जीवन के लिए खतरा बनता जलवायु परिवर्तन

जलवायु परिवर्तन, जलचक्र, वायुचक्र,फसल चक्र, प्रकृति-पर्यावरण चक्र और समूचे जीवन चक्र के लिए खतरा बनता जा रहा है। पिछले कई दिनों से राजधानी दिल्ली सहित देश के कई हिस्सों का तापमान 47 डिग्री को पार कर चुका है। पेयजल, खाद्य पदार्थ एवं बिजली जैसी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति भी प्रभावित हो रही है। उल्टी, दस्त, सिरदर्द, ब्लड प्रेशर, चिड़चिड़ापन एवं अवसाद के रोगियों की संख्या भी बढ़ रही है। क्या इस प्रकार तापमान का बढ़ना जलवायु परिवर्तन का प्रभाव नहीं है?
      प्रकृति-पर्यावरण की भांति हमारी शारीरिक संरचना में भी अग्नि, जल,वायु आदि पांच तत्वों की प्रधानता है। भारतीय ज्ञान परंपरा जहां एक और प्रकृति- पर्यावरण के विषय में व्यापक चिंतन प्रस्तुत करती है,वहीं उनके साथ सामंजस्य बैठाते हुए जीवन जीने का संदेश भी देती है। विडंबना यह है कि ज्ञान-विज्ञान और भिन्न-भिन्न प्रकार के विकास के नाम पर प्रकृति और पर्यावरणीय संरचनाओं के साथ छेड़छाड़ बढ़ रही है। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण,जंगलों की कटाई, पहाड़ों की कटाई, नदियों से अवैध खनन, जंगलों की आग एवं औद्योगिक उत्सर्जन के कारण बढ़ता तापमान जलवायु परिवर्तन के कारक बन रहे हैं। विकास की अंधी दौड़ और होड़ में हम यह भूल रहे हैं कि विकास किसके लिए और कैसे? जब जीवन ही स्वस्थ और सुरक्षित नहीं रहेगा तो फिर विकास किस काम का?

 

हमें यह समझना होगा कि प्रकृति में उपलब्ध विभिन्न संसाधन मनुष्य के भोग और शोषण के लिए नहीं हैं अपितु उनके त्यागपूर्वक उपयोग से ही संतुलन बना रह सकता है। औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने की होड़ में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि हो रही है, क्या यह चिंताजनक नहीं है? जून 2023 में छपे एक समाचार के अनुसार तापमान बढ़ने से 10 गुना तक विस्थापन की चिंता व्यक्त की गई थी। सामान्यतः देखा जा सकता है कि उच्च तापमान के कारण स्वास्थ्य समस्याएं, जंगल की आग,गरीबी, पानी और भोजन की कमी जैसी समस्याएं पैदा हो जाती हैं। इससे खेती पर भी नकारात्मक असर पड़ता है। उपज कम होने के साथ-साथ फसलें विकारयुक्त भी हो जाती हैं। विगत वर्ष ही यूनिवर्सिटी ऑफ़ ईस्ट एंग्लिया में टिंडल सेंटर फॉर क्लाइमेट रिसर्च से जुड़ी एक शोधकर्ता ने यह स्पष्ट किया था कि उच्च तापमान हृदय, फेफड़े, मस्तिष्क और गुर्दे के साथ-साथ दिमाग और हार्मोनल प्रणाली को प्रभावित कर सकता है, जो समय से पहले मृत्यु और विकलांगता का कारण हो सकता है। आंकड़े यह भी हैं कि अत्यधिक तापमान के कारण प्रतिवर्ष 50 लाख लोगों की असमय मौत हो जाती है, क्या यह चिंताजनक नहीं है?

