अभिव्यक्ति का एक जरिया है आंसू। गरीब- अमीर, जवान, बूढ़ा सभी दु:ख, क्रोध, दर्द के आवेग में आंसू बहाते हैं। कई लोग जो भावुक प्रवृत्ति के होते हैं, भावना के आवेग में आंसुओं को रोक नहीं पाते। कई भावुक लोगों को अपने से ज्यादा दूसरों का दु:ख तड़पा जाता है। यहां तक कि कोई मार्मिक कहानी, कोई ट्रेजेडी फिल्म भी उन्हें आंसू टपकाने पर विवश कर जाती है।
ये आंसू ही हैं जो हमारा सारा क्षोभ, कोई गहरी जड़ जमाई हुई टीस को हल्का करने में मदद करते हैं। यह तो हुई मन और भावनाओं की बात, लेकिन शारीरिक रूप से ये महज आंखों को तरलता प्रदान करते हैं। जहां-जहां भी मानव का वास है, वहां उसके साथ आंसू भी हैं, जिनका संबंध उदासी के साथ जुड़ा है। गहरा दु:ख होने पर आंसुओं की धार अनवरत बहने लगती है।
सोता-सा उबल पड़ता है। उसकी तीव्रता व्यक्ति के ई.क्यू. (इमोशलन कोशियंट) पर निर्भर करती है। दूसरों को रोते देखकर भी कई बार आंखें नम हो जाती हैं।
वैज्ञानिकों के मतानुसार आंसू कई तरह के होते हैं। अमेरिका के जीव रसायन शास्त्री विलियम एच. फ्रे का कहना है कि जब आप रोते हैं तो आप अपना ही भला कर रहे होते हैं। आंसुओं का मनोवैज्ञानिक असर यह होता है कि तनाव से उत्पन्न हुए रसायन बाहर निकल जाते हैं।
डॉक्टर फ्रे के अनुसार दु:ख में जो व्यक्ति बिल्कुल नहीं रोता है या बहुत कम रोता है तो यह लगभग तय है कि उसे तनाव जनित रोग हो जाएंगे।
न रोने से अक्सर होने वाली बीमारी है पेट का अल्सर। कुछ लोग आंखों में आए हुए आंसुओं को रोक लेते हैं।
इसे चिकित्सा की दृष्टि से हानिकारक माना जाता है। आंखों की ऊपरी सतह जिसे रेटिना कहते हैं बहुत कोमल होती है। आंसुओं को रोकने से इसमें सूजन आ जाती है, आंखों में दर्द होने लगता है। अधिक समय तक आंसुओं को रोकने से वे लाल हो जाती हैं, उनमें पीड़ा होने लगती हैं।
इसीलिए आई स्पेशलिस्ट आई ड्रॉप्स डालने की सलाह देते हैं, जिससे अश्रुग्रंथियां फूट सकें और सूखी आंखों को अश्रु से राहत मिल सके।
रोना एक मानवीय गुण ही क्यों है, यह एक रहस्य है। वैज्ञानिकों के अनुसार किसी भावना को प्रगट करने के लिये जो आंसू गिरते हैं वे उन आंसुओं से भिन्न हैं जो प्याज काटने से आंखों में आ जाते हैं।
यह एक जाना-माना तथ्य है कि पुरुषों की अपेक्षा औरतें आंसू बहाने में बहुत आगे रहती हैं। उसका एक मुख्य कारण यह है कि परंपराओं ने औरतों को इसकी छूट दे रखी है, जबकि समाज में लड़कों के लिये यह ‘नो-नो’ है।
बचपन से उन्हें यही बताया कहा जाता है कि ‘छि: क्या लड़कियों की तरह रोते हो’।
उन्हें लगता है यह तो उनकी मर्दानगी को कम करने वाली बात है। बस इसी बात को लेकर वे अपने रोने की स्वाभाविक प्रक्रिया को दबाना सीख जाते हैं। इसका खामियाजा उनमें क्रोध करने के रूप में फूटता है, जिसे मर्दानगी समझा जाता है।
लड़कियां आंसुओं को हथियार के रूप में प्रयोग करना बचपन से सीख जाती हैं।
कोई कितना ही ‘ही-मेन’ क्यों न हो औरत के आंसू उसे भी नरमाई से पेश आने पर मजबूर कर देते हैं। आंसू बहाना भी कह सकते हैं एक कला है। जिसमें सब माहिर नहीं होते।
सिनेमा या फिल्मों की बात करें, तो एक्टर्स आंसू लाने के लिए आंखों में ग्लिसरीन डालते हैं, लेकिन कई एक्टर्स ऐसे भी हैं, जिन्हें आंखों में आंसू लाने के लिए ग्लिसरीन जैसी किसी चीज की जरूरत नहीं पड़ती। एक मंजी हुई फिल्म कलाकार ललिता पवार ने एक इंटरव्यू के दौरान प्रैक्टिकल करके दिखाया था, कैसे वह एक सेकंड में आंखों में आंसू ला सकती हैं मगर कुछ लोग खास मौकों पर बहुत चाहने पर भी आंसू बहाने में सफल नहीं हो पाते।
कारण, जन्मजात मूल प्रवृत्ति में छुपा है। जिस तरह आंखों को रंग कुदरत देती है उसी तरह रो सकने की प्रवृत्ति भी कुदरतन ही मिलती है। गहरे अवसाद की स्थिति में बात-बात पर रोना या रोते रहने का मन होना व्यक्ति की सेहत के लिये घातक है जिसका समय रहते उपचार जरूरी हो जाता है किंतु किसी दु:ख, क्षोभ, क्रोध को दूर करने के लिए रोना मानसिक स्वास्थ्य के लिये फ्री और बढिय़ा, नुकसान रहित इलाज है।
जिसके कोई साइडइफैक्ट्स नहीं होते, जिस तरह खुलकर हंसना सेहत के लिये लाभप्रद है, ठीक वैसे ही खुलकर रोना भी, लेकिन आपके जीवन का मंत्र होना चाहिए हंसिए और हंसाइए। रोइए मगर रोते को हंसाइए।