स्वामी विवेकानंद के जीवन में हाथरस का था विशेष महत्व, यहीं मिले थे पहले शिष्य सदानंद
Focus News 7 July 2024लखनऊ,नारायण साकार विश्व हरि उर्फ ‘भोले बाबा’ के सत्संग के बाद मची भगदड़ में 121 लोगों की मौत की हाल में हुई त्रासदी को लेकर इन दिनों चर्चा में बने हाथरस को दुनिया में नयी आध्यात्मिक चेतना जगाने वाले स्वामी विवेकानंद के पहले शिष्य के स्थान के रूप में भी जाना जाता है।
स्वामी विवेकानंद के प्रथम शिष्य माने जाने वाले स्वामी सदानंद रेलवे में बतौर स्टेशन मास्टर के पद पर कार्यरत थे, लेकिन विवेकानंद के प्रति उनके मन में ऐसी ‘लौ’ प्रज्वलित हुई कि वह नौकरी छोड़कर साधु बन गए और खुद को एक योग्य शिष्य साबित करने के लिए उन्होंने अपने रेलवे स्टेशन पर कुलियों तक के सामने भिक्षा मांगी।
स्वामी सदानंद को साधुओं को ‘महाराज’ कहकर संबोधित करने की परंपरा शुरू करने का श्रेय भी दिया जाता है।
लखनऊ में रामकृष्ण मठ के प्रमुख स्वामी मुक्तिनाथानंद ने ‘पीटीआई-भाषा’ से बातचीत में कहा, “इन दिनों हाथरस खबरों में है और नकारात्मक कारणों से सुर्खियां बटोर रहा है लेकिन, यह वही स्थान है जहां पर दिव्यता और आध्यात्मिकता के बीज इसके रेलवे स्टेशन पर अंकुरित हुए थे। तब नियति ने स्वामी विवेकानंद को उनके पहले शिष्यों में से एक के रूप में हाथरस में ही सौंपा था, जिन्हें आज दुनिया स्वामी सदानंद के नाम से जानती है।”
स्वामी अब्जाजनंदा अपनी पुस्तक ‘स्वामी विवेकानंद के मठवासी शिष्य’ में कहते हैं, “वर्ष 1888 के उत्तरार्द्ध में एक भटकता हुआ साधु वृंदावन से ऋषिकेश जा रहा था। वह हाथरस स्टेशन पर ट्रेन से उतरा। स्टेशन मास्टर ने उस भिक्षु को देखा। उसकी चमकदार आंखें और उसका प्रसन्न चेहरा उसे बरबस आकर्षित कर रहा था, इसलिए वह उसके पास गया और बातचीत शुरू की।”
स्टेशन मास्टर ने पूछा, “स्वामी जी आप यहां क्यों बैठे हैं? क्या आप आगे नहीं जाएंगे?”
भिक्षु ने कहा, “हां, निश्चित रूप से मैं जाऊंगा।”
स्टेशन मास्टर पास आया और पूछा, “स्वामीजी, क्या आप धूम्रपान करना चाहेंगे?”