 

जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं जिसका प्रभाव नदियों में जल की मात्रा पर पड़ रहा है। ग्रीनलैंड के ग्लेशियर भी तेजी से पिघल रहे हैं। इसी प्रकार समुद्र के जल के तापमान में बढ़ोतरी के कारण कोलंबिया स्थित रिटाकुबा ब्लैंको ग्लेशियर के तेजी से पिघलने और बर्फ की परतों में दरार आने के भी समाचार हैं। इस प्रकार की घटनाएं जहां नदियों और समुद्र की पारिस्थितिकी को प्रभावित करती हैं वहीं इनका असर मछली पकड़ने के व्यवसाय,खनन, जल विद्युत एवं अन्य आर्थिक गतिविधियों पर भी पड़ता है। विगत वर्ष जुलाई महीने में दिल्ली के क्लाइमेट एक्शन प्लान के ड्राफ्ट में यह चेतावनी सामने आई है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण दिल्ली को वर्ष 2050 तक 2.75 लाख करोड़ रुपये का नुकसान होने का अनुमान है। इसमें कृषि और संबद्ध क्षेत्रों में 80 अरब रुपये,विनिर्माण में 330 अरब रुपये और सेवाओं में 2.34 लाख करोड़ रुपये के नुकसान का अनुमान लगाया गया है। वर्षा और तापमान के पैटर्न में बदलाव से निम्न आय वर्गीय आबादी के लिए बड़ा खतरा पैदा हो रहा है। विगत वर्ष जुलाई माह में ही देश के एक तिहाई हिस्से में सूखे की आहट का समाचार छपा था, जो यह बताता है कि जलवायु परिवर्तन के कारण उत्तर प्रदेश के 31 और बिहार के 30 जिलों में सामान्य से बहुत कम वर्षा हुई। वहीं इसी समय देश के अनेक जिले अधिक वर्षा और बाढ़ का सामना कर रहे थे।
     जलवायु परिवर्तन के कारण ही आज देश की गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र,गोदावरी, कृष्णा, कावेरी जैसी सैकड़ों नदियां कम जल अथवा सूखे का सामना कर रही हैं। अनेक नदियों का अस्तित्व समाप्त हो चुका है । सोचिए! यदि नदियों में जल ही न होगा तो जीवन कैसे संभव है? जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र में रहने वाले विभिन्न जलीय जीवों की प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं। हाल ही में केंद्रीय समुद्री मत्स्य अनुसंधान संस्थान के शोधकर्ताओं ने कहा है कि लक्षद्वीप के विभिन्न द्वीपों से सर्वेक्षण के परिणामों से पता चला है कि कठोर शैवाल प्रजातियों का एक बड़ा प्रतिशत गंभीर रूप से रंगविहीन हो रहा है। समुद्र की गर्म लहरों के कारण कोरल्स के साथ-साथ समुद्री घास एवं विभिन्न जीवों के समुद्री आवास भी खतरे में हैं।
         जलवायु परिवर्तन का घातक प्रभाव मनुष्य एवं जीव सृष्टि के साथ-साथ भाषाओं पर भी पड रहा है। विगत वर्ष मेलबर्न की ग्राज यूनिवर्सिटी द्वारा एक शोध में यह बात सामने आई है कि जलवायु परिवर्तन के कारण दुनियाभर में भाषाएं लुप्त हो रही हैं, जिनमें से एक तिहाई से अधिक भाषाएं पापुआ न्यू गिनी, वानुअतु , इंडोनेशिया,भारत और फिलीपींस में बोली जाती हैं। दुनिया के सबसे समृद्ध भाषा वाले हिस्सों में पर्यावरणीय आपदा लाखों लोगों को जबरन विस्थापित होने के लिए मजबूर कर रही है। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2022 में दुनियाभर में 10.8 करोड़ से अधिक लोग जबरन विस्थापित हुए। यहां यह भी समझना आवश्यक है कि प्रत्येक भाषा में अपना ज्ञान-विज्ञान, इतिहास और संस्कृति होती है। किसी भी देश अथवा समाज की भाषा का लुप्त होना उस भाषा में विद्यमान ज्ञान का लुप्त होना है।


