वास्तुशास्त्र भारत का अत्यंत प्राचीन शास्त्र है। वैदिक काल में इसे स्थापत्यवेद की संज्ञा दी गई। वेदों के प्रति हमारी श्रद्घा और विश्वास आज भी उतने ही दृढ़ हैं जितने पहले थे किन्तु वर्तमान में इस शास्त्र के प्रति संदेह व्यक्त किये जाते हैं जबकि स्थान-स्थान पर खुदाई में प्राप्त प्राचीन बस्तियों के भग्नावेश इस बात के साक्षी हैं कि प्राचीन समय में मंदिर, प्रासाद, बस्तियों एवं नगरों का निर्माण वास्तुशास्त्र के सिद्घांतों के अनुसार ही होता था और इसी कारण लोग अपेक्षाकृत अधिक सुखी थे।
मानव सभ्यता के विकास एवं विज्ञान की उन्नति के साथ भवन निर्माण कला में अनेकानेक परिवर्तन होते गये। जनसंख्या में द्रतगति से होती वृद्घि और भूखण्डों की सीमित संख्या जनसामान्य की अशिक्षा और वास्तुग्रंथों के संस्कृत में लिखे होने एवं मुद्रण प्रणाली के विकसित न होने के कारण इस शास्त्र की उत्तरोतर अवहेलना होती गई। विदेशी शासकों के बार-बार हुए आक्रमणों एवं अंग्रेजों के भारत में आगमन के पश्चात पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण में हम अपने समृद्व ज्ञान के भंडार पर पूर्णरूप से अविश्वास कर इसे कपोल कल्पित, भ्रामक एवं अंधविश्वास समझने लगे।
किन्तु अब जब से विदेशों में हमारे इस शास्त्र को मान्यता प्राप्त हुई है। जर्मनी, अमेरिका, चीन, जापान आदि देशों में इन ग्रंथों के अनुवाद और सिद्घांतों का अनुपालन आरंभ हुआ है तो हमने भी इस ओर ध्यान दिया है। किन्तु किसी भी विद्या को पूर्ण और विज्ञान मानने से पूर्व उसे विज्ञान के लिए अनिवार्य पांच तत्वों की कसौटी पर परखना आवश्यक है। ये तत्व है तर्क संगतता और सिद्घान्तता, साध्यता, स्थायित्व, उपयोगिता एवं सर्वग्राह्यता। क्या वास्तु विद्या इस कसौटी पर खरी उतरती है? आइये परखें।
वास्तुविद्या में भवन पर सूर्य रश्मियों का वही प्रभाव डालने का प्रयास है जो सूर्य रश्मियों का इस पृथ्वी पर है। पृथ्वी अपनी धुरी पर पूर्व की ओर 23.50 डिग्री झुकी हुई है। इस कारण उसका उत्तर भाग, ईशान और पूर्वी भाग पूर्व की ओर झुक गये हैं तथा दक्षिण, नैऋत्य एवं पश्चिम भाग कुछ ऊंचे उठ गये है। भवन निर्माण में इसी सिद्घांत के अनुसार भूखण्ड और ढलान पूर्व, उत्तर एवं ईशान की ओर होना तथा भूखण्ड का दक्षिणी भाग, नैऋत्य तथा पश्चिमी भाग ऊंचा होना निर्दिष्ट है। अनुभव से ही यही बात सिद्घ होती है कि जो भवन दक्षिण पश्चिम में ऊंचे तथा ऊंचाई पर निर्मित होते हैं तथा जिनका ढलान पूर्व, उत्तर एंव ईशान की ओर होता है अर्थात जिनका, प्रयोग लाया गया जल एवं वर्षा का जल ईशान कोण से अथवा पूर्व उत्तर की ओर से बहकर बाहर निकलता हो वहां के निवासी आरोग्य, समृद्घि एवं पारिवारिक शांति का अनुभव करते हैं तथा इससे विपरीत दिशा वालें संकट और विघ्नों से घिरे रहते हैं।
