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भारत की भूमि पर अनेक महापुरुषों ने जन्म लेकर इस धरा का गौरव बढ़ाया, उसी आलोकधर्मी परंपरा का विस्तार है आचार्य महाश्रमण। महावीर, बुद्ध, गांधी, आचार्य भिक्षु, आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ की इस परम्परा को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने स्वयं को ऊपर उठाया, महनीय एवं कठोर साधना की, अनुभव प्राप्त किया और अपने अनुभव वैभव के आधार पर दुनिया को शांति, अहिंसा, प्रेम, सौहार्द, अयुद्ध एवं वसुधैव कुटुम्बकम् का सन्देश दिया। अतीत की धुंधली होती आध्यात्मिक परंपरा को आचार्य महाश्रमण एक नई दृष्टि प्रदान की हैं। यह नई दृष्टि एक नए मनुष्य का, एक नए जगत का, एक नए युग का सूत्रपात कही जा सकती है। विशेषतः उनकी विनम्रता और समर्पणभाव उनकी आध्यात्मिकता को ऊंचाई प्रदत्त रह रहे हैं। भगवान राम के प्रति हनुमान की जैसी भक्ति और समर्पण रहा है, वैसा ही समर्पण आचार्य महाश्रमण का अपने गुरु आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ के प्रति रहा है। 22 मई 2024 यानी वैशाख शुक्ला चौदस को आचार्य श्री महाश्रमण की दीक्षा का स्वर्ण जयन्ती समारोह राष्ट्रव्यापी स्तर पर मनाया जा रहा है।
आचार्य महाश्रमण निरुपाधिक व्यक्तित्व का परिचायक बन गया और इस वैशिष्ट्य का राज है उनका प्रबल पुरुषार्थ, उनका समर्पण, अटल संकल्प, अखंड विश्वास और ध्येय निष्ठा। एमर्सन ने सटीक कहा है कि जब प्रकृति को कोई महान कार्य सम्पन्न कराना होता है तो वह उसको करने के लिये एक प्रतिभा का निर्माण करती है।’ निश्चित ही आचार्य महाश्रमण भी किसी महान् कार्य की निष्पत्ति के लिये ही बने हैं। ऐसे ही अनेकानेक महान् कार्यों उनके जीवन से जुड़े हैं, उनमें एक विशिष्ट उपक्रम बना था अहिंसा यात्रा। आचार्य महाश्रमण ने अपनी आठ वर्षीय इस ऐतिहासिक, अविस्मरणीय एवं विलक्षण यात्रा में उन्नीस राज्यों एवं भारत सहित तीन पड़ोसी देशों की करीब सत्तर हजार किलोमीटर की पदयात्रा करते हुए अहिंसा और शांति का पैगाम फैलाया। करीब एक करोड़ लोगों को नशामुक्ति का संकल्प दिलाया। नेपाल में भूकम्प, कोरोना की विषम परिस्थितियों में इस यात्रा का नक्सलवादी एवं माओवादी क्षेत्रों में पहुंचना आचार्य महाश्रमण के दृढ़ संकल्प, मजबूत मनोबल एवं आत्मबल का परिचायक बना था।
आचार्य महाश्रमण का देश के सुदूर क्षेत्रों-नेपाल एवं भूटान जैसे पडौसी राष्ट्रों सहित आसाम, बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, कर्नाटक, तमिलनाडू, महाराष्ट्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़ आदि में अहिंसा यात्रा करना और उसमें अहिंसा पर विशेष जोर दिया जाना अहिंसा की स्थापना के लिये सार्थक सिद्ध हुआ है। क्योंकि आज देश एवं दुनिया हिंसा एवं युद्ध के महाप्रलय से भयभीत और आतंकित है। जातीय उन्माद, सांप्रदायिक विद्वेष और जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं का अभाव- ऐसे कारण हैं जो हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं और इन्हीं कारणों को नियंत्रित करने के लिए आचार्य महाश्रमण अहिंसा यात्रा के विशिष्ट अभियान के माध्यम से प्रयत्नशील बने थे।
