व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है। वह अकेला नहीं रह सकता है। उसके आसपास एक परिवार होता है, एक समाज होता है। अपनी आजीविका के लिये वह व्यवसाय करता है। अन्य अनेक उद्योग भी उसे करने होते हैं। उसकी जीवनयात्रा में अनेक लोग उसके संपर्क में आते हैं। उसी संपर्क को संग कहते हैं।
व्यक्ति एक संवेदनशील प्राणी है। वह अच्छे लोगों के संपर्क में रहने से, उन लोगों की अच्छाइयों से प्रभावित होकर अच्छा बन जाता है। श्रेष्ठ लोगों के संपर्क से उसके जीवन में भी उन सद्गुणों का विकास होता है, जो श्रेष्ठ लोगों के चरित्र में मौजूद हैं। संगत की रंगत अपना प्रभाव छोड़ती ही है।
महर्षि वाल्मीकि बाल्यकाल में कुसंग के कारण डाकू बन गए। सब तरह की बुराइयां उनमें थीं। लूटपाट व हत्याएं करना उनका दैनिक कार्यक्रम था।
यह कुसंग का ही प्रभाव था पर एक संयोग से संतों का संपर्क मिला और उस क्षणिक संपर्क ने ही वाल्मीकि के जीवन की दिशा बदल दी। वे रत्नाकर से वाल्मीकि बन गए, डाकू से महर्षि बन गए। हत्याएं करते हुए जिनका हृदय कभी कंपित नहीं होता था, उसी हृदय से रामायण जैसा महाकाव्य जन्मा। सज्जन पुरुषों का क्षणिक संग भी संसार सागर से पार उतारने वाली नौका बन जाती है। सत्य है- सत्संगति कथय किं न करोति पुंसाम्।
आपका जैसा संग होगा आप वैसे ही हो जायेंगे। संतों की संगति में रहोगे तो बुद्धि, विचार और विवेक का विकास होगा। कवि ने कहा भी है-
कदली सीप, भुजंग-मुख स्वाति एक गुण तीन।
जैसी संगति कीजिए, तैसो ही फल दीन्ह॥
स्वाति नक्षत्र में मेघ से गिरा हुआ जल बिन्दु यदि केले के पत्ते पर गिरता है तो कपूर बन जाता है, वहीं जल बिन्दु सीप में गिरे तो मोती बन जाता है, यदि सर्प के मुख में गिरे तो वही जल बिन्दु विष बन जाता है। नक्षत्र व समय समान है, जल बिन्दु भी समान है पर तीन अलग-अलग रूप हो जाते हैं, क्योंकि तीनों की अलग-अलग संगत है। बुरों के संग से बुराई ही बढ़ती है। रावण के संग से समस्त लंकावासी राक्षस कहलाये।
सत्संग अमृत समान है, अमृतौषधि है। इससे जीवन को एक नई दिशा मिलती है। अनन्त काल से अनादि संसार में भटक रही आत्मा की स्थिरता व पवित्रता के लिये सत्संग ही प्रथम द्वार बनता है। सत्संग द्वारा ही आत्मबोध जाग्रत होता है, उसमें विवेक का विकास होता है।
सत्संग भवसागर से पार उतारने वाला है। इस संबंध में तुलसीदास जी ने कहा है कि भक्ति सकल सुखों की खान है पर उसकी प्राप्ति सत्संग से ही संभव है। जब श्रेष्ठतम पुण्यों का उदय होता है, तभी संतों की संगति प्राप्त होती है और वही सत्संगति संसार के दु:खों का अन्त करने वाली होती है। सत्संग की सर्वोच्च महिमा है। इसी के आधार पर पृथ्वी टिकी हुई है।
व्यक्ति को विवेक सत्संग से प्राप्त होता है। सत्संग जीवन में मूल्यवान वस्तु है। सत्संग से जीवन में महाजीवन का द्वार बनता है। सत्संग सब मंगलों का स्रोत है, उद्गम है। इसी से समस्त सिद्धियां सुफल बनती हैं। श्रेष्ठ पुरुषों का संग स्वर्ग में निवास के तुल्य आनन्ददायी है।
गंगा पाप का, चंद्रमा ताप का और कल्पवृक्ष दीनता के अभिशाप का अपहरण करते हैं परन्तु सत्संग पाप, ताप और दैन्य, तीनों का तत्काल नाश कर देता है। यह सत्संग की महिमा है। कल्पवृक्ष तो केवल भौतिक दरिद्रता को ही दूर करता है, परन्तु सत्संग आध्यात्मिक समृद्धि प्रदान करता है, इससे व्यक्ति का आन्तरिक विकास होता है।
व्यक्ति की आत्मा में चमक उज्ज्वलता आती है। इससे आत्मिक दारिद्रय धुल जाता है, पाप और ताप नष्टï हो जाते हैं। सत्संग से वैर और अभिशाप का सुलग रहा दावानल बुझ जाता है। सत्संग ही आध्यात्म के प्रासाद में प्रवेश का एकमात्र द्वार है। अत: प्रत्येक व्यक्ति को अपनी संतानों को संतों की संगति के लिए प्रेरित करना चाहिये।