    जलवायु परिवर्तन का प्रभाव शिक्षा एवं छात्रों के जीवन पर भी पड़ रहा है। सामान्यतः सर्दी, गर्मी और बरसात में हालात इतने बिगड़ जाते हैं कि कई कई दिन तक विद्यालय, महाविद्यालय व अन्य शिक्षण संस्थानों की छुट्टी करनी पड़ती है। कई बार बुनियादी ढांचा प्रभावित होता है तो अनेक बार इन स्थानों को प्रभावित लोगों के लिए प्रयोग में लाने के कारण पढ़ाई बंद करनी पड़ती है। हाल ही में विश्व बैंक ने अपने पॉलिसी नोट में इस संदर्भ में एक चौंकाने वाली जानकारी दी है। इसके अनुसार पिछले 20 वर्षों में 50 लाख से अधिक छात्र मौसम संबंधी घटनाओं से प्रभावित हुए हैं। जलवायु परिवर्तन एवं मौसम में बढ़ती तपिश के कारण विगत कई दिन से देश के उत्तराखंड, हिमाचल आदि से जंगल की आग की सैकड़ों घटनाएं दर्ज हुई है,जिसमें हजारों हेक्टेयर वन क्षेत्र को नुकसान पहुंचा है। विश्व के कई अन्य देशों से भी जंगलों की आग के समाचार आते रहते हैं। जंगलों की यह आग प्रदूषण का कारक तो बनती ही है, इसके साथ-साथ जंगलों की दुर्लभ वनस्पतियों एवं जीव संपदा को भी नष्ट करती है।  ध्यातव्य है कि विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 430 मिलियन टन प्लास्टिक कचरा पैदा हो रहा है,जिसके कारण ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है। भारत भी प्लास्टिक कचरा उत्पन्न करने वाला दुनिया का पांचवा बड़ा देश है। यद्यपि यहां पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा प्लास्टिक कचरा प्रबंधन नियमावली 2021 लागू की जा चुकी है तथापि यह एक बड़ा संकट अथवा चिंता का कारण तो है ही।


     विगत दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्र में प्रतिदिन 3800 टन कचरे के अशोधित रह जाने को भयानक स्थिति करार दिया है। माननीय न्यायालय ने प्रदूषण में रहना जीवन के मौलिक अधिकार का उल्लंघन भी बताया है। चिंताजनक यह है कि यदि दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों में यह स्थिति है तो फिर देश के अन्य क्षेत्रों में इसकी भयावहता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। जगह-जगह कूड़ा-कचरा एवं प्लास्टिक के ढेर प्रदूषण के कारक बन रहे हैं। विगत दिनों दिल्ली के गाजीपुर के सेनेटरी लैंड फील्ड में आग लगने से कई दिन तक धुएं के गब्बार उठाते रहे, क्या इस प्रकार की घटनाएं ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा नहीं दे रही हैं?


   जलवायु परिवर्तन अब चिंताजनक स्थिति में पहुंच चुका है। देश-विदेश में छोटे-छोटे स्थानों पर इसके प्रभाव प्रत्यक्ष दिखाई देने लगे हैं। येल प्रोग्राम आन क्लाइमेट चेंज कम्युनिकेशन एंड सीवोटर द्वारा भारत में किए गए एक सर्वेक्षण में यह पता चला है कि 91 प्रतिशत भारतीय जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंतित हैं। लेकिन क्या केवल चिंता करने से खतरा टल जाएगा? आज प्रादेशिक, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस बात की आवश्यकता है कि एक दूसरे के साथ समन्वय बनाते हुए जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर गंभीरता से योजना बनाकर उसका क्रियान्वयन किया जाए। प्रदूषण के लिए दोषी व योजनाओं को समुचित रूप में लागू न करने वालों पर कठोर दंडात्मक कार्यवाही की जाए। सामाजिक एवं शैक्षणिक क्षेत्र में विभिन्न गतिविधियों एवं पाठ्यक्रम आदि के माध्यम से सभी को जागरूक किया जाए। जलवायु परिवर्तन आज किसी एक व्यक्ति, प्रदेश अथवा देश की समस्या नहीं है इसलिए सभी को मिलकर जीवन की रक्षा हेतु केवल योजनाओं एवं समझौतों से आगे बढ़कर उन्हें क्रियान्वित करना होगा।


डॉ.वेदप्रकाश


असिस्टेंट प्रोफेसर,
किरोड़ीमल कॉलेज,दिल्ली विश्वविद्यालय