गुलामी के दौर में जब पहाड़ों में पक्की सड़कों का निर्माण नहीं हुआ था और यात्राएं पैदल ही की जाती थी तब पिथौरागढ़ जनपद के धारचुला से आगे सीमांत गाँव दातू की दानवीर जसुली देवी शौकयानी द्वारा दान दिए धन से हल्द्वानी से लेकर नेपाल, कैलाश मानसरोवर मार्ग और पश्चिम तिब्बत के तकलाकोट क्षेत्र तक 350 से अधिक धर्मशालाओं का निर्माण किया गया था। ये धर्मशालाएं उन मार्गों पर भी बनाई गई दी जहां से भोटिया व्यापारी तिब्बत से व्यापार हेतु आवागमन किया करते थे।
इन धर्मशालाओं का निर्माण अंग्रेजों द्वारा 1840 के आसपास किया गया था। जल स्रोतों के पास , नदी के किनारे तथा कच्चे पैदल मार्र्गों के किनारे ये धर्मशालाएं बनाई गई थी। इतिहासकारों के अनुसार हर दस से पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर इनका निर्माण किया गया। मतलब एक दिन में जितना पैदल चला जा सकता था, उतनी ही दूरी पर इन्हें बनाया गया। इन धर्मशालाओं का वर्णन 1870 मे अल्मोड़ा के तत्कालीन कमिश्नर शेरिंग के यात्रा वृतांतों में भी मिलता है।
लेखक शक्तिप्रसाद सकलानी की पुस्तक उत्तराखण्ड की विभूतियों के अनुसार दानवीर जसुली देवी शौकयानी का जन्म सीमांत कस्बे धारचुला से आगे दारमा घाटी के दातू गांव में 1805 में हुआ था। जसुली देवी शौका समुदाय से ताल्लुक रखती थी , इसलिए उसे शौकयानी कहा गया। जसुली का विवाह उसी गाँव के अमीर परिवार के युवक जंबू सिंह के साथ हुआ। यह परिवार तिब्बत के साथ व्यापार से जुड़ा था इसलिए इनके पास काफी धन दौलत थी। जसुली का एक बेटा हुआ पर अल्प आयु में ही उसका देहांत हो गया। कुछ साल बाद जंबू सिंह का भी निधन हो गया। जंबू सिंह ने मरने से पहले जसुली को खेत मे दबाए गए धन के बारे मे बताया।
पति की मृत्यु से जसुली देवी टूट गई थी । उसने निर्णय लिया कि यह अपार दौलत अब उसके किसी काम की नहीं, इसलिए सारी दौलत को नदी में बहा दिया जाए। जब वह कुछ लोगों के साथ मिलकर ऐसा कर रही थी , उसी समय अंग्रेज अफसर सर हेनरी रैमसे दातू गांव के दौरे पर थे। उन्होंने देखा कि एक महिला न्यूला नदी व धौलीगंगा के संगम पर पुरोहितों के साथ अनुष्ठान कर रुपये से भरे बोरे को पानी में बहा रही है। पता चला कि मृत पति के अंतिम संस्कार के बाद नदी में रुपये बहाकर परोपकार का अनुष्ठान कर रही है और उसका मानना है कि ऐसा करने से पति की आत्मा को शांति मिलेगी।
अंग्रेज अफसर जसुली देवी के पास गए और उसे ऐसा करने से रोका और समझाया कि इस धन दौलत का इस्तेमाल जनहित में किया जाए। पहले तो जसुली देवी ने आनाकानी की पर अंग्रेज अफसर के बहुत समझाने पर आखिरकार मान गई।
जसुली ने कैलाश मानसरोवर और तिब्बत मार्ग पर धर्मशालाओं के निर्माण की इच्छा जाहिर की। अंग्रेज अफसर ने ऐसा ही करने का वादा किया और 350 से अधिक धर्मशालाए बनवाई। इनमें चार से लेकर आठ कमरे होते थे। कमरों का आकार छोटा होता था लेकिन उनमेंं तीन से चार व्यक्ति आसानी से रह सकते थे। पत्थर से बनी इन धर्मशालाओं में लकड़ी व लोहे का इस्तेमाल नहीं किया गया था । कमरों में खिड़कियां नहीं है तथा दरवाजे भी नहीं होते थे।
1970 के उपरांत सीमांत तक पक्की सड़क बन जाने के बाद धर्मशालाएं उपेक्षित हुई और खंडहर में तब्दील होने लगी। कुछ सालों से दारमा घाटी की एक समिति इन धर्मशालाओं को खोजने और संरक्षित करने के प्रयासों में जुटी हुई हैं। समिति ने अब तक 130 धर्मशालाओं को खोजने में सफलता पाई है। कई धर्मशालाओं पर स्थानीय लोगों द्वारा कब्जा कर लिया गया है। कुछ धर्मशालाओं में लोगों ने दुकानें खोल दी है। समिति को 25 धर्मशालाएं नेपाल के पाटना, बैतडी और उससे लगे क्षेत्रों में मिली है। तिब्बत सीमा पर भी एक धर्मशाला खोजी गई है। पिथौरागढ़ के सतगढ़ और नैनीताल जिले में अल्मोड़ा मार्ग पर खैरना से आगे काकड़ीघाट के पास स्थित धर्मशाला को समिति द्वारा सुधारा गया है। नैनीताल जनपद के भवाली नगर में मुख्य बाजार में स्थित जसुली देवी धर्मशाला को दो साल पहले निवर्तमान नगर पंचायत अध्यक्ष संजय वर्मा द्वारा राज्य सरकार से प्राप्त अनुदान की मदद से म्युजियम का रुप दिया गया है।
हल्द्वानी से आगे नैनीताल मार्ग पर रानीबाग में चित्रशाला घाट के रास्ते पर गौला नदी के किनारे भी एक धर्मशाला है। रंड समिति ने उत्तराखण्ड सरकार से लुप्त होती इन धर्मशालाओं को पुरातत्व धरोहर घोषित करने की मांग की है ताकि इनकी सुरक्षा और संरक्षण हो सके जिससे आने वाली पीढ़ी भी इनके बारे मे जान सके।