भारत की माटी में पदयात्राओं का अनूठा इतिहास रहा है। असत्य पर सत्य की विजय हेतु मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा की हुई लंका की ऐतिहासिक यात्रा हो अथवा एक मुट्ठी भर नमक से पूरा ब्रिटिश साम्राज्य हिला देने वाला 1930 का डाण्डी कूच, बाबा आमटे की भारत जोड़ो यात्रा हो अथवा राष्ट्रीय अखण्डता, साम्प्रदायिक सद्भाव और अन्तर्राष्ट्रीय भ्रातृत्व भाव से समर्पित एकता यात्रा, यात्रा के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
भारतीय जीवन में पैदल यात्रा को जन-सम्पर्क का सशक्त माध्यम स्वीकारा गया है। ये पैदल यात्राएं सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक यथार्थ से सीधा साक्षात्कार करती हैं। लोक चेतना को उद्बुद्ध कर उसे युगानुकूल मोड़ देती हैं। भगवान् महावीर ने अपने जीवनकाल में अनेक प्रदेशों में विहार कर वहां के जनमानस में अध्यात्म के बीज बोये थे। लेकिन इन यात्राओं की श्रृंखला में आचार्य श्री महाश्रमण ने नये स्तस्तिक उकेरे हैं। समस्त पूर्वाचार्यों से एक विशेष कालखंड में सर्वाधिक लम्बी पदयात्रा करने के फलस्वरूप आचार्य श्री महाश्रमण को ”पांव-पांव चलने वाला सूरज“ संज्ञा से अभिहित किया जाने लगा है।
आचार्य महाश्रमण का बारह वर्ष के मुनि के रूप में लाडनूं में मेरा प्रथम साक्षात्कार मेरे बचपन की एक विलक्षण और यादगार घटना रही है। लेकिन उसके साढे़ चार दशक बाद उनके गहन विचारों से मेरा परिचय और भी विलक्षण घटना है क्योंकि उनके विचारों से मेरी मन-वीणा के तार झंकृत हुए। जीवन के छोटे-छोटे मसलों पर जब वे अपनी पारदर्शी नजर की रोशनी डालते हैं तो यूं लगता है जैसे कुहासे से भरी हुई राह पर सूरज की किरणें फैल गई। मन की बदलियां दूर हो जाती हैं और निरभ्र आकाश उदित हो गया है। आचार्य महाश्रमण का मानना है कि जिस राष्ट्र ने अपनी संस्कृति को भुला दिया, वह राष्ट्र वास्तव में एक जीवित और जागृत राष्ट्र नहीं हो सकता। उनकी दृष्टि में भारतीय संस्कृति का अर्थ है- ऊंची संस्कृति, त्याग की संस्कृति, संयम की संस्कृति और अध्यात्म की संस्कृति है। वे भारतीय संस्कृति की गरिमा से अभिभूत हैं, अतः देशवासियों को अनेक बार भारत के विराट् सांस्कृतिक मूल्यों को अवगति देते रहते हैं। बड़ी अपेक्षा यह है कि भारत अपना मूल्यांकन करना सीखे और खोई प्रतिष्ठा को पुनः अर्जित करे। इसी व्यापक एवं गहन चिंतन के आधार पर उनका विश्वास है कि सही अर्थ में अगर कोई संसार का प्रतिनिधित्व कर सकता है तो भारत ही कर सकता है, क्योंकि भारत की आत्मा में आज भी अहिंसा की प्राणप्रतिष्ठा है। मैं मानता हूं कि यदि भारत आध्यात्मिकता को विस्मृत कर देगा तो अपनी मौत मरेगा।
