मानसिक रोग यानी मन का रोग या डिप्रेशन। इस बीमारी में हमारा मन व मस्तिष्क, यानी दिल और दिमाग बुरी तरह प्रभावित होते हैं। यह बीमारी अनियमित जीवनशैली के कारण आम तौर पर देखी जाती है। व्यक्ति कब सोता है , कब उठता है, कब खाता है, कब पीता है, कब नहाता है, आजकल यह निश्चित नहीं होता। एक बड़े पैमाने में व्यक्ति की जीवनचर्या अनिश्चित होती है। इसका परिणाम यह होता है हमारे जीवन से अनुशासन मिट जाता है या सीमित हो जाता है। परिणाम स्वरूप हमारा शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य बुरी तरह तहस – नहस हो जाता है और हम पीडि़त हो जाते हैं।
अनियमित जीवनशैली के अलावा और भी बहुत सारे कारण होते हैं जो हमारे शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य को चरमराकर रख देते हैं। बदले हुए माहौल में व्यक्ति के सामने बहुत सारी समस्याएं आ रही हैं। पढ़ाई – दिखाई न हो सकी, नौकरी न मिल सकी , मन की इच्छाएं पूरी न हो पाईं, जिसे देवता माना जाता है , प्रेम का स्वरूप माना जाता है, वह ही ऐन मौके पर अंगूठा दिखा देता है, अपराध हो रहे हैं, हिंसा हो रही है ऐसे न जाने कितने कारण हैं जो शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के डगमगाने के पीछे उत्तरदाई होते हैं । लेकिन आज हम यहां विषय को आगे बढ़ाते हुए इस बात पर चर्चा करते हैं कि डिप्रेशन सहित जितने भी मानसिक रोग होते हैं , उनके मरीजों को आवश्यक व नियमित रूप से चिकित्सक यह सलाह जरूर देते हैं कि मरीज को खाली बिल्कुल नहीं बैठना है। हमेशा कुछ न कुछ करते ही रहना है।
हमारे पूर्वज बुद्धि में सबसे आगे थे , बहुत आगे ही कह दिया था – खाली दिमाग शैतान का घर होता है और आज के तमाम मनोचिकित्सक भी यही मानते हैं कि मरीज को खाली नहीं बैठने देना है। मरीज को भी यही सलाह देते हैं और अभिभावकों को भी यही सलाह देते हैं।
मरीज के सामने एक वह स्थिति है , जब उसमें सुध – बुध की कमी हो जाती है। उसे मनोचिकित्सक के पास ले जाया जाता है। यह स्थिति मरीज के लिए गंभीर होती है। इसलिए प्रारंभ के पंद्रह – बीस दिन बोझिल होते हैं। डॉक्टर दवा देता है। इस स्तर पर आवश्यकता इस बात की होती है मरीज के खान – पान पर विशेष ध्यान दिया जाए । उसे समय – समय पर दवा दी जाए, उसके मन के विरुद्ध ज्यादा कुछ न कहा जाए। जैसे – जैसे मरीज ठीक होने लगे, वैसे – वैसे उसे दिनचर्या से जोड़ा जाए । सिलाई, पेंटिंग , थोड़ी सी पढ़ाई-लिखाई, घर के छोटे- छोटे काम।
मरीज के लिए आवश्यक हो जाते हैं। मरीज के लिए घर से निकलना भी जरूरी होता है , शाम के समय एक घंटे के लिए ही सही। आधे घंटे के लिए सही।
मनोचिकित्सक व डॉक्टर का मुख्य उद्देश्य मरीज के दिमाग को बांटना होता है। मनोरोगी के साथ बहुत आम बात यह है कि उसके दिमाग या मस्तिष्क में जो बात चढ़ जाती हैं, वह उतरती नहीं । वह अपने आप में सोचते – सोचते तिल को ताड़ बना लेता है। एक छोटे बिंदु से होते हुए , तमाम बातें सोचते हुए , तमाम समीकरण करते करते वह बहुत आगे निकलता चला जाता है। जितना सोचता चला जाता है , उतना ही अपने आप में घिरता चला जाता है। फिर एक स्थान पर चला जाता है , जहां जाकर वह प्राय: विक्षिप्त सा हो जाता है और मनोचिकित्सक को दवा की मात्रा और बढ़ानी पड़ जाती है या यांत्रिक चिकित्सा की जरूरत पड़ जाती है। इसलिए मरीज को छोटे-छोटे कामों में व्यस्त रखना चाहिए। उनसे भी बातें होती रहनी चाहिए। उससे उसकी बीमारी को लेकर बहुत ज्यादा चर्चा नहीं करनी चाहिए। घर के दूसरे सदस्यों जैसा व्यवहार करना चाहिए। दवा जब तक मनोचिकित्सक न कहें, बंद नहीं करवानी चाहिए। किसी का आना या किसी के घर जाना हो तो घर के सदस्य को आस – पास रहना चाहिए , क्योंकि सभी लोग एक जैसे नहीं होते। वे मरीज से वैसे सवाल पूछने लगते हैं , जिसे मरीज के लिए सख्त मनाही होती है। साथ ही साथ मरीज की बातों की हंसी उड़ाना, उसे चिढ़ाना , उसके साथ मजाक करना लोगों को बेहद अच्छा लगता है। इससे मरीज के स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और मरीज ऐसी बातें बहुत जल्द दिल – दिमाग पर ले लेता है और ठीक होता – होता फिर से बिगड़ जाता है। फिर से उसके सोचने की रफ्तार तेज हो जाती है। मरीज को घर की मुख्य धारा से जोडऩे के लिए ढेर सारे प्यार व अपनेपन की जरूरत होती है। खरी – खोटी कभी न सुनाएं । मनोरोग एक ऐसा रोग है जो विज्ञान द्वारा प्रमाणित है। इसकी चिकित्सा भी संभव है।
मरीज को मनोचिकित्सक जल्द ही अपने नियंत्रण में ले लेता है। हां , मरीज को लंबे समय तक चिकित्सा लेनी पड़ती है। मगर वह ठीक – ठाक महसूस कर सकता है और अपने काम – काज को कर सकता है। फिर वह खुद समझने लगता है कि समाज या घर में किससे कैसा व्यवहार करते हुए रास्ते पर चलना है और स्वस्थ रहना है। नमस्कार।