निज प्राण रक्षा के लिए पर्यावरण संरक्षण

इस संसार में संतुलन कैसे रहे, पर्यावरण संतुलित कैसे हो, समाज संतुलित कैसे हो, ये वर्तमान की सबसे बड़ी चुनौती है। वैज्ञानिक इस समस्या को विज्ञान के नियमों के अनुसार हल करना चाहते है। समाजशास्त्र समाज की परंपराओं में इनका समाधान ढूंढते हैं।
कुछ लोग के अनुसार यह संसार ‘ले और दे’ के नियम से चलता है। लेकिन ‘लेना और देना’ की बजाय  ‘लेना और लौटाना’ के मार्ग पर चलना श्रेयस्कर होगा। यह सुनकर एक व्यक्ति ने कहा ‘देना और लौटाना’ एक ही बात है। आखिर दोनों में अंतर क्या है?
अंतर है। श्वसन प्रक्रिया में हम इस वायुमंडल से प्राणवायु ग्रहण करते हैं और लौटाते भी हैं। यदि हम ग्रहण करें और लौटाये नहीं तो हम अगला  श्वास नहीं ले सकते। क्योंकि हमारे फेफड़ों में इतना स्थान ही नहीं है। पिछली वायु बाहर जाएगी स्थान रिक्त होगा तभी अगले श्वास के लिए प्राणवायु प्रवेश करेगी।
यदि हमने किसी दुकानदार से सौ रुपए का सामान उधार लिया। अब हम उसे ₹100 चुका कर फिर से उधार ले सकते हैं। यदि हम पिछला उधार नहीं चुकाएंगे तो लेन-देन का यह सिलसिला आगे नहीं बढ़ेगा। इसलिए लिया है तो लौटाना भी है। लौटाना देना नहीं होता। दिया तो उसे जाता है जिससे लिया ही नहीं। देने वाला दाता है। लेने वाला उपकृत हो रहा है। इसलिए जब भी प्रकृति परिवेश अथवा किसी की प्रणाली से कुछ लोग तो श्रद्धा पूर्वक ग्रहण करो और कृतज्ञता पूर्वक लौटाओ ।
लेना बहुत सहज है। लेकिन जिसे लौटाना नहीं आता, अर्थात जिसे लौटाते हुए कष्ट होता है, वह लेने की अपनी पात्रता खो देता है। और जो पात्रता खो देता है उसका जीवन कष्टकारी ही होता है। इसलिए लेने और लौटाने का भाव सदैव साथ साथ बनाए रखो।
एक बार एक व्यक्ति अभावों का सामना कर रहा था। घर चलाना मुश्किल हो रहा था तो उसकी पत्नी ने उसे कहा, ‘आप कहते हैं कि फला गांव का सेठ आपका बचपन का मित्र है। आप उससे ₹100 उधार ले आओ और कुछ काम धंधा आरंभ करो। जिससे हमारी जीविका चले।’ उस व्यक्ति को बात समझ में आ गई और वह अपने मित्र के पास पहुंचा। वर्षों बाद बचपन के मित्र से मिलकर वह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने उसका खूब सत्कार किया। 2 दिन उसे अपने ही घर पर रखा। और जब वह चलने को था तो उससे कहा कि यदि कोई कठिनाई हो तो बताना।
मित्र ने उससे ₹100 की मांग की उसने तत्काल अंदर से लाकर दे दिये। वह व्यक्ति खुशी खुशी अपने घर की तरफ पैदल पैदल चल दिया। गर्मी का मौसम था रास्ते में एक तालाब को देखकर उसने वहां स्नान करने का निश्चय किया। अपने कपड़े एक पेड़ के नीचे रख स्नान करने के बाद जब वह लौटा तो उसने देखा वह अपने मित्र से जो धन लाया था, वह गायब है। उसने इधर-उधर ढूंढा लेकिन निराशा ही हाथ लगी। वह एक बार फिर से अपने मित्र के पास जा पहुंचा। इस बार उसकी उतनी आव भगत नहीं हुई। लेकिन मांगने पर मित्र ने तत्काल सौ रुपए उसे और दे दिए। खुशी-खुशी फिर चला उसी राह पर चला। फिर गर्मी। फिर वही तालाब | फिर वही स्नान। फिर पैसे गायब।
वह व्यक्ति बहुत हैरान परेशान हो अपने घर लौट आया। निराश देखकर पत्नी ने पूछा, ‘क्या मित्र ने मदद करने से इंकार कर दिया?’ तब उसने सारी कहानी अपनी पत्नी को सुनाई। पत्नी विवेकशील और व्यावहारिक थी। उसने अपने पति से पूछा, ‘उधार लेते समय आपके मन में लौटाने का भाव था या नहीं?’  वह व्यक्ति बोला, ‘ लौटाना क्या अपना ही तो मित्र है !’ इस पर उसकी पत्नी ने समझाया, ‘नहीं नहीं, लेते समय लौटाने का भाव होना चाहिए और यह भाव एक क्षण के लिए भी विस्मृत नहीं होना चाहिए। ऐसा करो आप तीसरी बार फिर जाओ। उन्हें कहना – ₹100 और दे दो, उससे कुछ काम करूंगा। पिछले भी लौट आऊंगा और यह भी लौटाऊंगा।’
