इन दिनों धूप कम निकल रही है और आसमान में बादल छाये रहते हैं। ऐसी स्थिति में तापक्रम ज्यादा रहता है तथा आद्र्रता भी अधिक। ऐसी परिस्थितियों में कीटों व रोग उत्पन्न करने वाले सूक्ष्म जीवों की वृद्धि के अनुकूल होती है। खरीफ के मौसम में आलूवर्गीय फसलों विशेषकर टमाटर, मिर्च व बैगन की खेती विभिन्न क्षेत्रों में बहुतायत से की जा रही है। इन सब्जियों में लगभग एक ही प्रकार के कीट व रोग लगते हैं। किसान भाईयों के लिए आलू-वर्गीय फसलों की प्रमुख कीटों व रोगों के पहचान तथा नियंत्रण की यहां जानकारी दी जा रही है।
कीट
1 टमाटर का कीट: यह भूरे रंग का होता है और पत्तियों को खाता है साथ ही फलों में छेद बनाकर फल के अंदर घुस जाता है। इस तरह यह सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाता है।
नियंत्रण- इसके नियंत्रण हेतु कार्बोरिल (50 प्रतिशत घुलनशील) 600 ग्राम प्रति एकड़ या इंडोसल्फान (35 ई.सी.) 400 मिली प्रति एकड़ का छिड़काव करें।
2. टमाटर की इल्ली: यह इल्ली (एपीलेक्रा बीटल) पत्तियों को खाती है।
नियंत्रण-कार्बोरिल (10 प्रतिशत) 8 किलो/ एकड़ का भुरकाव करें।
इल्लियों को चुन-चुनकर नष्ट करें।
3. तना व फल छेदक: यह बैगन का सबसे खतरनाक कीट है। इसकी इल्लियां तना या फल में छेद करके अंदर रहती हैं व पूरे फसल अवधि तक सक्रिय रहती है। इनकी वजह से तना सफेद होकर सूख जाता है और फल खाने योग्य नहीं रह जाते हैं इनका प्रकोप बढऩे पर फल सड़ भी जाते हैं।
नियंत्रण- इसके नियंत्रण हेतु प्रभावित तनों व फलों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए। इसके अलावा सेविन 0.4 प्रतिशत का छिड़काव करने से नियंत्रण किया जा सकता है।
4. जैसिक (फुदका) : यह कीट पत्तियों का रस चूसकर उन्हें मोड़ देता है। इसका प्रकोप बढऩे पर पौधे बौने रह जाते हैं।
नियंत्रण- इसके नियंत्रण हेतु इकालाक्स 0.1 प्रतिशत मेलाथियान 0.15 प्रतिशत का छिड़काव 10-15 दिन के अंतराल पर करना चाहिए।
5. नेमेटोड: बैगन में इसके प्रकोप की वजह से पौधे बौने हो जाते हैं और पत्तियां रंगहीन हो जाती हैं। पौधों को उखाडऩे पर जड़ों में गांठे देखी जा सकती हैं।
नियंत्रण- इसका नियंत्रण मिट्टी में नेमेगान द्वारा धुआं करने (प्यूमीगेशन) से किया जा सकता है।
6. माहो: यह सबसे नुकसानदायक कीट है जो पत्तियों का रस चूसता है। इससे प्रभावित पत्तियां मुड़ जाती हैं।
नियंत्रण- इसके नियंत्रण हेतु रोगोर (0.15 प्रतिशत) मेटासिस्टाक्स (0.15 प्रतिशत) डिमेक्रान (0.1 प्रतिशत) का छिड़काव करना चाहिए।
7. फल छेदक: इस कीट की इल्लियां फलों के भीतर घुसकर भोजन खाती हैं। इनकी वजह से फल सड़ जाते हैं चूंकि कीटनाशकों का छिड़काव फलों पर करने से उनका जहरीला असर स्वास्थ्य पर भी पड़ता है इसके नियंत्रण हेतु प्रभावित फलों को तोड़कर नष्ट कर देना चाहिए।
रोग
1. छोटी पत्ती विषाणु रोग (लिटिल लीफ वायरस): यह बैगन में लगने वाला प्रमुख रोग है। इस रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियां छोटी होकर सिकुड़ जाती हैं और शाखाओं की लंबाई भी कम हो जाती है, साथ ही पत्तियों के आधार पर बहुत सारी छोटी-छोटी कलियां उग आती हैं। इस तरह संपूर्ण पौधा बौना होकर रह जाता है। यह बीमारी कीटों के द्वारा फैलती है अत: कीट नियंत्रण हेतु इकालक्स या फालीडाल दवा का 10-12 किलो प्रति एकड़ की दर सेभुरकाव करना चाहिए।
2. जीवाणु जनित उकठा रोग (बेक्टीरियल विल्ट): यह जीवाणु द्वारा फैलने वाला रोग है। इसका प्रकोप संकर किस्मों में ज्यादातर देखने में आता है। इसका प्रकोप होने पर पत्तियां पीली पड़कर सूख जाती हैं तथा बाद में पूरा पौधा सूख जाता है। यह मिट्टी जनित बीमारी है क्योंकि जीवाणु मिट्टी में पनपते है। रोग प्रकोप की दशा में तत्काल कोई उपचार संभव नहीं है, अत: इस रोग से बचने हेतु उससे प्रभावित खेतों में खेती नहीं करना चाहिए तथा टमाटर व बैगन साथ-साथ नहीं लगाना चाहिए।
3. झुलसा रोग: इस रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियों में सिलेटी भूरे रंग के गोल-गोल धब्बे बनते हैं जो बाद में फलों में भी फैल जाते हैं। रोग का प्रकोप बढऩे पर पौधे पीला पड़कर सूख जाती है।
नियंत्रण- इससे सुरक्षा हेतु रोग रहित बीज का प्रयोग करना चाहिए या बीजों को हल्के गरम पानी (50 डिग्री सेल्सियस) में 30 मिनट तक बोने से पूर्व उपचारित करना चाहिए। डाइथेन जेड-78,2,5 ग्राम प्रति लीटर का छिड़काव करें।
4. पत्ती धब्बा या एन्थ्रेक्रोज: इस रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियों पर भूरे-काले रंग के धब्बे बन जाते हैं जो बाद में तनों और फलों में भी फैल जाते हैं। इस रोग का प्रकोप बढऩे पर प्रभावित पौधे सूख जाते हैं।
नियंत्रण- इसके नियंत्रण हेतु डायथेन एम-45 (2.5 ग्रा./ली.) या बाविस्टीन (1 ग्रा./ली.) का छिड़काव करना चाहिए।
5. चुर्डा-मुर्डा, कुकड़ा या लीफ कर्ल: यह मिर्च तथा टमाटर में लगने वाला सबसे गंभीर रोग है जो वायरस द्वारा होता है। इस रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियां मुड़ जाती हैं, और फल भी सामान्य न होकर आड़े-टेढ़े ढंग से मुड़ जाते हैं। रोग प्रकोप बढऩे से पौधें बौने रह जाते हैं।
नियंत्रण- चूंकि यह वायरस जनित रोग है अत: इसका त्वरित नियंत्रण संभव नहीं है। इससे बचाव हेतु कीटनाशक दवा जैसे रोगोर या मेटासिस्टाक्स (0.15 प्रतिशत) और डायथेन एम-45 (2.5 ग्रा./ली) के मिश्रण का छिड़काव करना चाहिए अथवा 0.1 प्रतिशत मोनोक्रोटोफॉस का प्रति 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें।