आखिर क्यों जरूरी है वृक्षारोपण

मनुष्य के जीवनधारण और उत्कर्ष में जिन अन्य जीवधारियों का प्रमुख सहयोग है, उनमें पशुओं और वृक्षों की गणना प्रमुख है। गौमाता के गुण गाते-गाते हम नहीं अघाते, क्योंकि उसके द्वारा प्राप्त होने वाले दूध, गोबर, बैल, चर्म आदि सभी उपकरणों द्वारा पौष्टिक आहार तथा दूसरी सुविधाओं की प्राप्ति होती है। ठीक ऐसा ही अनुदान वृक्षों से प्राप्त होता है। उसके द्वारा प्राप्त होने वाले लाभों की कोई गणना नहीं। वे बोलते भर नहीं, जीव तो उनमें भी है और वह जीव भी ऐसा है, जो संतों जैसी गरिमा रोम-रोम में भरा बैठा है। वृक्ष यदि संसार में न होते तो संभवत: हमारे लिए जीवित रहना ही संभव न हुआ होता। घांसपात और वनस्पतियों की महिमा तो लोग पशुओं के आहार, औषधि, अन्न, रस्सी, फूंस आदि के रूप में जानते हैं, पर वृक्षों की उपयोगिता की कम ही जानकारी लोगों के ध्यान में आई है।
आमतौर से इतना ही जाना जाता है कि वृक्षों की छाया या फल-फूल काम में आते हैं। हमें यह भी जानना चाहिए कि मनुष्य की सांस से निकलने वाली विषैली कार्बनडाइ ऑक्साइड गैस को सोखकर निरंतर वायु को शुद्ध करते रहने का श्रेय वृक्षों को ही है, वे दिन भर यही काम करते हैं। रात को वे थोड़ी कार्बनडाइ ऑक्साइड गैस निकालते तो हैं, पर वह मनुष्य शरीर से निकलने वाली विष वायु जैसी हानिकारक नहीं होती। दिन भर वृक्ष ऑक्सीजन नामक प्राण वायु उगलते हैं। मनुष्य के लिए यही जीवनधारा है। ऑक्सीजन की कमी पड़ जाने से मनुष्य का जीवन संकट में पड़ जाता है और वह अन्न, जल से भी अधिक उपयोगी है। ऐसा बहुमूल्य आहार जिसकी पल-पल पर जरूरत पड़ती है और जो रक्त में लालिमा से लेकर जीवन धारक अनेक साधन जुटाता है, वृक्ष ही देते रहते हैं। वृक्ष न हों तो ऑक्सीजन की सारे संसार में कमी पड़ जाए और शरीर से तथा आग जलने से निकलने वाली विषैली वायु कार्बनडाइ ऑक्साइड सारे आकाश को दूषित कर ऐसी घुटन पैदा कर दे कि प्राणियों का जीवन धारण ही संभव न रहे। हर दृष्टि से वृक्षों को जीवनदाता कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी।
वृक्षों में एक ऐसा विशिष्ट आकर्षण है, जो बादलों को खींच कर लाता है और वर्षा की परिस्थितियां पैदा करता है। जहां वृक्ष अधिक होते हैं वहां वर्षा भी अधिक होती है। वृक्ष रहित प्रदेश में स्वयमेव वर्षा की कमी हो जाती है। वृक्षों की अभिवृद्धि का अर्थ अपने सुख-साधनों को बढ़ाना है। उनमें कमी आना अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति पर कुठाराघात होना है। प्राणवायु कम मिले, वर्षा कम हो और वनस्पतियां कम उगें तो हम कितने घाटे में रहेंगे, इसका लेखा-जोखा रख सकना कठिन है।
आंखों पर हरीतिमा का बड़ा शांतिदायक प्रभाव पड़ता है। उससे सहज ही मन प्रसन्न हो उठता है। घास तो वर्षा के दिनों में ही शोभा देती है, पर वृक्ष तो साल भर अपनी शीतलता प्रदान करते रहते हैं। उनकी छाया में कितने मनुष्य और पशु-पक्षी विश्राम पाते हैं, यह देखते हुए वृक्षों को एक खुली धर्मशाला कहा जा सकता है।
 फूलों की शोभा देखते ही बनती है। उनकी सुगंध मस्तिष्क में प्रफुल्लता और शक्ति का संचार करती है। फलों में ही वे जीवन तत्व हैं जो मनुष्य को निरोग और दीर्घजीवी बना सकते हैं। अन्न का आहार तो मजबूरी और अभाव की परिस्थिति में स्वीकार करना पड़ता है अन्यथा मनुष्य की शरीर रचना बंदर जैसे फलाहारी वर्ग में ही आती है। उसका प्राकृतिक और स्वाभाविक भोजन फल है।
