न छोड़ें। उस पर किसी प्रकार का कहीं पर भ्रम का वातावरण थोपने का प्रयास न करें और न ही अपनी महत्वाकांक्षा के लिये उसकी इच्छा -आकांक्षा की उपेक्षा करें। बालक छोटा हो या बड़ा, सभी की कुछ इच्छाएं ऐसी होती हैं, जिनकी पूर्ति न होने पर बालक अपने आपको तो उपेक्षित मानते ही हैं। वह अपनी मित्रमंडली, साथी-समूह में भी अपमानित होने-सा अनुभव करने लगते हैं। अत: इस तरह की परिस्थितियों से बचना चाहिये। इस प्रकार निश्चित मानदण्डों, विधानों के तहत सम उम्र के बालकों के विकास में पायी जाने वाली विभिन्नताओं पर हम विजय पा सकते हैं। उन पर अपना ध्यान केन्द्रित कर अपने परामर्श, मार्गदर्शन व अनुभव द्वारा उनको उज्ज्वल भविष्य की ओर प्रशस्त कर सकते हैं।