पृथ्वी को रत्नगर्भा कहा गया हैं, क्योंकि रत्न जहां श्रृंगार एवं वैभव के प्रतीक हैं, वहीं चिकित्सा में भी इनका बहुत उपयोग होता है। ज्ञान समुद्र के समान है, मनुष्य केवल इसकी कुछ बूंदें चखने का ही भागीदार होता है। रत्नों के बारे में ही ज्ञान के प्रगटीकरण का सिलसिला आज तक जारी है। आज रत्नों का उपयोग श्रृंगार, चिकित्सा तथा ग्रहों के प्रकोप से बचने के लिए किया जाता है। रत्न शुद्ध व असली हो इसकी परीक्षा जौहरी ही जानते हैं। पर कुछ ग्रंथ, रत्नों की परीक्षा एवं उपयोगिता से सर्वसाधारण को भी परिचित कराते हैं।
रत्न परीक्षा पर सबसे पहले व्यवस्थित ढंग से कोटिल्य ने अर्थशास्त्र में विचार किया। इसके बाद इस विषय पर अनेक ग्रंथ समय-समय पर आते रहे हैं। कुछ लोगों की धारणा है कि, अगस्त्य ऋषि ने भी अगस्तिमत में रत्न परीक्षा पर विचार किया है। वैसे रत्नों का विवरण पुराणों तथा आगमों में प्राप्त होता है। अग्नि पुराण, गरूड़ पुराण, दैवीय भागवत तथा विष्णु धर्मोतरं में भी इनकी व्यापक चर्चा है।
अर्वाचीन काल में रत्न प्रदीप, रत्न प्रकाश, रत्न दीपक, ठक्कर फेरू की रत्न परीक्षा इत्यादि ग्रन्थ काफी महत्वपूर्ण हैं।
रत्न परीक्षा नामक ग्रन्थ रत्न साठ के दशक में भी अगरचंद नहाटा व भंवरलाल नहाटा ने संपादित किया था, यह ग्रंथ कोलकाता से प्रकाशित हुआ था।
इस ग्रंथ की भूमिका में रत्नों की परीक्षा के संबंध में उपलब्ध भारतीय साहित्य की चर्चा है। प्राचीन काल से लगाकर आज तक (ग्रंथ रचना तक) के समय के उपलब्ध साहित्य का विस्तार से प्रामाणिक विवरण संपादकद्वय ने प्रस्तुत किया है। विशेष रूप से मणि व रत्नों के संदर्भ में जैन साहित्य की चर्चा विशेष रूप से उल्लेखनीय है। एक संदर्भ है ‘महारानी त्रिशला ने जो महास्वप्न श्री महावीर के जन्म के पूर्व देखे थे, उसमें 13 वां स्वप्न रत्न राशि का है। इसमें सभी राशि रत्न सम्मिलित थे।’
इस ग्रंथ का एक अध्याय डॉ. मोतीचंद द्वारा लिखा गया है, जिसमें उन्होंने प्रसिद्ध ग्रन्थकार ठक्कर फेरू की रत्न परीक्षा का विस्तार से विवरण दिया है। अमरकोश, अर्थशास्त्र, अगस्तिमत प्राचीन व अर्वाचीन परीक्षा विवरणों से भरा यह अध्याय जौहरियों के साथ साधारण लोगों के लिए भी उपयोगी है। इस अध्याय में उन्होंने बताया कि रत्न, शास्त्र में उत्पत्ति, आकार, वर्ण, जाति, गुणदोष, फल, मूध्य व नकली रत्नों की स्पष्ट जानकारी होनी चाहिए इन विषयों पर ठक्कार फेरू का ग्रंथ प्रामाणिक जानकारी देता है।
इस ग्रंथ का दूसरा अध्याय उज्जैन के प्रसिद्ध विद्वान व पद्मभूषण पं. सूर्यनारायण व्यास द्वारा लिखा गया है।
यह ‘रत्नों की वैज्ञानिकता, उपादेयता और परिचय’ विषयक एक आलेख या निबन्ध है। इस निबन्धात्मक लेख में पंडितजी ने विज्ञान, मानव शरीर व रत्नों के संबंध, परस्पर प्रभाव तथा उपयोगिता पर पर्याप्त जानकारी प्रदान की है।
इस अध्याय में नवग्रहों के नवरत्नों, 84 उपरत्नों के रंग व ग्रहों से संबंध पर भी पर्याप्त सामग्री है। आपने अपने आलेख का अंत ‘रत्न समागच्छतु कांचनेन’ सूक्ति से किया है, जो रत्नों के रहस्य का सार है।
तृतीय अध्याय के लेखक राधाकृष्ण नेवटिया हैं। इन्होंने चिकित्सा में रत्नों के उपयोग पर प्रभावशाली जानकारी प्रदान की है। आपने वैद्यक ग्रन्थों, मिश्र के पिरामिड तथा कूर्मपुराण से अपनी चर्चा आरम्भ की। आपकी मान्यता है कि, सूर्य किरणों से निर्मित इन्द्रधनुष के सात रंगों में दैवीय गुण है। सर्वज्ञता, सर्वसामथ्र्य एवं सर्वव्याप्ति ये गुण रोग शमन का आधार हैं। रत्न एवं उपरत्नों से तीन गुणों को परखकर रोग निदान संभव है।
इस ग्रंथ के अगले तीन अध्याय तीन रत्न परीक्षा सम्बंधी ग्रंथों के हिन्दी अनुवाद से सम्बन्धित हैं। ठक्कर फेरू, मुनि तत्वकुमार व रत्नशेखर की रचनाओं का सरल हिन्दी अनुवाद है। इस ग्रंथ में चार परिशिष्ट भी हैं। चार मूल ग्रंथों को ज्यों का त्यों दिया गया है। ये हैं नवरत्न परीक्षा, मोहरारी परीक्षा, कृत्रिम रत्न एवं नवरत्न रस। रत्न परीक्षा पर अनेक ग्रंथ समय-समय पर लिखे जाते रहे हैं। नहाटा द्वारा संपादित रत्न परीक्षा अनमोल है। दु:खद पहलू यह है कि अब यह अनुपलब्ध तथा दुर्लभ हो गया है।