वह व्यक्ति साहस जुटाकर तीसरी बार मित्र के पास पहुंचा तो मित्र के मन में संदेह उत्पन्न हुआ कि यह व्यक्ति बार-बार लेने क्यों आ रहा है। शायद यह मुझे ठग रहा है। अत: उसने उसे घर से बाहर ही रोक लिया और एक कोने में ले जाकर आने का कारण पूछा। जैसा कि वह घर से संकल्प करके आया था, बहुत विनम्र भाव से बोला, ‘मित्र, एक बार फिर से मैं तुम्हारे पास उधार लेने आया हूं लेकिन विश्वास दिलाता हूं कि कमाऊंगा, यह भी लौटाऊंगा, वह भी हाथ जोड़कर लौटाऊंगा ।’ धनवान मित्र ने उसे ₹100 तो दे दिया लेकिन साथ ही चेतावनी भी दी कि ‘अब मत आना। कहीं ऐसा ना हो तेरे चक्कर में मेरे परिवार के लोग मेरे भी खिलाफ हो जाए!’  लेकिन उसके होठों पर वही शब्द बार-बार थे, ‘विश्वास दिलाता हूं कि कमाऊंगा, यह भी लौटाऊंगा, वह भी हाथ जोड़कर लौटाऊंगा ।’
पैसे लिए वह अपने गांव की तरफ पड़ा। फिर वही रास्ता। फिर वही गर्मी। फिर वही तालाब। फिर वही स्नान। लेकिन इस बार अचानक उसकी नजर पेड़ के कोटर पर पड़ी तो वह यह देख खुशी से उछल गया क्योंकि पिछली दोनों बार का धन भी वहां रखा हुआ था। अब उसके पास ₹300 हो गए तो मन में विचार आया कि क्यों न ₹200 मित्र को लौटा दिए जाएं।
वह एक बार फिर से मित्र के घर की तरफ बढ़ा। उसे दूर से ही देख कर मित्र ने रुकने का इशारा किया और वहां जाकर बोला, ‘ तु इतना घटिया हो सकता है मैंने कभी सोचा भी नहीं था। मेरे पास हराम का धन नहीं है जो तुझे हर रोज ₹100 दूं। इसलिए फौरन यहां से भाग जा वरना इस बार तेरे साथ वह सलूक होगा जो जीवन भर याद रहेगा।’ यह सब सुनकर भी उसने हाथ जोड़कर कहा, ‘मित्र तुम्हारा कहना बिल्कुल ठीक है। लेकिन इस बार मैं कुछ लेने नहीं बल्कि ₹200 लौटाने आया हूं।’ और उसने पूरी कहानी सुनाई। पूरी बात सुनकर मित्र ने उसे गले लगाया और साथ ही उसकी पत्नी की सराहना की जिसने उसे लेने के साथ साथ लौटाने के भाव को प्रबल और जीवंत रखने की सीख दी।
यह कहानी केवल उस व्यक्ति की नहीं है। हम सब की है। हम भी तो इस प्रकृति से केवल लेना जानते हैं। हमें पेड़ों से ऑक्सीजन चाहिए, फल फूल लकड़ी चाहिए, छाया चाहिए। इतने उपकारो के लिए वृक्षों का कृतज्ञ होने की बजाय हम कृतघन है । जो वृक्ष हमें जीवन देते हैं,, हम उन्हें मृत्यु देते हैं। लेकिन हम भूल जाते हैं कि हम भी अपने लिए मृत्यु को ही आमंत्रित कर रहे हैं। सर्वनाश का आह्वान कर रहे हैं।
यदि हम श्रद्धा पूर्वक लेने और कृतज्ञता पूर्ण लौटाने के मार्ग पर नहीं चलेंगे तो संतुलन कैसे बनेगा? प्राणायाम भी यही है। सात्विक वातावरण में वायु को ग्रहण करना और लौटाना। इस प्रक्रिया में कोई हड़बड़ाहट नहीं होनी चाहिए। सहजता होनी चाहिए। जिस सहजता से श्वास ग्रहण किया है उसी सहजता से उसी गति से उसे बाहर छोड़ना है। जो श्वास की इस प्रक्रिया के आयाम को समझ गया और उसे अपने जीवन में धारण कर लिया वही प्राणायाम है। उसी के प्राण आयाम तक पहुंचते हैं अर्थात वह अपने कर्तव्यों का सम्यक निर्वहन कर सकता है। जो संतुलन की इस प्रक्रिया को नकारता है, वह स्वयं को ही मारता है।  उसके प्राण आयाम तक नहीं, समय से पूर्व ही पूर्णविराम की ओर बढ़ते हैं।