देह में जो-जो जीवन तत्व पाए जाते हैं और जिनकी निरंतर आवश्यकता रहती है। वे अधिकतर फलों में ही भरे रहते हैं। इसलिए पूर्ण समर्थ, पौष्टिक, सात्विक और स्वास्थ्यरक्षक आहार में फलों की ही गणना की जाती है। उनमें शरीर ही नहीं मस्तिष्क और स्वभाव को भी उच्चस्तरीय पोषण प्रदान करने की क्षमता है। इसलिए धार्मिक दृष्टि से फलों को बहुत प्रधानता दी गई है। देवता पर चढ़ाने में फल और उपवास में फल, सर्वत्र उन्हीं की गरिमा फैली पड़ी है। चिकित्सक भी रोगियों को फलों का आहार बतलाते हैं क्योंकि वे शीघ्र पचने वाले, पेट पर बोझ न डालने वाले और जीवन तत्वों से भरपूर रहते हैं।
रोगों से लडऩे की क्षमता पैदा करते हैं। ऋषि मुनियों का प्रधान आहार फल रहा है। वन्य प्रदेशों में वे फल वाले वृक्षों का रोपण करके आहार समस्या से निश्ंिचत हो जाते थे। इसमें जहां सुगमता थी वहां दीर्घ सुदृढ़ स्वास्थ्य, बुद्धि में सात्विकता तथा मनोबल बढऩे जैसे अगणित लाभ थे। ऐसे आहार से साधना, उपासना में प्रखरता आती थी। उसी क्षेत्र में रहकर विद्याध्ययन करने वाले छात्र मनस्वी, तेजस्वी और सुदृढ़ शूरवीर बनकर वापस लौटते थे।
वृक्षों की इस उपयोगिता की ओर हमारा ध्यान आकर्षित होना ही चाहिए और उत्साहपूर्वक वृक्षों का आरोपण, संवर्धन, संरक्षण करना चाहिए। कीमती फलों वाले वृक्ष आमदनी भी मामूली खेती से कहीं अधिक दे सकते हैं। संतरा, मौसमी, नींबू, चीकू, सेव नासपाती, अमरूद, लीची, आड़ू, अनन्नास, शहतूत, अंजीर जैसे फल आसानी से उगाए जा सकते हैं। तीन-चार वर्ष में इनकी रखवाली, सिंचाई आदि का प्रबंध कर लिया जाए तो आगे फिर उनके लिए कुछ अधिक नहीं करना पड़ता है।
आम, जामुन, खिरनी, महुआ, कटहल, आंवला, गूलर, पीपल जैसे वृक्ष एक बार लगें तो सदा के लिए निश्चिंतता हो गई। अंगूर, केले, पपीते जैसे सामान्य फलों को तो खेल-खेल में ही थोड़ी सी जगह में ही उगाया जा सकता है और हरियाली की शोभा के साथ-साथ बहुमूल्य आहार भी प्राप्त किया जा सकता है। पशुओं से भी अधिक उपयोगी वृक्षों को उगाने और बढ़ाने की जहां विशाल योजनाएं बनती रहती हैं वहां अपने देश में इनको काट-काटकर समाप्त करते हुए ‘गौहत्या’ जैसे कुकृत्य में भी हम लगे हुए हैं।
कृषि के लोभ में वृक्षों का सफाया हो चला और खेतों की मेड़ों पर जहां कभी पेड़ों की हरीतिमा छाई रहती थी और उन पर चढ़कर बच्चे बढिय़ा मनोरंजन व्यायाम करते थे, वहां अब सर्वत्र सुनसान ही दिखाई पड़ता है। लोग सोचते हैं कि इससे जमीन खेती के लिए निकल आएगी, पर वे यह भूल जाते हैं कि वृक्षों के अभाव में वर्षा की कमी तथा सर्दी-गर्मी की मात्रा अधिक हो जाने से फसलों को जो नुकसान होगा, वह पेड़ों के लिए छोड़ी हुई जमीन की अपेक्षा अधिक हानिकारक सिद्ध होगा। हमें जहां भी सुविधा हो वृक्ष लगाने और उनकी रक्षा का प्रयत्न करना चाहिए। धर्मशास्त्रों में वृक्ष लगाने का पुण्य बहुत माना गया है। पीपल, बरगद, आंवला जैसे वृक्षों की तो पूजा भी होती है। लोकोपयोगी हर कार्य, धर्म, पुण्य की गणना में आता है।
इस दृष्टि से शास्त्रों और ऋषियों ने वृक्षारोपण को यदि स्वर्गदाता परमार्थ बताया है तो उनका मंतव्य सच ही माना जाना चाहिए। इस आवश्यकता को समझा ही जाना चाहिए कि वृक्ष मनुष्य की एक महती आवश्यकता हैं और उनकी अभिवृद्धि के लिए नया उत्साह और नई चेतना आनी ही चाहिए। रास्ते के किनारे हर जगह वृक्ष लगाए जाने चाहिए, ताकि पथिकों को सरलता और बिना थकान के यात्रा करने का अवसर मिलता रहे। जहां भी अवसर हो हमें फलदार अथवा जलाऊ या इमारती लकड़ी वाले वृक्षों को लगाने के लिए स्वयं आगे बढऩा चाहिए और दूसरों को प्रोत्साहन देना चाहिए।