आखिरी छोर कहे जाने वाले कन्याकुमारी के ‘स्वामी विवेकानंद रॉक मेमोरियल’ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘मौन व्रत’ चर्चाओं में हैं। उनकी साधना को विपक्षी नेताओं ने सियासत से जोड़कर बड़ा बखेड़ा खड़ा किया हुआ है। सभी जानते हैं कि मोदी कोई भी कार्य पूर्ण से पहले नियमित रूप से ईश्वरी आराधना करते हैं। चाहें 2014 व 2019 का लोकसभा चुनाव हो या अयोध्या में प्रभु राम की प्राण-प्रतिष्ठा, उन्होंने साधना और मौन व्रत रखा। विवेकानंद रॉक मेमोरियल ऐसा पवित्र स्थान हैं जिसके प्रति न सिर्फ नरेंद्र मोदी का बल्कि पूर्व के कई प्रधानमंत्रियों का आकर्षण रहा। पूर्व प्रधानमंत्रियों में पं0 जवाहर लाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी से लेकर लाल बहादुर शास्त्री तक इस स्थान के लिए सदैव मन मोहित रहे। यहां तक कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपनी ‘भारत जोड़ा यात्रा’ का श्रीगणेश भी करना उचित समझा था। सवाल उठता है, तब कोई विवाद क्यों नहीं खड़ा हुआ? आखिर प्रधानमंत्री मोदी के मौन साधना पर क्यों विवादों खड़ा हुआ। इस थ्योरी को अगर समझें तो उसका कारण देश में जारी आम चुनाव का शोर ही मात्र हैं? विपक्ष प्रधानमंत्री की साधना को वोटरों को साधने का जरिया बता रहे हैं। इसलिए उन्होंने उनकी आध्यात्मिक यात्रा को मुद्दा बनाया डाला। विपक्ष का आरोप है कि प्रधानमंत्री ने आचार संहिता का उल्लंघन किया है? जिसको लेकर कांग्रेस ने चुनाव आयोग में भी शिकायत की है।
गौरतलब है कि आध्यात्मिक विधाओं के क्षेत्र में प्रधानमंत्री की संलग्नता से पूरा देश परिचित है। नवरात्रों में व्रत रखना, नंगे पांव चलना, या फिर प्रत्येक विशेष दिवसों पर अन्न त्यागना उनकी जीवन शैली का हिस्सा रहा है। कन्याकुमारी की साधना भी उसी का पार्ट है। रही बात विवेकानंद रॉक मेमोरियल की तो ये न सिर्फ हमारे लिए, बल्कि समूचे संसार के लिए आध्यात्मिक क्षेत्र में आकर्षण का केंद्र है। क्योंकि आज जो भी स्वामी विवेकानंद के आदर्शों को अपनाता है और चलने का प्रयास करता है, उसका इस भूमि से गहरा लगाव होता है। यहां तक विदेशों के राष्ट्र प्रमुख जब भारत का दौरा करते हैं तो विवेकानंद रॉक मेमोरियल जाने की इच्छा जरूर जाहिर करते हैं। विवेकानन्द का अद्भुत स्मारक शिला दक्षिणी क्षेत्र तमिलनाडु के कन्याकुमारी में समुद्र के बीचो बीच स्थित है। ये दुनिया भर में मौन-साधना के रूप में प्रसिद्ध धार्मिक पर्यटन स्थलों में एक है। ये स्मारक तकरीबन 4-5 मीटर अंदर समुद्र की दो विशाल चट्टानों के ऊपरी हिस्से पर विराजमान है। पूर्ववर्ती सरकारों ने इस स्मारक को बनवाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी।