वास्तुशास्त्र को लेकर हर प्रकार से प्रयोग किया जा सकता है। भूखण्ड एवं भवन के दोषपूर्ण होने पर उसे उचित प्रकार से वास्तुनुसार साध्य बनाया जा सकता है। हमने अपने अनुभव से जाना है कि जिन घरों के दक्षिण में कुआं पाया गया उन घरों की गृहस्वामिनी का असामयिक निधन आकस्मिक रूप से हो गया तथा घर की बहुएं चिरकालीन बीमारी से पीडि़त मिली। जिन घरों या औद्योगिक संस्थानों ने नेऋत्य में बोरिंग या कुआं पाया गया वहां निरंतर धन नाश होता रहा, वे राजा से रंक बन गये,सुख समृद्घि वहां से कोसों दूर रही, औद्योगिक संस्थानों पर ताले पड़ गये। जिन घरों या संस्थानों के ईशान कोण कटे अथवा भग्न मिले वहां तो संकट ही संकट पाया गया। यहां तक कि उस गृहस्वामी अथवा उद्योगपति की संतान तक विकलांग पाई गई। जिन घरों के ईशान में रसोई पाई गई उन दम्पत्तियों के यहां कन्याओं को जन्म अधिक मिला या फिर वे गृह कलह से त्रस्त मिले। जिन घरों में पश्चिम तल नीचा होता है तथा पश्चिमी नैऋत्य में मुख्य द्वार होता है, उनके पुत्र मेधावी होने पर भी निकम्मे तथा उल्टी-सीधी बातों में लिप्त मिले है।
वास्तु का प्रभाव चिरस्थायी है क्योंकि पृथ्वी का यह झुकाव शाश्वत है, ब्रह्माण्ड में ग्रहों आदि की चुम्बकीय शक्तियों के आधारभूत सिद्घांत पर यह निर्भर है और सारे विश्व में व्याप्त है इसलिए वास्तुशास्त्र के नियम भी शाश्वत है, सिद्घांत आधारित, विश्वव्यापी एवं सर्वग्राह्य हैं। किसी भी विज्ञान के लिए अनिवार्य सभी गुण तर्क संगतता, साध्यता, स्थायित्व, सिद्घांतपरकता एवं लाभदायकता वास्तु के स्थायी गुण हैं। अत: वास्तु को हम बेहिचक वास्तु विज्ञान कह सकते हैं।
जैसे आरोग्यशास्त्र के नियमों का विधिवत पालन करके मनुष्य सदैव स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सकता है, उसी प्रकार वास्तुशास्त्र के सिद्घांतों के अनुसार भवन निर्माण करके प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन को सुखी बना सकता है। चिकित्साशास्त्र में जैसे डॉक्टर असाध्य रोग पीडि़त रोगी को उचित औषधि एवं ऑपरेशन द्वारा मरने से बचा लेता है उसी प्रकार रोग, तनाव और अशांति देने वाले पहले के बने मकानों को वास्तुशास्त्र के सिद्घांतों के अनुसार ठीक करवा लेने पर मनुष्य जीवन में पुन: आरोग्य,शांति और सम्पन्नता प्राप्त कर सकता है।
जब तक मनुष्य के ग्रह अच्छे रहते हैं वास्तुदोष का दुष्प्रभाव दबा रहता है पर जब उसकी ग्रहदशा निर्बल पडऩे लगती है तो वह वास्तु विरूद्घ बने मकान में रहकर अनेक दुखों, कष्टों, तनाव और रोगों से घिर जाता है। इसके विपरीत यदि मनुष्य वास्तु शास्त्र के अनुसार बने भवन में रहता है तो उसके ग्रह निर्बल होने पर भी उसका जीवन सामान्य ढंग से शांति पूर्ण चलता है।
शास्तेन सर्वस्य लोकस्य परमं सुखम्
चतुवर्ग फलाप्राप्ति सलोकश्च भवेध्युवम्
शिल्पशास्त्र परिज्ञान मृत्योअपि सुजेतांव्रजेत्
परमानन्द जनक देवानामिद मीरितम्
शिल्पं बिना नहि देवानामिद मीरितम्
शिल्पं बिना नहि जगतेषु लोकेषु विद्यते।
जगत़ बिना न शिल्पा च वतंते वासवप्रभो:॥
विश्व के प्रथम विद्वान वास्तुविद् विश्वकर्मा के अनुसार शास्त्र सम्मत निर्मित भवन विश्व को संपूर्ण सुख, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कराता है। वास्तु शिल्पशास्त्र का ज्ञान मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कराकर लोक में परमानन्द उत्पन्न करता है, अत: वास्तु शिल्प ज्ञान के बिना निवास करने का संसार में कोई महत्व नहीं है। जगत और वास्तु शिल्पज्ञान परस्पर पर्याय हैं।
क्षिति जल पावक गगन समीरा, पंच रचित अति अघम शरीरा।
मानव शरीर पंचतत्वों से निर्मित है- पृथ्वी, जल आकाश, वायु और अग्नि। मनुष्य जीवन में ये पंचमहाभूत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। इनके सही संतुलन पर ही मनुष्य की बुद्घि का संतुलन एवं आरोग्य निर्भर हैं जिसमें वह अपने जीवन में सही निर्णय लेकर सुखी जीवन व्यतीत करता है। इसी प्रकार निवास स्थान में इन पांच तत्वों का सही संतुलन होने से उसके निवासी मानसिक तनाव से मुक्त रहकर सही ढंग से विचार करके समस्त कार्य संपन्न कर पायेंगे और सुखी जीवन जी सकेंगे।
इस ब्रह्माण्ड में अनेक ग्रह हैं किन्तु जीवन केवल पृथ्वी पर ही है, ऐसा क्यों? इसका कारण यही है केवल पृथ्वी पर ही इन पंचमहाभूतों का सही संतुलन है। वर्तमान परिवेश में विश्व के सभी देशों में हिंसा और आतंकवाद का बोलबाला है। प्रतिदिन स्थान-स्थान पर दिन दहाड़े होने वाले अमानुषिक कृत्य, हिंसा, हत्या, लूटपाट, जलाने-मारने की घटनायें मानव को सदैव आतंकित और तानवग्रस्त रखती हैं। मानवीय संवेदनाएं लुप्त हो रही है। ईमानदारी और नैतिकता की बातें व्यक्ति को बुरी लगती है। मूल्यहीनता के वातावरण में मानव में सहयोग, सदभाव, संवेदना और भाईचारे के स्थान पर असहयोग, अलगाव, ईर्ष्या तथा पारस्परिक विद्वेष पनप रहा है। ऐसी स्थिति में हमारे लिए वास्तुशास्त्र ही एक मात्र आधार है जिसका अध्ययन और अनुकरण करके हम विश्व में पुन: शांति स्थापित कर सकते हैं। सच पूछा जाय तो यह तनाव, अशांति एवं अमानवीय कृत्य संपूर्ण विश्व में वास्तु सिद्घांतों की अवहेलना करने के कारण ही दिनों-दिन बढ़ते जा रहे है।
अपने देश भारत के मानचित्र पर दृष्टिपात करें। भारत के उत्तर में विश्व में सर्वाधिक ऊंचा पर्वत नगाधिराज हिमालय और दक्षिण में नीची भूमि वाला हिन्द महासागर है। इसके आग्नेय, नैऋत्य और पश्चिम में भी जल है परिणामस्वरूप यहां सदैव गृहयुद्घ, आक्रमण, विदेशियों द्वारा लूट-पाट धन सम्पत्ति का हरण और नाश होता रहा है। दक्षिण में जल होने के कारण यहां की महिलाएं सदैव दुखी रही है, वे जलने मरने को बाध्य हैं चाहे जौहर के रूप में, सती के रूप में ,दहेज की बलिवेदी पर या एसिड अटैक के कारण।
उन पर सदैव अत्याचार होते रहे हैं। भारत के ईशान और पूर्वी भाग पश्चिम से कुछ नीचे झुके हुए तथा बढे हुए होने के कारण ही यह देश अपने आध्यात्म, संस्कृति दर्शन तथा ऊंचे जीवन मूल्यों एवं धर्म से समस्त विश्व को सदैव प्रभावित करता रहा है। वास्तु का प्रभाव मंदिरों पर भी होता है, विश्व प्रसिद्घ तिरूपति बालाजी का मंदिर वास्तु सिद्घांतों का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है, वास्तुशास्त्र की दृष्टि से यह मंदिर शत प्रतिशत सही बना हुआ है।