इस बार भिक्षु ने एक अलग तरीके से उत्तर दिया, “हां, अगर आप मुझे एक पेश करते हैं।”
अगले अनुच्छेद में इस रहस्य का खुलासा करते हुए लेखक ने कहा, “यह भटकने वाला भिक्षु कोई और नहीं बल्कि स्वयं स्वामी विवेकानंद थे, और स्टेशन मास्टर शरतचंद्र गुप्त थे, जो बाद में स्वामीजी के शिष्य बन गए और उन्हें सदानंद नाम दिया गया। उन्हें रामकृष्ण संघ में गुप्त महाराज के नाम से भी जाना जाता था। इस तरह गुरु और शिष्य के बीच पहली मुलाकात हुई। ऐसा माना जाता है कि हाथरस के इस स्टेशन मास्टर को स्वामी विवेकानंद का पहला शिष्य होने का गौरव प्राप्त था।”
हालांकि, फुटनोट में लेखक ने स्वामी विवेकानंद और सदानंद के बीच पहली मुलाकात का एक अलग विवरण भी दिया है।
फुटनोट में लिखा है, “स्वामीजी के संस्मरणों में, जिसका शीर्षक है ‘स्वामीजी विवेकानंद जैसा मैंने उन्हें देखा’,
सिस्टर क्रिस्टीन ने स्वामीजी के साथ सदानंद की पहली मुलाकात का थोड़ा अलग विवरण दिया है।
क्रिस्टीन के अनुसार सदानंद ने स्वामी विवेकानंद को एक रेल के डिब्बे में बैठे देखा और उनकी चमकदार आंखों से मोहित होकर उनसे नीचे उतरने की विनती की। ऐसा लगता है कि कुछ रात पहले ही सदानंद को “उन्हीं आंखों” का सपना आया था।
स्वामी सदानंद के संन्यासी जीवन पर प्रकाश डालते हुए लेखक ने कहा, “शरतचंद्र गुप्त का जन्म छह जनवरी 1865 को कोलकाता में हुआ था। उनके पिता जदुनाथ गुप्त वर्ष 1869 में अपने परिवार के साथ वाराणसी के पास जौनपुर चले गए थे और वहीं बस गए थे। उत्तर भारत में पले-बढ़े शरतचंद्र जन्म से बंगाली होने के बावजूद हिंदी और उर्दू भाषाओं से अधिक परिचित थे।”
लेखक ने अपनी पुस्तक में यह भी कहा है, “उन दिनों स्वामियों को संबोधित करने का कोई निश्चित तरीका नहीं था। स्वामी सदानंद ने पश्चिमी भारत में प्रचलित रीति-रिवाजों का पालन करते हुए भिक्षुओं को ‘महाराज’ कहकर संबोधित करना शुरू किया। धीरे-धीरे, यह उन्हें संबोधित करने का स्वीकृत तरीका बन गया।”
लेखक शरतचंद्र से संबंधित एक अन्य घटना का उल्लेख करते हैं जिसमें वह स्वामी विवेकानंद से बार-बार उनका शिष्य बनने का अनुरोध करते हैं।
लेखक ने कहा, “उनकी दृढ़ता और ईमानदारी को देखकर स्वामीजी ने कहा: क्या तुम सचमुच मेरे अनुयायी बनना चाहते हो? तो फिर मेरा भिक्षापात्र ले लो और स्टेशन के कुलियों से हमारे लिए भोजन मांगो।”
आदेश मिलते ही शरत अपने ही रेलवे स्टेशन पर काम करने वाले कुलियों से भिक्षा मांगने चले गए। कुछ मात्रा में भोजन एकत्र करके वह उसे स्वामी विवेकानंद के पास ले गये। इस पर स्वामी विवेकानंद ने उन्हें हृदय से आशीर्वाद दिया और उन्हें अपना शिष्य स्वीकार कर लिया।
पुस्तक के मुताबिक स्वामी विवेकानंद के प्रति पूर्ण समर्पण दिखाते हुए शरत ने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया, कुछ कपड़े गेरुए रंग में रंगे और एक भिक्षु के रूप में स्वामी जी के साथ जाने के लिए खुद को तैयार किया। बाद में उन्हें औपचारिक रूप से संन्यासी व्रतों में शामिल किया गया और उनका नाम सदानंद रखा गया।
हाथरस जिला प्रशासन की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, “स्वामी विवेकानंद के हाथरस में पहली बार आगमन की स्मृति में हाथरस सिटी रेलवे स्टेशन पर एक शिलालेख स्थापित किया गया था, जिससे पता चलता है कि स्वामी विवेकानंद ने अपने पहले शिष्य को सदानंद नाम दिया था, जो हाथरस सिटी रेलवे स्टेशन के स्टेशन मास्टर थे।”