ये जानना भी जरूरी है कि इस स्थान से स्वामी विवेकानंद का वास्ता कैसा और किस तरह का रहा था। वास्ते की जहां तक बात है तो वह बिल्कुल सीधा था। किस्सा सन्-1893 का है। जब स्वामी विवेकानंद ‘विश्व धर्म सम्मेलन’ में भाग लेने अमेरिका के शिकागो के लिए तैयार हो रहे थे। तो, उससे पहले 24 दिसंबर, 1892 को वह कन्याकुमारी गए। जहां स्मारक बना हुआ है, वहां स्वामी ने करीब दो-तीन दिनों तक चट्टान पर बैठकर मौन ध्यान लगाया। ऐसी मानता है कि यहीं से उन्हें सांसारिक ज्ञान प्राप्त हुआ था। तभी, उनकी जन्म शताब्दी के दिन यानी जनवरी-1962 से जनमानस के एक समूह द्वारा ‘कन्याकुमारी समिति’ की स्थापना की गई, जिसका उद्देश्य चट्टान पर स्वामी विवेकानंद का स्मारक स्थापित करना और लोगों को चट्टान तक पहुंचने के लिए एक पुल का निर्माण करवाना था। उस स्थान की सर्वप्रथम कल्पना ‘रामकृष्ण मिशन’ ने की थी हालांकि, तब कुछ तथाकथित कैथोलिक धर्म गुरुओं और उनके अनुयायियों ने खुल कर इस योजना का विरोध किया था। पर, 17 जनवरी 1963 को तत्कालीन केंद्र की सरकार ने समुद्र के बीच बने चट्टान पर पट्टिका रूपी स्मारक बनाने की अनुमति दे दी। क्योंकि उस स्थान से स्वामी विवेकानंद का जुड़ाव जगजाहिर था। उनकी प्रत्येक आत्मकथाओं में कथाकारों और लेखकों ने इस बात का उल्लेख भी किया है। हालांकि पूर्व में इस स्थान को कई मर्तबा क्षतिग्रस्त भी किया गया लेकिन स्वामी की स्मृतियां हमेशा यथावत रही।
शायद कम ही लोग जानते होंगे कि ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ का ‘स्वामी विवेकानंद रॉक’ से सीधा वास्ता रहा है। ‘संघ’ के वरिष्ठ प्रचारक एकनाथ रामकृष्ण रानाडे ने ही मेमोरियल बनाने का बीड़ा सबसे पहले उठाया था। उनके द्वारा ही स्वामी विवेकानंद मेमोरियल आयोजन समिति’ का गठन करवाया गया था। इसके लिए रानाडे ने दक्षिण भारत में संघ की तमाम शाखाएं खोली ताकि स्मारक स्थापना के लिए अधिक से अधिक धन जुटाया जाए। इस काम के लिए उन्होंने करीब 323 सांसदों के समर्थन हेतु हस्ताक्षर करवाए। उसके बाद उन्होंने 26 दिसंबर 1963 का सांसदों की हस्ताक्षर वाली चिट्ठी प्रधानमंत्री पं0 नेहरू के समक्ष प्रस्तुत की जिस पर उन्होंने बिना देरी के अपनी सहमति दे दी लेकिन दुर्भाग्य अगले ही वर्ष पंडित नेहरू की मृत्यु हो गई जिससे मामला बीच में ही अटक गया। फिर से प्रयास तेज हुए, तब 29 अगस्त 1964 को तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने न सिर्फ अपनी मंजूरी दी बल्कि तबके विख्यात इंजीनियर एसके अचारी को स्मारक बनाने की ज़िम्मेदारी भी दी पर, इस दफे भी कुछ ऐसा हुआ, प्रगति का कार्य फिर से बीच में रुक गया क्योंकि उस समय लाल बहादुर शास्त्री का ताशकंद में आकस्मिक निधन हो गया था।
बाद में ये फाइल इंदिरा गांधी के पास पहुंची। उन्होंने तेजी दिखाते हुए प्रस्तावित ‘विवेकानंद रॉक मेमोरियल’ का निर्माण युद्धस्तर पर 1970 में पूरा करवा दिया। कार्य पूरा होने के बाद तब के राष्ट्रपति वीवी गिरी ने हाथों उद्घाटन हुआ और स्मारक को राष्ट्र को समर्पित किया गया लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वहां पहुंचने से जो बिला वजह का विवाद खड़ा हुआ है, वो गले नहीं उतरता? धर्म-धार्मिक, साधना, व्रत आदि आध्यात्मिक विधाओं को हमेशा राजनीति से दूर रखना चाहिए पर मौजूदा राजनीति जिस ओर बढ़ चुकी है, उसमें कुछ भी उम्मीदें की जा सकती हैं।