इसी कारण यह संसार का सबसे धनी एवं ऐश्वर्य संपन्न मंदिर है जिसकी मासिक आय करोड़ों रूपये है। यह मंदिर तीन ओर से पहाडिय़ों से घिरा हुआ है किन्तु उत्तर और ईशान नीचा है। वहां पुष्करणी नदी है, उत्तर में आकाश गंगा तालाब स्थित है जिसके जल से नित्य भगवान की मूर्ति को स्नान कराया जाता है। मंदिर पूर्वमुखी है और मूर्ति पश्चिम में पूर्व मुखी रखी गई है।
इसके ठीक विपरीत कोणार्क का सूर्य मंदिर है। अपनी जीवनदायिनी किरणों से समस्त विश्व को ऊर्जा, ताप और तेज प्रदान करने वाले भुवन भास्कर सूर्य के इस प्राचीन अत्यंत भव्य मंदिर की वह भव्यता, वैभव और समृद्घि अधिक समय तक क्यों नहीं टिक पायीं? इसका कारण वहां पर पाये गये अनेक वास्तु दोष हैं। मुख्यत: मंदिर का निर्माण स्थल अपने चारों ओर के क्षेत्र से नीचा है। मंदिर के भूखण्ड में उत्तरी वायव्य एवं दक्षिणी नैऋत्य बढ़ा हुआ है जिनसे उत्तरी ईशान एवं दक्षिणी आग्नेय छोटे हो गये हैं। रथनुमा आकार के कारण मंदिर का ईशान और आग्नेय कट गये हैं तथा आग्नेय में कुआं है। इसी कारण भव्य और समृद्घ होने पर भी इस मंदिर की ख्याति, मान्यता एवं लोकप्रियता नहीं बढ़ सकी।
इसी प्रकार विश्व के मानचित्र पर स्थित सभी देशों को वास्तुशास्त्र के आधार पर परखा जा सकता है और सभी देशों के मुख्य स्थलों को भी, जिनके निरीक्षण, अध्ययन और परखने पर हमें वास्तुशास्त्र के सिद्घांतों की सत्यता और उपयोगिता के दर्शन होते हैं और इसके प्रति हमारा विश्वास और भी दृढ हो जाता है।
जनसंख्या के आधिक्य एवं विज्ञान की प्रगति के कारण आज समस्त विश्व में बहुमंजिली इमारतों का निर्माण किया जा रहा है। जनसामान्य वास्तु सिद्घांतों के विरूद्घ बने छोटे-छोटे फ्लैट्स में रहने के लिए बाध्य है। कहा जाता है कि इन्हें वास्तुशास्त्र के अनुरूप नहीं बनाया जा सकता।
पर यदि राज्य सरकारें वास्तुशास्त्र के सिद्घांतों के अनुसार कॉलोनी निर्माण करने की ठान ही लें और भूखण्डों को आड़े, तिरछे, तिकाने, छकोने न काटकर सही दिशाओं के अनुरूप वर्गाकार या आयताकार काटें, मार्गो को सीधा निकालें एवं कॉलोनाइजर्स को बाध्य करें कि उन्हें वास्तुशास्त्र के सिद्घांतों का अनुपालन करते हुए ही बहुमंजिली इमारतें तथा अन्य भवन बनाने हैं तो शत प्रतिशत तो न सही पर साठ प्रतिशत तक तो वास्तुशास्त्र के नियमों के अनुसार नगर, कॉलोनी, बस्ती, भवनों, औद्योगिक-व्यापारिक केन्द्रों तथा अन्य का निर्माण किया जा सकता है जिसके फलस्वरूप जन सामान्य सुख, शांति पूर्ण एवं अरोग्यमय, तनाव रहित जीवन व्यतीत कर सकता है। हमारे प्राचीन साहित्य में वास्तु का अथाह महासागर विद्यमान है। आवश्यकता है केवल खोजी दृष्टि रखने वाले सजग गोताखोर की जो उस विशाल सागर में अवगाहन कर सत्य के माणिक मोती निकाल सके और उस अमृत प्रसाद को समान रूप से जन सामान्य में वितरित कर सुख और समृद्घि का अप्रतिम भण्डार भेंट कर सकें, तभी वास्तुशास्त्र की सही उपयोगिता होगी।