आचार्य श्री महाश्रमण का चिंतन है कि भारतीय संस्कृति सबसे प्राचीन ही नहीं, समृद्ध और जीवंत भी है, अतः किसी भी राष्ट्रीय समस्या का हल हमें अपने सांस्कृतिक तत्वों के द्वारा ही करना चाहिए, अन्यथा मानसिक दासता हमें अपनी संस्कृति के प्रति उतनी गौरवशील नहीं रहने देगी। भारत में सांस्कृतिक एकता बनी रही, इसका कारण बताते हुए राष्ट्रकवि दिनकर ने कहा- ‘‘बाहर से आने वाली अन्य संस्कृतियों को भी भारतीय संस्कृति ने अपनी समन्वय शक्ति के बल पर आत्मसात् कर लिया, इसलिए उसका प्रवाह बना रहा।’’ उसी भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में आचार्य श्री महाश्रमण के वार्तमानिक अनुभव प्रेरणादायी, सटीक एवं मार्मिक बन पड़े हैं। भारत कर्मभूमि है, भोगभूमि नहीं। यहां जो सभ्यता विकसित हुई, वह दुनिया में किसी से पराजित नहीं होगी। यदि हमने पश्चिमी सभ्यता की नकल करने की कोशिश की तो हम बरबाद हो जायेंगे। इसका मतलब यह नहीं है कि उसमें जो अच्छा है और जिसे हम हजम कर सकते हैं, उसे अंगीकार न करें। अचेतन के संबंध में समझने के लिए मैंने आचार्य महाश्रमण को पढ़ना शुरू किया। आचार्य महाश्रमण जिस प्रकार से अचेतन और उसके प्रतिबिम्बों के संबंध में समझाते हैं, बाते गहरे बैठ जाती है।
स्वल्प आचार्य शासना में आचार्य महाश्रमण ने मानव चेतना के विकास के हर पहलू को उजागर किया। कृष्ण, महावीर, बुद्ध, जीसस के साथ ही साथ भारतीय अध्यात्म आकाश के अनेक संतों-आदि शंकराचार्य, कबीर, नानक, रैदास, मीरा आदि की परंपरा से ऐसे जीवन मूल्यों को चुन-चुनकर युग की त्रासदी एवं उसकी चुनौतियों को समाहित करने का अनूठा कार्य उन्होंने किया। जीवन का ऐसा कोई भी आयाम नहीं है जो उनके प्रवचनों-विचारों से अस्पर्शित रहा हो। योग, तंत्र, मंत्र, यंत्र, साधना, ध्यान आदि के गूढ़ रहस्यों पर उन्होंने सविस्तार प्रकाश डाला है। साथ ही राजनीति, कला, विज्ञान, मनोविज्ञान, दर्शन, शिक्षा, परिवार, समाज, गरीबी, जनसंख्या विस्फोट, पर्यावरण, हिंसा, जातीयता, भ्रष्टाचार, राजनीतिक अपराधीकरण, भ्रूणहत्या और महंगाई के विश्व संकट जैसे अनेक विषयों पर भी अपनी क्रांतिकारी जीवन-दृष्टि प्रदत्त की है। जब उनकी उत्तराध्ययन और श्रीमद् भगवद गीता पर आधारित प्रवचन शृंखला सामने आई, उसने आध्यात्मिक जगत में एक अभिनव क्रांति का सूत्रपात किया है। एक जैनाचार्य द्वारा उत्तराध्ययन की भंाति सनातन परम्परा के श्रद्धास्पद ग्रंथ गीता की भी अधिकार के साथ सटीक व्याख्या करना न केवल आश्चर्यजनक है बल्कि प्रेरक भी है। इसीलिये तो आचार्य महाश्रमण मानवता के मसीहा के रूप में जन-जन के बीच लोकप्रिय एवं आदरास्पद है। वे एक ऐसे संत हैं, जिनके लिये पंथ और ग्रंथ का भेद बाधक नहीं बनता। आपके कार्यक्रम, विचार एवं प्रवचन सर्वजनहिताय होते हैं। हर जाति, वर्ग, क्षेत्र और सम्प्रदाय की जनता आपके जीवन-दर्शन एवं व्यक्तित्व से लाभान्वित होती रही है।